हाल ही में आई एक फिल्म ‘आदिपुरुष’ के स्तरहीन संवादों ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि क्या केवल हल्के मनोरंजन के लिए आस्था से खिलवाड़ किया जा सकता है! फिल्म में प्रयुक्त भाषा पर विवाद का वातावरण बनने पर पहले तो इसके निर्माता आनाकानी करते रहे, लेकिन फिर उन्होंने कहना शुरू किया कि फिल्म ‘आदिपुरुष’ रामायण से प्रेरित अवश्य हैस लेकिन रामायण पर आधारित नहीं है।
इसके बाद भी विवाद नहीं थमा तो लेखक ने विवादित संवादों में संशोधन करने की घोषणा कर दी। देश भर में कई धार्मिक संगठनों ने सड़कों पर उतर कर ‘आदिपुरुष’ का विरोध प्रारंभ कर दिया। आपत्तिजनक संवाद लेखकों को उनकी ही भाषा में धमकियां भी दी गर्इं। इन सबके चलते मुंबई पुलिस द्वारा फिल्म के लेखक और निर्माता को सुरक्षा भी प्रदान की गई। इस दरमियान पड़ोसी देश नेपाल से भी इस फिल्म के विरोध और इसका प्रदर्शन रोकने के समाचार मिल रहे हैं।
इसका संदेश साफ है कि भारतीय समाज को धर्म और आस्था के साथ किसी तरह का खिलवाड़ मंजूर नहीं है। समाज केवल सुसभ्य धार्मिक फिल्मों या धारावाहिकों को देखना पसंद करता है और उन्हें स्वीकार करता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण रामानंद सागर निर्मित धारावाहिक ‘रामायण’ और बीआर चोपड़ा निर्मित धारावाहिक ‘महाभारत’ हैं। जब दूरदर्शन पर इनका प्रसारण होता था तो सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था।
पूर्व में ‘जय संतोषी मां’ और ‘संपूर्ण रामायण’ जैसी अनेक धार्मिक फिल्में भी प्रदर्शित हुर्इं, जिन्हें देखने के लिए लोग चप्पल-जूते उतारकर सिनेमा हाल में प्रवेश किया करते थे।आस्था आज भी उतनी ही मूल्यवान है। लेकिन धार्मिक फिल्मों की एक निर्धारित सीमा है। प्रत्येक अभिव्यक्ति की मर्यादा है, जिसका पालन हर एक के लिए जरूरी है।
आस्था से खिलवाड़ हमेशा विवादों का कारण बनता है। गुणवत्ता और उत्कर्ष श्रेणी का अपना महत्त्व है, जिसे कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बहरहाल, स्तरहीन धार्मिक फिल्मों का निर्माण करते समय निर्माताओं और लेखकों को हमेशा धार्मिक मान्यताओं और लोगों की आस्था से जुड़े मूल्यों का समुचित आदर करना चाहिए, सम्मान करना चाहिए। साथ ही, केंद्रीय सेंसर बोर्ड को भी संवेदनशील विषयों पर बनाई गई फिल्मों को प्रसारण की अनुमति देते समय सर्वोच्च विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए।
इशरत अली कादरी, खानूगांव, भोपाल।
विवाद बनाम विवेक
कर्नाटक के एक कालेज से शुरू हुआ हिजाब का मुद्दा आज भी देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है। सवाल है कि कर्नाटक सरकार ने हिजाब को स्कूल और कालेज में पहने से रोक लगाया था तो दोबारा से यह चर्चा का विषय क्यों बन गया हैं? कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनने पर शिक्षण संस्थानों में हिजाब प्रतिबंध के मसले पर भाजपा के रुख पर कर्नाटक सरकार के मंत्री प्रियांक खरगे का कहना है कि जो कर्नाटक की आर्थिक नीतियों को प्रतिगामी बनाता हो, जो बिल राज्य की छवि का धूमिल बनाता हो या फिर राज्य की आर्थिक नीतियों में उसका कोई इस्तेमाल न हो और फिर जो बिल किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन करता हो, उन सभी की समीक्षा की जाएगी और जरूरत पड़ने पर उसे खारिज भी किया जाएगा।
अब सवाल यह पैदा होता है कि अगर जब भाजपा ने अपने कार्यकाल के दौरान हिजाब पर पाबंदी लगाई थी तो अब इस पर विचार करने का आग्रह क्यों? क्या सचमुच भाजपा धार्मिक स्वतंत्रता बहाल करना चाहती है? हिजाब को शिक्षण संस्थानों में पहनना चाहिए या नहीं पहनना चाहिए, यह फैसला हम नहीं कर सकते है।
लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि अगर अनुच्छेद 25 यानी धार्मिक स्वतंत्रता को बढ़ावा, स्वतंत्र रूप से किसी धर्म को मानना, अभ्यास करना और प्रचार प्रसार करने का अधिकार शामिल है तो इस नजरिए से हिजाब को लेकर आपत्ति गैरजरूरी है।सवाल यह है कि अगर इसे लागू किया जाता है तो फिर ऐसा भी तो हो सकता है कि फिर सभी अपने धर्म के कपड़े या चिह्न पहन कर आने लगें ऐसे में शिक्षण संस्थानों का कोई महत्त्व नहीं रह जाएगा।
हम सभी जानते हैं कि बच्चों का मानसिक विकास ज्यादातर स्कूल से ही शुरू होता है। अगर बच्चे वहीं धार्मिक बटवारे को देखेंगे तो आगे चल कर वे भी दूसरे धर्म के लोगों से दूरी बरतने लगेंगे। अगर वहीं हम दूसरे पहलू की बात करें तो अगर हम हिजाब को शिक्षण संस्थानों में पहनने से रोक लगाते हैं तो यह मौलिक अधिकारों का हनन होगा और जिन मुसलिम महिलाओं के घर वाले कट्टरवादी होंगे वह अपनी बेटियों को स्कूल और कालेज जाने से रोकेंगे। ऐसे में उन लड़कियों का भविष्य खराब होगा।
यह मुद्दा ऐसा है कि जिस पर न कोई एक सरकार, न ही कोई एक पार्टी और न ही कोई एक व्यक्ति अकेले फैसला ले सकता है। इस पर सोच-समझ कर फैसला लेने कि जरूरत है। इस मुद्दे पर सरकार और अदालत को एक ऐसा फैसला निकालना चाहिए, जिससे किसी की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन न हो और धर्म की जगह विवेक की बात हो।
अंकिता, नई दिल्ली।
दूरदर्शी सांख्यिकीविद
आज 29 जून को भारत के ख्यातनाम वैज्ञानिक और सांख्यिकीविद प्रशांतचंद्र महालानोबीस की एक सौ अट्ठाईसवीं जयंती देश में ‘राष्ट्रीय सांख्यिकी दिवस’ के रूप में मनाई जा रही है। उन्हेंं भारत के द्वितीय पंचवार्षिक योजना का मसविदा तैयार करने के लिए जाना जाता है। सांख्यिकी के क्षेत्र में वे अपनी खोज ‘महालानोबीस दूरी’ के लिए प्रसिद्ध हैं, जो एक सांख्यिकीय माप है।
महालानोबीस का सर्वश्रेष्ठ योगदान उनके नमूना सर्वेक्षण की संकल्पना है, जिसके आधार पर आज के युग में बडी-बडी नीतियां और योजनाएं बनाई जा रही हैं। 1931में उन्होंने कोलकाता में ‘भारतीय सांख्यिकी संस्थान’ की स्थापना की, जहां सांख्यिकी की पढ़ाई और संशोधन कार्य होता है। 1933 में संस्था ने ‘संख्या’ नामक शोध जर्नल की शुरुआत की।
प्रशांतचंद्र महालानोबीस एक दूरद्रष्टा थे, जिन्होंने हमेशा आम आदमी की भलाई के लिए ही कार्य किया। देश की आर्थिक योजना और सांख्यिकी विकास के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता।
विजय कोष्ठी, सांगली, महाराष्ट्र।