‘हाथों में उसके कलम का आना अच्छा लगता है, उसको भी स्कूल जाना अच्छा लगता है’। बाल मजदूरी से उबरने वालों बच्चों का नया जीवन अब इस मंत्र को साकार कर रहा हैं। कहते हैं कि बचपन, जिंदगी का बहुत खूबसूरत सफर होता है। बचपन में कोई चिंता नहीं होती है। एक निश्चिंत जीवन का भरपूर आनंद लेना ही बचपन होता है। लेकिन कुछ बच्चों के बचपन में लाचारी और गरीबी की नजर लग जाती है, जिस कारण से उन्हें बाल श्रम जैसी समस्या का सामना करना पड़ता है। राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना, पेंसिल पोर्टल और आॅपरेशन मुस्कान जैसी कई बड़ी पहल से बच्चों को श्रम की दुनिया से बाहर निकालने में सफलता मिली है।
इतिहास गवाह है कि दुनिया के प्रत्येक समाज में बाल श्रमिक रहे हैं। यह अलग बात है कि इनकी संख्या कहीं अधिक है तो कहीं कम है। आधुनिक औद्योगीकरण के साथ ही बाल श्रमिकों की समस्या और भी गंभीर होती गई। भारत के इतिहास में बच्चों का गुलामों के रूप में पाया जाना शास्त्रों और किताबों में मिलता है। पुरातन काल में तो आठ वर्ष से कम आयु के बच्चों की खरीद-फरोख्त एवं उनके मालिकों द्वारा उन पर किए गए अत्याचारों के किस्से आम थे। इंग्लैंड में 1601 के निर्धन कानून द्वारा यह आदेश दिया गया था कि भिखमंगे बालकों को किसी भी व्यवसाय में प्रशिक्षुओं के रूप में लगा देना चाहिए।
इसलिए मालिकों के लिए यह साधारण बात हो गई थी कि वे बच्चों की टोलियों को ले जाकर प्रशिक्षुओं के रूप में भर्ती कर लेते थे। इन बच्चों को कारखानों में ले जाया जाता और इनसे दिन में बारह से सोलह घंटों तक काम करवाया जाता। बच्चों के कार्य के लिए उन्हें सख्त हिदायतों और अफसरों के मातहत रखा जाता था। ज्यादा से ज्यादा काम कराने के लिए बच्चों को कोड़े लगाए जाते थे, बेड़ियां बांधी जाती थी, सताया जाता था और उनका हर प्रकार से दमन होता था। उन दिनों उनकी अवस्था अमेरिका में दास प्रथा वाले राज्यों से भी अधिक खराब थी।
इस प्रकार बाल श्रम की समस्या विकसित और विकासशील दोनों ही देशों के इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। हाल ही में प्रकाशित हुई अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में बाल मजदूरी में बच्चों की संख्या बढ़ कर सोलह करोड़ हो गई है, जो दो दशक में पहली बार बढ़ी है और कोरोना की वजह से अभी लाखों और बच्चे बाल मजदूरी के जोखिम में हैं। बाल श्रम आज पूरी दुनिया के सामने एक बड़ी समस्या और अपराध है, जिसे जड़ से उखाड़ फेंकना बेहद जरूरी है। यह बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ है, जिसे रोकना हम सबकी जिम्मेदारी है।
’गौतम एसआर, भोपाल
कीमतों की बोझ
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही है। देश डेढ़ वर्ष से कोरोना महामारी का सामना कर रहा है। कई महीनों तक देश की आय में मेरुदंड कही जाने वाली रेल सेवाएं, बस और हवाई सेवाएं बंद रही। कृषि भूमि में लोग काम नहीं कर पा रहे। अनाज, सब्जियां महंगी होने का कारण उत्पादन की कमी खल रही है। केंद्र सरकार भी चिंतित है। सब्जियों की परिवहन लागत बढ़ने से सब्जियां महंगी हुई हैं। रोजमर्रा की जरूरतें महंगी हुई है। फिलहाल रसोई बजट भी बिगड़ चुका है। लाखों लोगों के पास व्यापार या नौकरियां नहीं हैं। उसके बाद भी केंद्र सरकार ने जमाखोरी और कालाबाजारी करने वालों पर नकेल कसना जरूरी नहीं समझा है।
हर व्यक्ति महंगाई के बोझ तले दबा हुआ है। सरकार को राजस्व की आय में भारी गिरावट आई है। कांग्रेस शासित राज्यों ने महंगाई और पेट्रोलियम पदार्थो के बढ़ते दाम पर सत्तारूढ़ भाजपा को आड़े हाथ लेते हुए धरना प्रदर्शन और महंगाई को कम करने के लिए नारे लगाए, लेकिन राज्य स्तर पर जनता को अपनी ओर से कोई राहत नहीं दी। बढ़ते कोरोना संक्रमण की मार और पूरा देश पूर्णबंदी के बीच है। इसका परिणाम यह निकला कि मुद्रास्फीति की गिरावट से केंद्र का बजट भी डगमगा गया है।पेट्रोलियम के सिवा सरकार के पास आय का कोई साधन नहीं है। केंद्र ने स्पष्ट कर दिया है कि पेट्रोल, डीजल और गैस जैसी मूलभूत सुविधा के दाम घटा नहीं सकती है। सोलह महीने से देश में कोरोना महामारी से देश मे सरकार की आय प्रभावित हुई है। लेकिन जरूरी वस्तुओं तक जनता की पहुंच सुनिश्चित कराना सरकार की जिम्मेदारी है।
’कांतिलाल मांडोत, सूरत