आम परिवारों में युवा पीढ़ी को लेकर एक बात जो अक्सर सुनने को मिलती है, वह यह कि आज के युवा परिवार या समाज में पहले से चली आ रही जीवन-पद्धति और मूल्यों को अप्रासंगिक ठहराते हुए जीवन को अपने ढंग से जीने की आकांक्षा रखते हैं। ऐसी चर्चा आम होती हैं कि इस दौर के नौजवान लड़के-लड़कियां श्रम को, खासकर शारीरिक श्रम से जुड़े कामों को हीन दृष्टि से देखते हैं, और ऐसे हर काम से बचने की कोशिश करते हैं, जिसमें पसीना बहाना पड़े। यह बात पूरी तरह से तो नहीं, पर काफी हद तक सही भी है।
गांव वालों की कुछ मजबूरियां हो सकती हैं। यों उत्तर प्रदेश, बिहार से आने वाले मेरे बीसियों परिचित परिवार जब यह बताते हैं कि गांव में वे खुले आंगन वाले अपने कच्चे-पक्के घर और थोड़ी-बहुत खेती-किसानी छोड़ कर आए हैं तो उनकी बात सुन कर मुझे बहुत दुख होता है। नाममात्र की शिक्षा पाए हुए इन परिवारों के बच्चे यहां हाथ के काम सीख कर कुशल राजमिस्त्री, बढ़ई, वेल्डर आदि बन जाते हैं। कुछ ठेला, फेरी या फिर ई-रिक्शा या आॅटो चला कर अच्छा कमा लेते हैं। शायद इससे उनका शहर में रहने का शौक पूरा हो जाता है।
रही बात शहरी युवाओं की तो जहां तक उच्चवर्ग की बात है, सभी संसाधन उपलब्ध होने के कारण उनके लिए कुछ भी हासिल कर लेना आसान है। संघर्षों से भरा सफर तो उन मध्य या थोड़े उच्च मध्यवर्गीय परिवारों का है, जिनके बच्चे अधिकतर तकनीक या प्रबंधन के क्षेत्रों में ऊंचाइयां छूने और खासकर विदेशों में जाकर बसने की ललक रखते हैं। देखा यह गया है कि माता-पिता भी अपने बच्चों को देश से बाहर भेजने में खुशी और गर्व महसूस करते हैं। इसके लिए परिवारों में हर तरह की कोशिशें चलती हैं, जोखिम तक उठाए जाते हैं। अगर यह निरंतर बढ़ता हुआ रुझान समाज या देश के हित में नहीं है, तो सवाल है कि इसका दोष किसे दिया जाए? पारिवारिक संस्कारों को, बदलते सरोकारों को, हाथों में डिग्रियां लिए भटक रहे देश के बेरोजगारों को या उन्हें इन यंत्रणाओं में धकेलने वाली सरकारों को?
’शोभना विज, पटियाला, पंजाब<br />
दागी नुमाइंदे
‘अपराधी की जगह’ (संपादकीय, 12 अगस्त) पढ़ा। चुनाव सुधारों पर होने वाली तमाम चर्चा में राजनीति का अपराधीकरण एक अहम मुद्दा रहता है। इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि अब देश का धैर्य जवाब दे रहा है। दरअसल, चुनाव में आपराधिक इतिहास वाले उम्मीदवारों की जानकारी सार्वजनिक नहीं करने के अपने आदेश का पालन न होने पर सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा और कांग्रेस समेत नौ राजनीतिक दलों को अवमानना का दोषी ठहरा दिया। सन 2020 के बिहार चुनाव को लेकर नाराज सुप्रीम कोर्ट ने राकांपा और माकपा पर पांच लाख रुपए का जुर्माना लगाया तो कांग्रेस और भाजपा, जदयू, राजद, भाकपा, लोजपा पर एक लाख का जुर्माना लगाया। सुप्रीम कोर्ट ने चेताया है कि भविष्य में वे सावधान रहें।
सुप्रीम कोर्ट ने और भी दिशा-निर्देश जारी किए हैं कि राजनीतिक दल चयन के अड़तालीस घंटों के भीतर उम्मीदवार के आपराधिक इतिहास को सार्वजनिक करेंगे। चुनाव आयोग उम्मीदवार की जानकारी के लिए एक मोबाइल ऐप बनाएगा। सभी राजनीतिक दल अपनी वेबसाइट के होमपेज पर सबसे ऊपर प्रमुख स्थान पर उम्मीदवारों के रिकॉर्ड की जानकारी देंगे। इसके अलावा, चुनाव आयोग उम्मीदवारों की आपराधिक इतिहास के बारे में एक व्यापक जागरूकता अभियान चलाए। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों की निगरानी के लिए सेल बनाए। अगर कोई राजनीतिक दल इसका पालन नहीं करता हैं तो चुनाव आयोग इसकी जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दें।
दूसरी ओर, एक और मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि हाई कोर्ट की इजाजत के बिना सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले वापस नहीं लिए जाएंगे। देश की राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि संसद ऐसा कानून लाए, ताकि अपराधी राजनीति से दूर रहें। जन प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने वाले लोग अपराध की राजनीति से ऊपर हों। राष्ट्र को संसद द्वारा कानून बनाए जाने का इंतजार है। भारत की दूषित हो चुकी राजनीति को साफ करने के लिए बड़ा प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
’गौतम एसआर, भोपाल, मप्र