आपदा के बीच
एक बार फिर राजधानी दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्सों में भूकम्प के झटके महसूस किए गए। भूकम्प से होने वाला नुकसान हो या उसके झटके महसूस करने की बात हो- दोनों ही प्राकृतिक आपातकालीन स्थिति से जुड़ी हुई हैं। इसका सामना करने के लिए नागरिकों को तैयार रहना जरूरी है। आपदा प्रबंधन टीमों की संख्या जनसंख्या की तुलना में बहुत ही कम है। ऐसे में नागरिकों को ही आपदा प्रबंधन टीम जैसी जिम्मेदारी निभानी पड़ सकती है। इसके लिए ‘आपातकालीन प्रशिक्षण’ आवश्यक है। हर मदद सरकार से ही मिलेगी, इस उम्मीद पर नहीं टिके रहना चाहिए। समस्या से निपटने के लिए खुद से भी रास्ता निकाला जाना जरूरी होता है। समस्या है तो उसका हल भी है। लेकिन हम समस्या को किस दृष्टिकोण से देखते हैं, उसी पर उसके समाधान के लिए की जाने वाली कोशिश निर्भर होती है।
भारत की आबादी को ध्यान में रखते हुए भूकम्प वाले क्षेत्र से बड़ी संख्या में लोगों को दूसरी जगह स्थानांतरण करना कठिन है। यह बात क्रियात्मक तौर पर संभव नहीं है। लेकिन ऐसी विपदा का किस तरह सामना किया जा सकता है, उस बारे में लिया गया प्रशिक्षण हौसला बुलंद करने में काम आता है। उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में भूकम्प के झटके लगते रहते हैं। ‘आपातकालीन प्रशिक्षण’ ही भूकम्प जैसी स्थिति से निपटने के लिए उचित विकल्प है। आपातकालीन स्थिति से कैसे लड़ना चाहिए, उसके लिए आवश्यक बातें कई लोगों को पता नहीं रहती। इसी कारण से जानमाल का ज्यादा नुकसान होता है। यह प्रशिक्षण हासिल करने के बाद व्यक्ति खुद भी बच सकता है और कई लोगों की जान बचा कर बड़े नुकसान को कम कर सकता है। या फिर आपदा के नुकसान को टाल सकता है।
जापान में अक्सर भूकम्प के झटके महसूस किए जाते हैं। नुकसान भी होता है। लेकिन उसके बाद फिर तेजी से जापान बाहर आता है। इसका कारण यही है कि वहां के नागरिक अच्छी तरह जानते हैं कि भूकम्प से कैसे लड़ा जा सकता है। किसी भी प्राकृतिक आपदा से हुए नुकसान से तेजी से बाहर आने के लिए जापान से सीखा जा सकता है। जापान ने भूकम्प के खतरों के बीच जीना सीख लिया है, यह उनके हुनर से अनुभव किया जा सकता है। हम जिस क्षेत्र में रहते हैं, वहां की प्राकृतिक कठिनाइयों के अनुसार लड़ाई का मोर्चा तैयार करना चाहिए। डर किसी समस्या का समाधान नहीं है। डर को खदेड़ना ही समस्या का सही समाधान है।
’जयेश राणे, मुंबई</p>
ताक पर विचार
एक दौर में मजबूत विचारधारा मतदाताओं को आकर्षित करती थी। लेकिन अब सभी राजनीतिक दलों में अवसरवादिता हावी है। सिद्धांत और नीतियों के लिए अडिग रहने का दम भरने वाले नेता सत्ता की आहट पाकर पाला बदलते देर नहीं लगाते। सत्ता के लिए विचारधारा और उसके प्रति घोषित निष्ठा को भी ताक पर रख देते हैं। ऐसा लगता है कि अवसरवाद राजनीति का चरित्र बन गया है। नेता किसी पार्टी का गुणगान कर विपक्ष के खिलाफ बयानबाजी कर रहा होता है, लेकिन चुनाव में टिकट नहीं मिलने पर पाला बदल लेता है।
सवाल है कि किसी विरोधी पार्टी के खिलाफ बयानी हमले करने वाले नेताओं की विचारधारा रातोंरात कैसे बदल जाती है? पार्टी या फिर नेता सत्ता के फायदे और नुकसान के लिए आगे बढ़ते हैं। अब तक यही माना जाता रहा है कि अवसरवादिता का फायदा छोटे दल उठाते हैं, क्योंकि वे अपने बूते सत्ता में नहीं आ सकते। लेकिन अब अवसरवादिता के मामले में छोटे-बड़े दलों में ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। इसी कारण से आज तक नेता गरीबी, भुखमरी, आवास, बिजली-पानी आदि की समस्या दूर नहीं कर पाए हैं। जाहिर है, अब जनता को भी सत्ता के लिए खोखली विचारधारा का दामन थामने वालों को ठुकराना होगा। राजनीति में अवसरवाद स्वस्थ विचारधारा के लिए खतरा है।
’महेश कुमार, सिद्धमुख, राजस्थान</p>