ढहते पुल
उत्तर प्रदेश में फ्लाईओवर हादसे थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। अब ताजा मामला बस्ती का है जहां निर्माणाधीन फ्लाईओवर अचानक ढह गया। ऐसे में निर्माण कार्य की गुणवत्ता को लेकर गंभीर सवाल उठते हैं। यदि निर्माणाधीन पुल ढह रहा है तो निर्माण के बाद सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा? ऐसे पुलों का गिरना भ्रष्टाचार की तरफ इशारा करता है। प्रशासन और सरकार को जान लेना चाहिए कि विकास और भ्रष्टाचार साथ नहीं चल सकते हैं। इसमें दोषी लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। वाराणसी हादसे के बाद भी जांच और रिपोर्ट के अलावा कोई बड़ी कार्रवाई नजर नहीं आई। लगता है कि सरकार ने निर्माणकारी संस्थानों को छूट दे रही है जिससे वे लोगों की जान के साथ खेल रहे हैं।
महेश कुमार, सिद्धमुख, राजस्थान
पिछड़ा कौन
अरविंद कुमार सिंह का लेख ‘खतरे में आदिवासी संस्कृति’ (9 अगस्त) पढ़ा। बीते कुछ वर्षों में मुझे आदिवासी समुदाय के बच्चों के साथ काम करने और उन्हें करीब से जानने का अवसर मिला। जल, जंगल और जमीन को लेकर इनकी जद्दोजहद हमेशा से बनी हुई है। वैसे यक्ष प्रश्न तो यह है कि कथित सभ्य समाज आदिवासी समुदाय को पिछड़ा कहता है लेकिन क्या वह वाकई पिछड़ा हुआ है? जिस समाज में लड़के और लड़की में फर्क नहीं समझा जाता, जहां संपत्ति का अधिकार महिलाओं के पास होता है, जिसके पास अपने उपचार के समृद्ध तरीके हैं, जिसके पास अपनी सभ्यता-संस्कृति, कृषि के उन्नत तरीके हैं उसे आखिर पिछड़ा कैसे कहेंगे? फिर हम उन्हें किस तरह से सभ्य बनाना चाहते हैं? यह तो वही बात हो गई कि शेर अब रिहाइशी इलाके में आने लगे हैं जबकि असल बात तो यह है कि हम उनकी जगहों पर कब्जा कर रहे हैं। और सभ्य या मुख्यधारा की परिभाषा भी सबके लिए अलग-अलग है। फर्क यही है कि कौन और किस चश्मे से यह परिभाषा बना रहा है?
जिसे हम विकास कह रहे हैं उसके दुष्परिणाम से सभी लोग भलीभांति परिचित हैं और उसके बचाव के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं। जो आदिवासी इन प्राकृतिक संसाधनों को सदियों से सहेज रहे हैं उन्हें हम पिछड़ा क्यों कह रहे हैं? इस तरह तो कोई विकसित राष्ट्र हमें भी पिछड़ा कह सकता है। वैसे होना तो यह चाहिए कि ऐसी नीतियां बनें कि इन्हें रोजगार की तलाश में पलायन न करना पड़े। आज विलुप्त होती इनकी भाषाएं, इनकी संस्कृति के नष्ट होने की सूचक हैं। आधुनिकता की इस दौड़ में हम जो बिना सोचे-समझे कर रहे हैं उसका हर्जाना हमारी आने वाली पीढ़ी को भरना होगा।
प्रेरणा मालवीया, भोपाल</strong>
तुलना के बजाय
जब भी हमारे देश का कोई नागरिक कुछ दिन की विदेश यात्रा से लौटता है तो उस देश का बहुत बखान करने लगता है। साथ ही हमारा देश उस देश की तुलना में कितना खराब है यह भी बताता है। और फिर अंत में सारा ठीकरा सरकार, प्रशासन के सिर पर फोड़ देता है। जबकि एक भारतीय होने के नाते ऐसे लोगों के मन में टीस उठनी चाहिए कि कैसे मैं व्यक्तिगत तौर पर अपने देश को भी उन देशों जैसा या उनसे भी अच्छा बना सकता हूं। हर व्यक्ति यदि ऐसा सकारात्मक विचार रखे और काम करे तो हमारा देश भी उन देशों जैसा बन सकता है। सिर्फ तुलना करने से कुछ नहीं होगा।
विनय मोघे, चिंचवड, पुणे, महाराष्ट्र