वर्तमान महामारी में सभी ने समाज में एक दूसरे का अपने अपने स्तर पर सहयोग किया है, फिर चाहे डॉक्टर, नर्स, पुलिस हों या अन्य कर्मचारी, सभी ने अपने नैतिक व्यवहार का परिचय देते हुए इस महामारी से लड़ने में अपनी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लेकिन इसी बीच शीर्ष स्तर की अफसरशाही के व्यवहार ने इस के चरित्र पर सवाल खड़े किए हैं। हाल में कई ऐसी घटनाएं सामने आईं, जिनमें किसी जगह जिलाधिकारियों ने खुद आम लोगों के साथ जरूरत से ज्यादा सख्ती बरतते हुए बेरहम व्यवहार किया, थप्पड़ मारा।

ऐसी घटनाएं इस बात का सबूत है कि ये लोग कागज पर भले ही लोकसेवक हों, लेकिन असल में इनमें अफसरशाही की हनक होती है और इन्हें इस बात का गुमान होता है कि यही सर्वेसर्वा हैं। इन अफसरों को इस बात का अंदाजा भी नहीं होता है कि जिसके साथ उन्होंने ऐसा निंदनीय व्यवहार किया है, उसकी मनोदशा क्या होगी, उस पर क्या मानसिक दबाव पड़ रहा होगा। अफसरों के इस तरीके के व्यवहार के पीछे कुछ मुख्य कारण हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा द्वारा चयनित अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा संरक्षण प्राप्त है। यह हमें अच्छी तरह जानते हैं कि किसी अफसर पर कार्रवाई करना इतना आसान नहीं है।

दूसरा, इनके प्रशिक्षण में कमी दरअसल इन अधिकारियों को जो प्रशिक्षण दिया जाता है, वह जमीनी स्तर से काफी अलग होता है या कहें कि वह केवल कागजों पर ही दिखाई देता है। जैसे इन्हें काफी नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाता है प्रशिक्षण के दौरान, लेकिन यह सबक काम के दौरान में शायद गायब हो जाता है।

इसके अलावा, निरंकुशता का भाव और शक्ति का केंद्रीकरण अन्य कारण है। जागरूकता की कमी के कारण भी लोग ऐसी घटनाओं का विरोध नहीं कर पाते हैं। फिर कार्रवाई के दौरान पारदर्शिता में कमी होती है। ऐसी घटनाएं हो जाने के बाद इस बात की किसी को कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है कि उस अधिकारी पर किस कानून के तहत और क्या कार्रवाई की जा रही है। इसलिए अधिकारियों का चयन करने वाली संस्थाओं को इनके अभद्र व्यवहार को लेकर गंभीरता से विचार करना चाहिए और एक बेहतर प्रारूप तैयार करना चाहिए जो ऐसे लोक सेवक तैयार करें जो वास्तव में लोक सेवक हो, न कि वह किसी सामंतवाद की मानसिकता से ग्रस्त हो।
’सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र