अखबारों के पन्नों में रेल-सड़क दुर्घटनाओं, बलात्कार-हत्याओं या महंगाई से त्रस्त आम आदमी के दुख-दर्द की खबरें ही पाठकों को विचलित कर देने के लिए काफी होती हैं। उस पर हर दिन सुर्खियों में रहने वाले हमारे तीरंदाज नेताओं के शब्दबाण, जिन्होंने आज राजनीति को एक अखाड़ा बना दिया है, आहत करते हैं। राबर्ट वाड्रा पर लगे नए आरोप से सोनिया गांधी एक बार फिर तिलमिला उठीं हैं कि ‘मोदी प्रधानमंत्री हैं, शहंशाह नहीं’। इस पर भाजपा का हमला! सत्ता और विपक्ष के बीच रोज-रोज चलने वाला यह वार-पलटवार बीमार मानसिकता का सूचक है। जनता हालांकि इसे सहज रूप से लेने की आदी हो गई है।

अब तो यह सब उसके लिए चटखारे लेने का एक स्वादिष्ट मसाला होता जा रहा है। एक अदना-सा विचार इन दिनों मेरी सामान्य-सी समझ पर दस्तक देता है। वह यह कि इस समय सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका को चाहिए कि पार्टी के कुछ संजीदा लोगों के हाथों में नेतृत्व की डोर सौंप कर, वे पांच-सात बरस के लिए नेपथ्य में चले जाएं। मैं यह बात सोच ही रही थी कि इधर मुख्य पृष्ठ पर कैप्टन अमरिंदर सिंह का बयान पढ़ने को मिला। कैप्टन साहब का विचार है कि राहुल गांधी के लिए कांग्रेस अध्यक्ष का कामकाज संभालने का यह सही समय है। उन्होंने प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में प्रवेश की भी वकालत की है। पढ़ कर सदमा लगा, क्योंकि मुझे लगता है कि अब कहीं पर थोड़ा विराम चाहिए और एक बदलाव भी।

रही बात सोनिया गांधी पर भाजपा के तीखे पलट वार की, कि उन्होंने देश के ‘प्रधानसेवक’ के लिए ‘शहंशाह’ शब्द का प्रयोग किया है, जबकि बकौल सुधांशु द्विवेदी, कांग्रेस और गांधी परिवार के लोग उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम के आलमपनाह थे। आदरणीय सुधांशु द्विवेदीजी, मेरा विनम्र निवेदन है कि आजादी के बाद हमारे जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं -नेहरूजी, शास्त्रीजी, इंदिराजी, वाजपेयीजी, राजीव गांधीजी, मनमोहन सिंहजी या और भी पीछे के लोग, उनमें से किसी की भी प्रवृत्ति कभी ऐसी ‘शाही’ नहीं रही कि उन्हें शहंशाह या आलमपनाह कहा जाए।

अपने समय में सभी ने यथाशक्ति और यथाबुद्धि देश के लिए श्रम किया। उन्होंने खुद को देश का ‘प्रधानसेवक’ तो शायद नहीं कहा होगा, अपनी उपलब्धियों पर भाषण-रैलियां, या उतनी विदेश-यात्राएं भी शायद न की हों, पर उनकी सेवाओं और उनके योगदान को खारिज करने का इल्जाम देश अपने ऊपर कभी नहीं ले सकता। हमेशा सब कुछ सही रहे, ऐसा शायद किसी भी दौर में संभव नहीं होता। न चाहते हुए भी कहीं कुछ गलत हो ही जाता है। संसद का अगला सत्र आने वाला है। विपक्ष को भी चाहिए कि संसद की गरिमा का ध्यान रखते हुए वह सकारात्मक भूमिका निभाए। एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहने से बेहतर है कि देश के मुद्दों पर कोई सार्थक बहस की जाए। शोर मचाने या मेज पीटने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
’शोभना विज, पटियाला