अरमान
आमना बारह साल की बच्ची है। उसने पिछले दो सालों से दिन-रात एक करके नवोदय विद्यालय की परीक्षा की तैयारी की। तैयारी कराने वाले शिक्षक भी उसकी प्रतिभा से खासे प्रभावित थे। उनका मानना था कि इस बच्ची का परीक्षा परिणाम बढ़िया होगा। लेकिन रिजल्ट आते ही आमना हताश हो गई। कई दिनों तक घर वालों से छिप कर रोती रही। मां-बाप, दादा-दादी के लाख समझाने के बाद भी उसे विश्वास नहीं होता है कि उसकी पढाई-लिखाई की गाड़ी अब कभी पटरी पर चढ़ पाएगी। वह एक ही सवाल दोहराती है कि मेरा रिजल्ट क्यों नहीं आया? क्या मैं नहीं पढ़ पाऊंगी? क्या नवोदय विद्यालय में पढ़ने का मेरा सपना अधूरा रह जाएगा? आमना के परिवार वालों के पास कोई जवाब नहीं है। परिवार के पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे बच्ची का नामांकन किसी निजी विद्यालय में करा दें, ताकि उसके पढ़ने और आगे बढ़ने का सपना पूरा हो सके।
आमना की इस तकलीफ के लिए कौन जिम्मेदार है? उसके मां-बाप, परिवार या सरकार! क्या उसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा इसलिए नहीं मिलेगी कि उसका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ? क्या एक लोकतांत्रिक और लोक कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी अपने तमाम बच्चों को गुणवत्तापूर्ण समान शिक्षा उपलब्ध कराना नहीं है? क्या राज्य अपने इस दायित्व से भाग सकता है? अगर हम भारतीय राज्य का आकलन समान, सार्वजनिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधार पर करें तो भारत एक विफल राष्ट्र-राज्य साबित होगा। भारत ने अपने ही बच्चों के साथ पर्याप्त भेदभाव किया है। आज पूरे देश में बहुस्तरीय शिक्षा-व्यवस्था कायम है। बच्चे के परिवार की जो सामाजिक-आर्थिक हैसियत होती है, उसे शिक्षा भी उसी स्तर की मिल रही है। फिर शिक्षा की भाषा और गुणवत्ता, स्कूल की प्रकृति सब मिल कर बच्चे का भविष्य तय कर देते हैं, जिसमें बच्चों को मिलने वाले रोजगार की प्रकृति और चरित्र भी शामिल है।
एक तरफ, अमीर बच्चों के लिए सारी सुविधाओं से लैस अंगरेजी माध्यम वाले निजी विद्यालय हैं। इनमें पढ़ने वाले बच्चे की पूरी पढ़ाई रोजगार की वैश्विक प्रकृति के अनुकूल होती है। वहीं गरीब बच्चों को साधनविहीन सरकारी विद्यालयों के हवाले कर दिया गया है, जहां बहुत सारे अप्रशिक्षित और कम वेतन वाले पैरा शिक्षक हैं, जो विपरीत परिस्थितियों में जैसे-तैसे शिक्षण कर्म का निर्वाह करते हैं। इन स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे साधनहीनता और शैक्षणिक वातावरण के अभाव में स्कूल छोड़ कर चले जाते हैं। जो बचते हैं उनमें दसवीं कक्षा के बाद पढ़ाई की इच्छाशक्ति नहीं रह जाती है। इसके बाद भी कुछ बच्चे बच गए तो वे प्रतियोगिता के इस वातावरण में निजी विद्यालयों के बच्चों के सामने टिक नहीं पाते हैं। एक तीसरी व्यवस्था नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय, मॉडल स्कूल सरीखे विद्यालयों की है, जो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। उसमें भी भ्रष्टाचार जैसे अन्य कारणों से जरूरतमंद गरीब बच्चों का नामांकन नहीं हो पाता है।
ऐसे में आमना जैसे बच्चों को पढ़ने, आगे बढ़ने और अपनी इच्छा के अनुरूप रोजगार चुनने की स्वतंत्रता का वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में अब कोई मायने नहीं रह गया है। कहने के लिए सरकार ने शिक्षा को मैलिक अधिकार बना दिया है, लेकिन इस कानून के तहत शिक्षा व्यवस्था में बढ़ती विषमता, भेदभाव और बाजारीकरण की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। पाठ्यचर्या को ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक संदर्भों से काट कर बाजार से जोड़ा गया है। शिक्षा पद्धति का निर्धारण शिक्षाशास्त्रियों के सिद्धातों पर न करके उसे सूचना व्यापार के मानकों के अनुरूप ढालने की कोशिश जारी है। इसके अलावा भी और बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं जो शिक्षा के मूल अधिकार को बेमानी बनाते हैं।
इसके उलट शिक्षा में सुधार के लिए बने ‘कोठारी आयोग’ (1964-66) ने पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित समान स्कूल प्रणाली की अनुशंसा की थी। आयोग ने अपनी रपट में कहा था कि भारत के तमाम बच्चों को शिक्षित करने का एकमात्र उपाय है कि सार्वजनिक धन से चलने वाले पड़ोसी स्कूल सिद्धांत पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। गौरतलब है कि जी-आठ के नाम से ज्ञात दुनिया के सबसे ताकतवर और विकसित मुल्कों (अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जापान, फ्रांस, जर्मनी, रूस, इटली) में सार्वजनिक धन से चलने वाला समान स्कूल प्रणाली काफी हद तक लागू है। इन देशों के विकसित और ताकतवर बनने में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जबकि भारत ने समता पर आधारित समान शिक्षा के उतरदायित्व से अपने कदम पीछे हटा लिए। इसकी कीमत भविष्य में चुकानी होगी।
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