किसानों को दी जाने वाली सरकारी सहायता में उर्वरक सबसिडी एकमात्र बड़ी सहायता है। पिछले साल के बजट में यह लगभग तिहत्तर हजार करोड़ रुपए थी। फिलहाल बाजार में मुक्त रूप से बिकने वाले अनुदानयुक्त उर्वरक को कोई भी खरीद सकता है। उसका किसान होना जरूरी नहीं।

दूसरे, इस उर्वरक अनुदान की रकम में निर्माता और सरकारी तंत्र का बड़े पैमाने पर खेल होता है। सब जानते हैं कि जरूरत के समय किसानों को यही उर्वरक खुले बाजार से खरीदना पड़ता है। किसानों को अनुदानयुक्त बीज देने और समर्थन मूल्य पर पैदावार खरीदने की कहानी भी छिपी नहीं है। कृषि ऋण की तरह इसका लाभ भी सिर्फ बड़े किसान उठा पाते हैं। यूपीए सरकार द्वारा पैंसठ हजार करोड़ रुपए का जो कृषि ऋण माफ किया गया था, उससे कुछ किसानों के साथ बहुत से सरकारी बैंकों का भी उद्धार हुआ। जरूरत यह समझने की है कि किसानों की वास्तविक और जमीनी मदद कैसे की जानी चाहिए।

आज भी कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस स्थिति में रत्ती भर सुधार नहीं हुआ है। मौजूदा केंद्र सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पहले सौ दिन बीतने के दौरान ही कर्ज और आपदा से ग्रस्त चार हजार छह सौ किसान आत्महत्या कर चुके थे। लेकिन इस त्रासदी पर प्रधानमंत्री की शायद कोई राय नहीं है!

आखिर किसान की मदद कैसे की जा सकती है? सीधा जवाब है। उसे उसके उत्पादन की वाजिब कीमत देकर। किसानों का अरबों रुपया दबाए बैठी चीनी मिलों को सरकार तमाम राहत के अलावा निर्यात सबसिडी भी दे रही है। बीते वर्ष में सिर्फ चीनी निर्यात मद में सरकार ने दो सौ करोड़ रुपए का अनुदान मिलों को दिया था। केंद्रीय खाद्य और आपूर्त्ति मंत्री रामविलास पासवान ने फिर घोषणा की है कि चीनी मिलों को चौदह लाख टन चीनी पर निर्यात सबसिडी दी जाएगी। सरकार के ऐसे फैसले उसका सोच और प्राथमिकता दर्शाते हैं।

सरकार सबसिडी की खाद और बीज इसलिए देती कि वह किसान को उत्पादन की लाभदायक कीमत नहीं देना चाहती। पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार और तत्कालीन वित्त मंत्रालय ने समर्थन मूल्य की वृद्धि पर कहा था कि मूल्य ज्यादा बढ़ा देने से बाजार में महंगाई बढ़ जाएगी! यह कितना क्रूर मजाक था कि किसान का माल सस्ते में खरीदेंगे, ताकि शेष देशवासी सस्ता अनाज पा सकें!

सवाल है कि उर्वरक सबसिडी पर खर्च को संयोजित करके किसानों को उपज का वाजिब दाम क्यों नहीं दिया जा सकता! सरकार उन्हें सस्ते ब्याज का प्रलोभन देकर ऋण देती है और किसान इसमें फंस जाता है, क्योंकि किसानों को ऋण का प्रबंधन करना नहीं आता। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने एक महत्त्वाकांक्षी योजना ‘पूरा’ यानी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाओं की कल्पना की थी।

यह योजना अगर लागू की जाए तो किसानों को न सिर्फ उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले, बल्कि वे खाली समय में कुटीर धंधों से संबंधित कार्य करके भी आय बढ़ा सकते हैं। यूपीए सरकार ने कुछ जिलों में इस योजना को आधा-अधूरा लागू किया था, लेकिन फिलहाल यह ‘कोमा’ में पड़ी है। देश में फसल बीमा लागू है, लेकिन आम किसान उसके बारे में जानता तक नहीं। क्या इस बात की व्यवस्था नहीं की जा सकती कि देश का हरेक लघु और सीमांत किसान अपने जीवन और फसल के लिए बीमित हो? आखिर इसी देश में उपग्रह और शादियों के समारोह तक बीमित किए जा रहे हैं! (ल्लं८ेंङ्म१ूँं.

सुनील अमर

 

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