अर्चना राजहंस मधुकर

कुछ समय पहले एक मित्र ने कहा कि तुम अपनी बेटी को क्रेच में क्यों नहीं रखती हो! उनका आशय था कि मैं घर पर रह कर अपना समय बर्बाद कर रही हूं; बेटी को क्रेच यानी पालना-घर में रख कर मुझे अपनी नौकरी दोबारा शुरू करनी चाहिए। सही है कि मुझे नौकरी की तलाश है, लेकिन अब तक यह तय नहीं कर पाई हूं कि मेरे घर पर नहीं होने पर बेटी कहां रहेगी! कई विकल्प तलाशे जा रहे हैं। सबसे मुफीद यह लगता रहा है कि घर से नानी या दादी हमारे साथ आकर रहे और कोई घरेलू सहायिका रख ली जाए। हालांकि नानी-दादी को भी दिल्ली में मन कम ही लगता है। इसकी भी कई वजहें हैं। वे जिस तरह के समाज और परिवार के बीच रहते हैं, वे बातें इस महानगर में नहीं हैं। गांव-घर के लोग कहां दिल्ली की चारदिवारी में अपना मन लगा पाएंगे!

मेरे घर के ऊपर वाले फ्लैट में एक क्रेच है। लेकिन एक अजीब-सी हिचक और आशंका के चलते मैंने अपनी बेटी को वहां नहीं भेजा था। हाल ही में उस क्रेच से एक छोटी बच्ची के यौन शोषण की खबर आई और उस घर के एक करीब पैंसठ साल के बुजुर्ग को पुलिस ने गिरफ्तार किया। इस बुजुर्ग को हमलोग अंकल कहते थे और बच्चे दादू। बच्ची ने पुलिस को जो बयान दिया तो उसमें यही कहा कि ‘दादू गंदा काम करते हैं, मुझे के्रच नहीं जाना!’ बच्ची ने इसके पहले भी यह शिकायत अपने माता-पिता से की थी। इस बाबत जब मैंने बच्ची के माता-पिता से जानना चाहा कि उसकी शिकायत को उन्होंने नजरअंदाज क्यों कर दिया तो उन्होंने कुछ ठोस जवाब नहीं दिया। उनका कहना था कि हमें लगा कि बच्ची की किसी गलती पर उस बुजुर्ग ने डांटा-फटकारा होगा।

शहरों-महानगरों में कामकाजी परिवारों की व्यस्तताओं से हम सब वाकिफ हैं। नौ-दस घंटे काम करने के बाद किसके पास कितना वक्त बचता है और फिर रिश्तों की बलि किस तरह चढ़ती रहती है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। इन्हीं वजहों से घर में क्लेश होना आम बात है। बच्ची सुबह स्कूल चली जाती है, उसके बाद मां-बाप दफ्तर। बच्ची दोपहर में जब घर आती है, तब उसे बस से उतार कर साथ लाने के लिए मां-बाप में से कोई मौजूद नहीं होता। संयुक्त परिवारों का दौर पीछे रह जाने के बाद दादा-दादी या नाना-नानी का सुख अधिकतर बच्चों को प्राप्त नहीं है।
उस पीड़ित बच्ची को स्कूल बस से उतरने के बाद ले जाने वालों में क्रेच संचालिका और सोसाइटी की महिला गार्ड का नाम दर्ज था। संचालिका ऐसे और भी कई बच्चों के लेने के लिए घर से बाहर ही रहती है।

इसके अलावा, वह घर चलाने की जिम्मेदारी से लेकर, छोटे बच्चों को पार्क में घुमाने, अपनी चार साल की बेटी को स्कूल छोड़ने-लाने, वहां की मीटिंग में जाने से लेकर कई दूसरी गतिविधियों में व्यस्त रहती है। इस दौरान क्रेच के बच्चे घर में उसी बुजुर्ग ‘दादू’ के साथ रहते थे। यह सभी बच्चों के अभिभावकों को मालूम भी था कि क्रेच ‘दादू’ और उनकी बहू मिल कर चलाते हैं। लेकिन किसी के भीतर इस तरह की आशंका पैदा नहीं हुई थी कि इतना बुजुर्ग व्यक्ति ऐसा कुछ कर सकता है। एक अभिभावक ने शायद ठीक ही अपनी मजबूरी जाहिर की कि हमारी परवरिश जिस परिवेश और घर में हुई, उसमें हम बच्चों को सबसे सुरक्षित बुजुर्गों के पास ही समझते थे।

सही है कि एक उदाहरण का सामान्यीकरण और सरलीकरण नहीं किया जाना चाहिए। सभी लोग ऐसे नहीं होते। लेकिन बाल-दुर्व्यवहार के इतने रूप सामने आते रहने के बावजूद लोगों में आखिर यह आश्वस्ति क्यों थी? अपनी सुविधाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में लीन माता-पिता यह पूछना जरूरी क्यों नहीं समझते कि ऐसे क्रेच में सुरक्षा के नाम पर क्या व्यवस्था और भरोसे की कितनी गारंटी है? लेकिन आखिर कामकाजी माता-पिता के पास शायद इसके लिए भी वक्त नहीं है।

जाहिर है, इस तरह के मामलों में कत्ल भरोसे का होता है। समाज का ढांचा बुरी तरह से ढहा है। छोटे परिवार की धारणा इतनी सिमटी कि पहले पति-पत्नी और अब बच्चे अकेले होते जा रहे हैं। परिवार और समाज में घुले-मिले होने से व्यक्ति के भीतर जिस संवेदना का विस्तार होता था, वह पराए को भी अपना बनाता था। लेकिन अब छोटे बच्चे भी नहीं बख्शे जा रहे हैं।

नवधनाढ्य तबकों की नई पीढ़ी जब अस्तित्व में आई तो सबसे पहले वृद्धाश्रम का चलन शुरू हुआ। समाज ने इसकी खूब आलोचना की, लेकिन परिवार के टूटते धागे के बीच वृद्धाश्रमों की तादाद बढ़ती रही, बुजुर्ग हाशिये पर जाते रहे। आज यही हाल क्रेच के नाम पर बच्चों का हो रहा है और सवाल आज भी मुंह बाए खड़ा है यह कैसी महत्त्वाकांक्षा और धन की भूख है जिसकी बलि कभी बुजुर्ग तो कभी बच्चे चढ़ते हैं! इस जटिल होते हालात पर फिक्र हमें ही करनी होगी और खुद ही बाहर निकलना होगा।