अब हमारे देश में केवल कुछ खास दिवसों पर महात्माओं के मूल्यों को याद किया जाता है। बाकी दिनों में उन्हें भुला दिया जाता है। जहां तक आंबेडकर का सवाल है, तो वे एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे, जहां सभी को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, न्याय मिले और हर व्यक्ति वैचारिक रूप से स्वतंत्र हो। लेकिन आज वर्तमान भारत को देखते हुए यह कहना थोड़ा कठिन हो जाता है कि क्या वाकई ऐसा हो सका।

आज हम देख सकते हैं चारों तरफ व्यापक भ्रष्टाचार सड़क से संसद तक और दागी नेताओं का राजनीतिक दलों में बोलबाला। देश में न्याय व्यवस्था की भी चिंताजनक स्थिति में है, क्योंकि देश की न्याय व्यवस्था में अभी भी करोड़ों मामले निलंबित हैं।
वर्तमान समाज की हालत यह है कि यह भी नैतिक रूप से खत्म होता जा रहा है। विधि के समक्ष समानता की तस्वीर किसी से छिपी नहीं है। कई बार ऐसा लगता है जैसे दो स्तर के कानूनों का संचालन हो रहा हो। मौजूदा दौर में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है कि एक ओर वर्तमान महामारी के नियमों का उल्लंघन करने पर आमजन से भारी आर्थिक दंड वसूला जा रहा है, कहीं-कहीं उनके साथ आमानवीय व्यवहार भी किया जा रहा है, वहीं हमारे राजनीतिक नेता लाखों की भीड़ में जाकर चुनावी रैलियों को संबोधित करते रहे, जहां पर न तो सामाजिक दूरी का पालन किया गया, न मास्क की की अनिवार्यता को महत्त्वपूर्ण माना गया।

आज हमारे राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के भीतर सत्ता पाने की लालसा इतनी प्रबल हो गई है कि जब देश में मौत का तांडव मचा हुआ है, तब भी वे अवसर का लाभ उठाने की कोशिश में दिखते हैं। दूसरी ओर, देश में ऐसे कई जनप्रतिनिधि हैं, जिन्हें हम लोकतांत्रिक मंदिरों (संसद और विधानसभा) में चुन कर भेजते हैं इसलिए कि वे आपदा के समय हमारी समस्याओं को सुनेंगे और उनका हल निकालेंगे, लेकिन जब यही जनप्रतिनिधि धार्मिक कार्यक्रमों, खेल कार्यक्रमों या फिल्मी पुरस्कार समारोह में मगन होते हैं तो ऐसा लगता है जैसे हमें लोकतंत्र के नाम पर ठगा जा रहा हो।

सरकार के स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए किए जा रहे बड़े-बड़े दावों की तो वर्तमान महामारी ने परतें उधेड़ कर रख दी है। लोग यह जान चुके हैं कि सरकारों ने स्वास्थ्य क्षेत्र पर कितना और किस अनुपात में काम किया।

किसी लोकतांत्रिक देश का मूल गुण होता है कि वहां की संवैधानिक संस्थाएं कितनी स्वतंत्र हैं। लेकिन वर्तमान दौर में हम देख रहे हैं कि किस तरीके से निर्वाचन आयोग, सीबीआइ, राज्यों की पुलिस का काम केवल सत्ता में बैठे राजनीतिकों को खुश करना रह गया है। आज इन समस्याओं के अतिरिक्त वर्तमान में बढ़ रही बेरोजगारी, भुखमरी, महिला असुरक्षा, साइबर अपराद आदि का बढ़ना भी लोकतंत्र के महत्त्व को कम करता है। अगर हम वाकई ऐसे देश की संकल्पना करते हैं जिसके बारे में हमारे संविधान निमार्ताओं ने सोचा था या पूर्वज सोचते थे तो आज हमारी सरकारों को जल्द से जल्द इन समस्याओं पर गंभीरता से ध्यान देना होगा और इनका निराकरण ही हमारे पूर्वजों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि और उनके प्रति कृतज्ञता होगी।

’सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र