जिस तरह सत्ता का केंद्रीकरण हुआ है, उसी प्रकार आर्थिक सत्ता का भी। धन का केंद्रीयकरण कुछ ही हाथों में होकर रह गया है। अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। महंगाई इस कदर है कि जीना मुहाल है। सरकार सिर्फ खैरात बांटने में लगी हुई है। यह कैसी शासन व्यवस्था है और किस दिशा में हम जा रहे हैं?
ये लक्षण तानाशाही शासन के हैं। शुरू-शुरू में तो जनता को भी यह सब अच्छा लगता है। लेकिन उनकी आंखें तब खुलती हैं जब उनके सारे अधिकार शासन की जंजीरों में कैद हो जाते हैं। फिर कानून का शासन नहीं रह जाता, बल्कि शासन का कानून चलता है। फिर जो राजा यानी सर्वोच्च सत्ता कह दे, वही कानून बन जाता है। कहीं भारत भी उसी दिशा में तो नहीं बढ़ चला है?
नवीन थिरानी, नोहर