अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी
वक्त बदलता है और सारी स्थितियां बदल जाती हैं। विवाह के दौरान विदाई के पहले वाली रात तक कितनी चहल-पहल रहती है! जिस दिन कन्या की विदाई होती है, उस दिन का सूरज कुछ मायूसी लिए उगता है। स्त्रियों के जिन कंठों ने उल्लास में ‘गारियां’ गार्इं, वे अब बेबस होकर विरह के दुख को शब्द दे रहे होते हैं। गांवों में लोग ही नहीं, गोरू-बछरू भी इस विदाई के दुख को महसूस करते हैं। वे कान उटेर-उटेर कर पूरे परिवेश को अपने ढंग से समझने की कोशिश करते हैं। वे निराशा के साथ देखते हैं कि इन इंसानी कायदों में उनका कोई दखल नहीं है। एक गाय का सत्याग्रह मुझे याद है, जिसने कई दिनों तक पानी की बाल्टी की ओर देखा तक नहीं। वह उन हाथों की प्रतीक्षा में थी, जो मेंहदी लगा के ससुराल चले गए, जिन्होंने पानी की बाल्टी भर-भर इनकी प्यास बुझाई थी। प्रकृति इतनी कृतघ्न कहां हो सकती है!
विदा होती लड़की को घर के इन पशुओं ही नहीं, पेड़-पौधों की भी भूमिका का पता है। वह अपने घर के नीम के पेड़ और चिड़ियों में जीवन का फैलाव देखती है। उसे अपने विदा होने पर पूरे परिवार की चिंता है। खासकर मां की। वह अपने पिता से नीम के पेड़ को न काटने का अनुरोध करती हुई बड़ी करुणा के साथ कहती है- ‘बाबा निबिया के पेड़ जिनि काटेउ/ निबिया चिरैया बसेर, बलैया लेहु बीरन की। बिटियन जिनि दुख देहु मोरे बाबा/ बिटिया चिरैया की नांय, बलैया लेहु बीरन की। बाबा सगरी चिरैया उड़ि जइहैं/ रहि जइहैं निबिया अकेलि, बलैया लेहु बीरन की। बाबा सगरी बिटियवै जइहैं ससुरे/ रहि जइहैं अम्मा अकेलि, बलैया लेहु बीरन की।’
ससुराल की चौहद्दी में खुद को सीमित होते देख उसे आकाश में उन्मुक्त उड़ान में समर्थ चिड़िया की याद स्वाभाविक है। उड़ान कहीं की भी हो, बसेरा तो नीम पर ही है। बसेरे से अलग होने में उड़ान भरने का हौसला भी खत्म। इस बात को मां सबसे ज्यादा समझ सकती है, क्योंकि पितृसत्ता के कायदों से उसने भी कभी अपना आंगन छोड़ा है! अब एक-एक करके सारी बेटियों के जाने के बाद नीम का पेड़ और उस पर बसेरा लिए चिड़िया ही उन बेटियों की अनुपस्थिति को भरेंगी। दिल को दिलासा दिलाना होगा कि अब इन चिड़ियों के चहचहाने और उड़ने में बेटियों की आरजुएं भी जाहिर हो रहीं!
लेकिन आंगन के इस पेड़ के भविष्य पर भी मां का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए बेटी विदा होते वक्त अपने बप्पा से अनुरोध कर रही है कि मेहरबानी करके इसे मत काटिएगा। पिता के लिए सबसे प्यारा बेटा है, बेटी नहीं! इसलिए बेटी कहती है कि हे पिताजी, मैं बीरन (भाई) की बलैया लेती हूं, लेकिन इस पेड़ को मत काटना। उसे यकीन है कि बेटे के जिक्र के बाद इस बात को पिताजी गंभीरता से लेंगे और नीम का पेड़ बचा रहेगा। ‘बिटियन जिनि दुख देहु मोरे बाबा’- में कितना कातर स्वर है! अब तक जो हुआ, सो हुआ, आगे जो बेटियां बची हैं और आखिर उन्हें भी चले जाना है। तो उन्हें बचे हुए दिनों में भला क्यों दुख देना!
इस गीत पर थोड़ा रुक कर सोचने पर मन करुणा से भर जाता है। इसमें एक ओर पितृसत्ता के सामने लाचार-सी स्त्रियों की व्यथा है, तो दूसरी ओर दुख-दर्द की प्राकृतिक साझेदारी। क्या अब भी यह प्राकृतिक साझेदारी है हमारे बीच? पेड़ों-पक्षियों के साथ आज हमारे रिश्ते कैसे हो गए हैं। हम कितना कट चुके हैं उनसे जो हमारे गाढ़े के साथी रहे और जिन्होंने सदियों से अपनी प्राकृतिक बाहों में हमें संभाले रखा!
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