लाचारी का दुख
हाल ही में ओड़िशा में एक घटना हुई जहां तमाम अंधविश्वास, पुराने रीति रिवाज और संसाधनों की कमी की समस्या से लड़ते हुए ओंकार होटा नाम के एक डॉक्टर ने एक गर्भवती महिला की जान बचाई। इन्होंने महिला को स्ट्रेचर पर बारह किलोमीटर दूर स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचाया, जिससे उनकी जान बच सकी। ओंकार ओडिशा के पाप्पूलुरु के एक सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में काम करते हैं। तीस साल की शुभामा मार्सी चित्रकोंडा ब्लॉक के सारीगट्टा गांव में रहती हैं। सार्वजनिक परिवहन से यह गांव पूरी तरह से कटा हुआ है। यहां से पास के गांव में पहुंचने के लिए नदी-नालों और तंग रास्तों से होते हुए बारह किलोमीटर की दूरी तय करनी होती है। यह इलाका माओवादियों के गढ़ में स्थित है। यहां मदद के लिए यहां न एंबुलेंस है, न नर्स। गांव में कोई चिकित्सा सुविधा नहीं होने के कारण महिला का प्रसव झोपड़ी में ही कराना पड़ा था।
फिर हालत गंभीर होने पर महिला को स्वास्थ्य केंद्र तक ले जाना जरूरी था। लेकिन इस काम के लिए गांव का कोई व्यक्ति सामने नहीं आया। गांव वालों की मान्यता है कि प्रसव के बाद किसी को भी महिला के आसपास नहीं जाना चाहिए। डॉक्टर को आखिर में एक आदमी को स्ट्रेचर लेकर साथ चलने के लिए पैसे देने पड़े। आज हम हर क्षेत्र में तरक्की करने का दावा करते हैं। चांद पर उपग्रह तक भेज दिया। दिल्ली, मुंबई और बंगलुरु जैसे विकसित और चमचमाते महानगर भी हमने बना लिए। लेकिन इसी देश में ऐसे पिछड़े हुए तमाम इलाके हैं, जहां अंधविश्वास इस कदर हावी है। क्षेत्रीय असमानता इतनी कि यहां के लोगों को मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। इस तरह की समस्याओं के साथ वहां के लोगों को हर रोज लड़ना पड़ता है। केंद्र और राज्य सरकार को राज्य के लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सेवा और यातायात के उचित साधन प्रदान करने को लेकर पहल करना चाहिए। जब तक देश का प्रत्येक राज्य विकसित नहीं होगा, तब तक देश विकसित नहीं बन सकता।
’विपिन डागर, सीसीएस विवि, मेरठ<br />जानलेवा तोहफा
दिल्ली के जानलेवा कोहरे में सांस तक लेना मुश्किल है। स्मॉग यानी धुएं से बना कोहरा जिसमें प्रदूषण फैलाने वाले इतने सूक्ष्म पदार्थ मौजूद होते हैं जो आपकी सांस की नली से आपके फेफड़ों के भीतर जमा होकर कई प्रकार की बीमारियों की जड़ बनते हैं। इस पूरे मसले पर अचानक से दिल्ली के एक खास बौद्धिक तबके के बीच यह हाहाकार सुनने को मिला कि लोग कितने जाहिल हैं कि अपने ही पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे है। लेकिन कोई भी पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पर्यावरण को पहुंचाई जा रही क्षति के बारे में एक शब्द भी नहीं कहता। पर्यावरण की यह हालत निरंकुश पूंजीवादी लालच का नतीजा है। अगर हमें दिल्ली के स्मॉग का समाधान करना है तो उसके पीछे के कारणों की पड़ताल भी करनी होगी।
सिर्फ स्वच्छ भारत के तहत सेल्फी लेने से पर्यावरण की समस्याएं हल नहीं हो सकती। जो लोग दिल्ली में हैं, उन्हें कोयले की खदानों में काम करने वाले मजदूरों के बारे में जरूर सोचना चाहिए, जिनके फेफड़े ऐसे ही प्रदूषणकारी पदार्थों के कारण खराब हो गए हैं। फिर प्लास्टिक की फैक्ट्री में काम करने वाले उन मजदूर, जिन्हें जहरीला धुंआ पीने पर मजबूर किया जाता है। सिलिकोसिस, एस्बेस्टोसिस के शिकार झुग्गियों में रहने वाले लाखों-करोड़ों लोगों के बारे में भी सोचने की हिम्मत करनी होगी। लोगों को जो आंखों में या सांस लेते हुए तकलीफ महसूस हो रही है, वह वास्तव में पूंजीवाद की देन है।
’सिमरन, दिल्ली विश्वविद्यालय