पश्चिम बंगाल सहित चार राज्यों में चुनावी बिगुल बजने के बाद अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां तरह-तरह के चुनावी वादे कर रही हैं। कोई नौकरी की बात कर रहा है तो कोई कर्ज माफी की, कोई मुफ्त बिजली की तो कोई कुछ और। यह चुनाव भी जल्द ही समाप्त हो जाएगा। सरकारें बनेंगी, बिगड़ेगी, लेकिन जनता के हिस्से हर बार की तरह झूठे वादे के अलावा फिर से शायद कुछ खास नहीं आएगा। भले ही हम यह कहें कि लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए है, लेकिन हकीकत यह है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अभी भी सफर में है और अभी जनता के पक्ष में खड़े होने में उसे शायद वक्त लगेगा।
चाहे कोई विकट परिस्थिति हो या महामारी, फिर भी चुनाव समय पर ही होगा, परिणाम भी समय से ही आएगा। इसके बाद शपथ ग्रहण भी समय पर ही होगा। यहां तक कि उपचुनाव भी समय से होगा, लेकिन बच्चों के भविष्य एवं जनहित के मुद्दों पर देश का तंत्र आंख खोल कर सोने की कलाकारी करता है। भारत में शायद ही कोई विभाग होगा, जिसमें पर्याप्त संख्या में कर्मचारी या अधिकारी हों, आज भी कुछ विश्वविद्यालयों के सिर्फ कागज पर चलने की खबरें आ जाती हैं। कई विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी है। किसानों को ऋण कागज पर मिल रहा है, भ्रष्टाचार का अब पूछना भी नहीं और बेरोजगारी पर तो कुछ बोलना भी बेमानी हो गया। अब ये सब मुद्दे नहीं हैं।
हम अंदाजा लगा सकते हैं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को तिहत्तर सालों में हम लोगों ने किस तरह से संवारा है। पिछले कुछ महीनों से किसान आंदोलन कर रहे हैं, कुछ समय से विद्यार्थी-नौजवान नौकरी को लेकर सोशल मीडिया पर हैशटैग ट्रेंड करा रहे हैं, आम जनता महंगाई से परेशान है, फिर भी सरकार सुन नहीं रही, क्योंकि लोगों में एकजुटता नहीं है।
आज किसान, विद्यार्थी, नौजवान हैं, कल कर्मचारी होंगे, परसों अधिकारी होंगे। कभी महिलाएं भी होंगी। लेकिन दूसरी ओर सत्ता ही होगी, यह तय है। केवल कोई पहचान-पत्र हमारे नागरिक होने की पहचान नहीं। जिसे हमने सत्ता में बिठाया है, उसकी आंख में आंख डाल कर अपना हक मांगना भी नागरिक होने का परिचय है। लेकिन दुख इस बात का है कि आज जनता अपनी भूमिका में जनता न होकर सत्ता की समर्थक हो गई है।
हम लोगों में से अगर कोई जनता के हक की बात करेगा तो नेता का चम्मच उछल कर सत्ता की चापलूसी करेगा। दरअसल, चुनाव में वोट किसी को भी दिया जाए, लेकिन चुनाव के बाद अगले चुनाव तक जनता बन कर रहने की जरूरत है, ताकि चुनाव के समय नेता अपने वादे की तिजोरी लेकर नहीं, बल्कि पुराने वादे का लेखा-जोखा लेकर आए और जनहित के मुद्दों पर काम करें।
’पवन कुमार, एमसीएनयूजेसी, भोपाल, मप्र
पाला बदल
देश के कई राज्यों में अब आने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर चारों और गहमागहमी मच गई है। कांग्रेस हो या भाजपा, सभी राजनीतिक दल के नेताओं की व्यस्तता तेजी से बढ़ने लगी है। इसी बीच में चुनाव लड़ने वाले प्रतिनिधियों की हालत यह है कि जब एक दल से उन्हें टिकट प्राप्त नहीं होता है, तो वे दूसरे दल पर नजर टिका कर इंतजार करते हैं और दूसरे दल में जाने के लिए सुविधा तुरंत उठा लेते हैं, लेकिन एक प्रतिनिधि जब भी अपनी पुराने दल को छोड़ कर नए राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो उस दल के कार्यकर्ताओंं के बीच मन ही मन में संघर्ष पैदा हो जाते हैं।
खासतौर पर दूसरे दल से आने वाले प्रार्थी को दल में शामिल होने के दिन ही अगर निर्वाचन के लिए टिकट मिल जाता है, तो कार्यकर्ता खुद को ठगा-सा महसूस करते हैं। जिस व्यक्ति के खिलाफ उन्होंने जमीनी स्तर पर प्रचार किया होता था, अब उनके पक्ष में ही दलीलें देनी पड़ती है। इसका बोझ और तनाव जमीनी स्तर के कार्यकर्ता उठाते हैं। इसके नुकसान भी हो सकते हैं। इसलिए राजनीतिक दलों को इस तरह की कवायदों पर विचार करना चाहिए।
’चंदन कुमार नाथ, गुवाहाटी, असम</p>