आज हमारी दुनिया बहुत ही विस्तृत हो चुकी है। हमारी सोच की परिधि और हमारे जीवन के दैनंदिन आहार-विहार, भ्रमण आदि की परिधि का बहुत अधिक विस्तार हो चुका है। इस क्रम में शिक्षा और स्वास्थ्य, इन दोनों क्षेत्रों ने अपने-अपने क्षेत्र में परिमार्जन तथा परिवर्द्धन की असीम संभावनाओं को विकसित किया है। लेकिन आज इन दोनों क्षेत्रों में विकसित इन्हीं असीम संभावनाओं का स्वार्थी तत्त्वों द्वारा नाजायज ढंग से दोहन किया जा रहा है, जिसमें हमारा राजनीतिक तंत्र सहायक बना हुआ है।
प्रश्न यह है कि एक लोकतांत्रिक और जनकल्याणकारी शासन व्यवस्था में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानवीय विकास की आधारभूत आवश्यकताओं को हमारी लोकतांत्रिक सरकारें इस कदर नजरअंदाज क्यों कर रहीं हैं! दरअसल, आज की हमारी शासन व्यवस्था जनकल्याणकारी या सही अर्थ में लोकतांत्रिक नहीं हैं! मेरी समझ यह है कि स्वतंत्रता के बाद से ही शासक वर्ग द्वारा अपने स्वार्थ में जानबूझ कर देश के लोगों को लोकतंत्र का सही अर्थ बताने की कोशिश ही नहीं की गई। बस चीजें जाति-धर्म, लोभ-लालच और गलत भावनात्मक आधार पर चलने लगीं या कहें कि चलाई जाने लगीं। फिर भी आजादी के करीब पचास वर्षों बाद तक राजनीति पर अपराध का शिकंजा इस कदर हावी नहीं हो पाया था, जैसा कि आज है।
सन 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण के बहाने जानबूझ कर लोगों के बीच ऐसी भावना भरने की कोशिश की जाने लगी कि सरकारी क्षेत्र में कोई भी व्यवस्था सुचारू ढंग से चल ही नहीं सकती और इसी भावना की मदद लेकर स्वार्थी राजनीतिक-तंत्र द्वारा पूंजीपतियों के साथ मिलीभगत कर सरकारी महकमों में संचालित शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को अस्त-व्यस्त और कमजोर किया जाने लगा। अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि राजनीति करने वाले कई खुद ही पूंजीपतियों की श्रेणी में आ चुके हैं और वे कई अन्य नाजायज तरीकों से देश की संरचनाओं का दोहन करने के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को भी अपने शिकंजे में लेकर आम जनता को लूट रहे हैं।
सवाल यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानव विकास के लिए मूलभूत आवश्यक सेवाओं को राजनीतिकों और पूंजीपतियों के शिकंजे से कैसे मुक्त कराया जाए और इन्हें आम जनता को लागत मूल्य पर किस प्रकार उपलव्ध कराया जाए? मेरा मानना यह है कि इसके लिए सबसे पहले आम नागरिकों के बीच इन बातों को लेकर जागृति पैदा करनी होगी और इन्हें स्वतंत्र तरीके से चुनावी मुद्दा बनाना होगा। सरकार पर दबाव बनाना होगा कि वह शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में स्तरीय ढंग की आधारभूत संरचना विकसित करे और व्यापक स्तर पर शिक्षकों का छोटा-छोटा समूह बना कर उनमें आपसी प्रतियोगिता की भावना पैदा कर शिक्षा की गुणवत्ता में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए वास्तविक लागत पर शिक्षा उपलव्ध कराने की व्यवस्था सुनिश्चित किया जाए। शिक्षा पाने वाले और देने वाले के बीच कोई राजनीतिक पूंजीपति या पूंजीपति नहीं रहे।
इसी प्रकार की व्यवस्था स्वास्थ्य के महकमे में भी की जाए। सबसे पहले प्रचुर संख्या में चिकित्सक तैयार किए जायं और उन्हीं का छोटे-छोटे स्तर पर समूह तैयार कर लोगों को वास्तविक लागत पर चिकित्सा मुहैया कराने की व्यवस्था सुनिश्चित कराई जाए। लेकिन आज के बदनीयती से भरे राजनीतिक माहौल में आखिर इस तरह की जनकल्याणकारी सोच को अमली जामा पहनाया कैसे जाए!
’राधा बिहारी ओझा, पटना,