जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा था, उस समय देश की राजधानी में देश की एक बेटी को सामूहिक बलात्कार के बाद उसके बाल काट कर, मुंह पर कालिख पोत कर गले में जूते-चप्पलों की माला पहना कर भरे उजाले में दर्जनों लोगों भीड़ के बीच घुमाया जा रहा था। जिसने भी देखा-सुना उसकी आंखें शर्म से झुक गर्इं। इस भीड़ में महिलाओं की संख्या ज्यादा थी, जो लड़की को सरेआम बेइज्जत कर रही थीं और लड़कों को सामूहिक बलात्कार के लिए उकसा रही थीं।

इस घटना ने दिखा दिया कि औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है। कोई उसे जूते मार रहा था, तो कोई थप्पड़, और भीड़ तमाशाई बनी देख रही थी। इस मामले में सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि जब उस लड़की को प्रताड़ित किया जा रहा था, तो उस भीड़ में से आवाज उठाने वाला एक भी शख्स नहीं था। किसी ने भी पुलिस को फोन पर सूचित करना उचित नहीं समझा।

हमारी जनता की फितरत ही यही है कि उसके सामने किसी लड़की को छेड़ा जा रहा हो या किसी औरत को पीटा जा रहा हो, तो वह अपने आंख-कान और मुंह बंद किए रहती है, जब तक कि वह लड़की उसके अपने घर की, बहन, बेटी या बीवी न हो। कोई शराब पीता हुआ अपनी बीवी को गली या सड़क पर ले आए तो भी भीड़ बुदबुदाएगी कि यह तो इनका रोज का काम है और आगे बढ़ जाएगी।

बसों में छेड़छाड़ होने पर भी कोई पीड़िता के पक्ष में खड़ा नहीं होता। क्योंकि उन्हें पता है कि पुलिस उनसे भी सवाल पूछेगी और तंग करेगी। ए व्यवस्था की भी नाकामी कही जाएगी कि कोई पीड़ित की मदद के लिए आगे नहीं आता। अगर बात प्रदर्शन करने, मोमबत्ती जलाने, धरने देने, पुलिस और प्रशासन को कोसने और अखबारों में संपादकीय लिखने की हो तो सभी अपनी-अपनी भूमिका निभाने के लिए तुरंत आगे आ जाएंगे। पर सामने कुछ करने को तैयार नहीं दिखते।

निलंबन पर न्याय

हमारे देश के राज्यों की विधानसभाओं तथा संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच विचारधारा के टकराव देखे जा सकते हैं। अनेक बार राज्यों की विधानसभाओं में धक्का-मुक्की, मार-पिटाई और माइक तक चलते देखे गए हैं। संसद के मानसून सत्र के दौरान भी कई सांसदों को निलंबित किया गया। विधानसभा अध्यक्ष कई बार अपने अधिकार गलत इस्तेमाल करते हैं, जिसके चलते उच्चतम न्यायालय को उसमें दखल देना पड़ता है।

महाराष्ट्र विधानसभा से भाजपा के बारह विधायकों के निलंबन पर उच्चतम न्यायालय का फैसला इसका ताजा उदाहरण है। न्यायालय ने विधानसभा के उस फैसले को अवैध और असंवैधानिक करार दिया। यह सदनों के सभापतियों के लिए एक संदेश है कि वे भले किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े हैं, पर इस तरह के मामलों में उनका निर्णय निष्पक्ष होना चाहिए।