सुरेश सेठ
पिछले दिनों हमने बहुत परिवर्तन देख लिए। लगा, वास्तव में इक्कीसवीं सदी आ गई। ऐसा नहीं कि इस देश में रोग और महामारियां पहले नहीं फैलती रहीं। जब-जब अस्पतालों में रोगियों की कतारें लगने लगती हैं, एक-एक बिस्तर पर तीन-तीन रोगी नजर आने लगते हैं। बिस्तर ही क्यों, यहां तो मरीज भी निचाट फर्श पर अपने लिए जगह तलाशने में विफल रहते हैं, तो कोलाहल हो जाता, कोई नई महामारी आ गई। बाद में चाहे आंकड़ाशास्त्री बताते नजर आएं कि भई, परिवार नियोजन नहीं करोगे, जनसंख्या नियंत्रण नहीं करोगे, तो प्रकृति की बेआवाज लाठी यों ही काम करेगी।
खबर है कि अर्थशास्त्र के मर्मज्ञ माल्थस साहब ऐसी बात बहुत वर्ष पहले कह गए। अब ऐसे सत्य वचनों का विरोध नहीं होता, केवल श्रद्धा से उसे घटता हुए देखते हैं। इन श्रद्धालुओं को कैसे बताएं कि इसके बाद अर्थशास्त्र के कुछ अन्य मर्मज्ञों ने इस बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के लिए जनसंख्या का इष्टतम सिद्धांत भी बताया था कि अगर अपने प्राकृतिक साधनों का भरपूर परिश्रम के साथ इष्टतम उपयोग करते हो, आय और उत्पादन बुलंद कर लेते हो, तो कोई भी जनसंख्या अत्यधिक नहीं, और प्रकृति का कोई कहर इसका मिजाज सुधारने नहीं आएगा। लेकिन जिस देश में काम हराम है का मूलमंत्र चलता है। शार्टकट संस्कृति की चोरालियों से स्वार्थ सिद्धि के चोर दरवाजे खोलने में लगे रहते हैं। वहां चंद लोगों की हथेलियों पर ही सरसों जमती है और बहुतायत अवसाद के अंधेरे को गले लगा, प्राकृतिक कुठाराघात में अपनी समस्याओं के समाधान तलाशते हैं।
अब सदी बदली, तो इसका तेवर भी बदल गया। पहले जीका का नाम सुना, फिर इबोला आया। पहले मच्छर और मलेरिया आया, फिर डेंगू अपनी किस्म लाया। मौसम बदला, तो चिकनगुनिया ने पकड़ा। फिर देखते ही देखते नई सदी में नया फूल खिलने की जगह नया वायरस तशरीफ ले आया। यह तो देश-देश घूम गया। अब विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर देखते हैं भयातुर दृष्टि से, जिसने इसे विश्वव्यापी आपदा घोषित कर दिया और साथ ही स्पष्ट कर दिया कि भई, हम इसका अभी कोई इलाज खोज नहीं पाए। पहला रोग है यह, जिससे बचाव मुंह पर रूमाल रख कर खांसना और छींकना बताया जा रहा है। एक-दूसरे से बात करनी है, तो कम से कम तीन फीट दूर बैठ कर बात कीजिए।
यह नए किस्म की बीमारी है, इसलिए इसका शक पुष्ट हो, उससे पहले ही मरीज अस्पतालों से भाग रहे हैं। आदेश हुआ था कि इन्हें अलग-थलग कक्षों में रखो, लेकिन कक्ष कहां, यहां अस्पतालों की रंग उधड़ी इमारतें भी मरम्मत के लिए कराह रही हैं। हवाई अड््डे पर विदेश से प्रवासी उतरा, वह महामारी का तोहफा न लाया हो, इस डर से उसे चौदह दिन अलग रखो। इस निर्वासन के डर से आगंतुक भाग लिए। अब भीड़ में लुप्त होकर सब बगलगीर हो रहे हैं। कहां तलाश करें इन्हें, प्रशासन की जान सूख गई।
भाग्यवाद और प्रबल हो गया- जिसकी आई है, वह तो शिकार होगा ही। हमारे भाग्य-विधाताओं ने बेचारगी से हाथ खड़े कर दिए। उपचार तलाशने के लिए भारी धन राशियां आबंटित कर ली। फिलहाल सावधानी रखिए। चेहरे को नकाब से ढकिए, जेब में सेनिटाइजर रखिए। जैसे ही सरकार ने मास्क और सेनिटाइजर को जरूरी वस्तुएं घोषित किया, ये बाजार में गायब हो गर्इं। काले बाजार में दुगने-चौगुने दाम पर बिकने लगीं। इनके लिए कतारें लगती देखी गर्इं, तो इनके नकली संस्करण भी बाजार में बिकने लगे। अधिक सफलता के लिए गोमूत्र का सहारा भी लिया गया। वर्षों से उल्कापात की तरह गिरती महामारियों का उपचार हम यों ही करते आए हैं। मगर चिकित्सा विज्ञानियों ने कहा कि जैसे अन्वेषी हम, वैसा इस दुनिया में कोई नहीं।
महामारी से मुकाबले के लिए टीके ऐसे बनाए कि जो रोग का उन्मूलन नहीं, रोगी की संक्रमण से लड़ने की क्षमता को बढ़ाएं। इसी सिलसिले में कुछ महादानी ऐसे भी आगे बढ़ आए, जिन्होंने रोग निरोधक टीकों की जगह शक्तिवर्धक विटामिनों के टीके लगा रहे थे। उम्मीद यही थी कि उन्हें दानवीर, समरवीर और अंतत: प्रचार विजेता कह कर प्रोत्साहित किया जाएगा। अब अगर ऐसा कोई पकड़ में आ गया, तो वह तो यही कहेगा न कि मेरी धन-संपदा पर छापे क्यों मारते हो? क्योंकि जैसी भी, जहां से भी यह धन-संपदा कमाई है, इसका एक-एक पैसा लगाऊंगा तो कमजोर, रोगी और क्षीणकाय के भले के लिए ही। लेकिन ऐसे समाज का भला करने वालों को भी सदैव अभिनंदित नहीं किया जाता। कहीं वह सत्ता दल से विपक्ष की ओर जाने की गुस्ताखी कर ले। तो उनकी आय शुबहे में आ जाती है और उन पर जो छापेमारी शुरू होती है, उसे देश को स्वच्छ करने का प्रयास कहा जाता है। इस तरह हमारे राष्ट्र निर्माता भ्रष्टाचार रहित समाज की रचना में एक और कदम आगे बढ़ा देते हैं।