लोकतंत्र में देश के नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि उन्हें अपने मूलभूत सामाजिक कर्तव्यों की पहचान हो। लेकिन अफसोस की बात है कि हमारे यहां ऐसा न के बराबर है। इस बार लग रहा था कि आर्थिक संकट और महंगाई के होते शायद दिवाली पूजा-अर्चना तक सीमित रहेगी। यों भी कोरोना महामारी ने देश में एक मातम जैसा माहौल बना दिया था। हम भारतीय दुख के प्रति संवेदनशील होते हैं, आसपास कहीं मौत हुई हो तो चमक-दमक या उत्सव मनाने की बात सोच नहीं सकते। हां, सरकारों की बात और है। इस पर कोई हैरानी नहीं होती कि जिस प्रदेश के वासियों ने मृत्यु के महादारुण दृश्य देखे हों, वहां के मंदिर परिसर में बारह लाख दीयों की भव्य दीपमाला करके एक महोत्सव का वातावरण बनाया जाता है।
विडंबना यह है कि इधर जनता ने भी बता दिया कि भूल जाओ रोग-शोक को, वे तो चलते रहते हैं। पैसे की किल्लत का कैसा रोना! घरों के बाहर आंखों को चौंधिया देने वाली रंगबिरंगी रोशनियों की झालरें सजाओ, बम-पटाखों के धमाकों से कमरों में दुबके लोगों के दिलों को दहलाओ, और पूरी धूमधाम से दिवाली मनाओ! जिधर देखो, गैरजिम्मेदार और बेपरवाह लोगों के लिए हमेशा की तरह यह दिवाली भी मनोरंजन का अवसर रही, जबकि ढलती उम्र की तकलीफों से जूझ रहे कुछ लोगों के लिए वह रात असह्य परेशानियों का कारण हुई।
रही बात वायु और ध्वनि प्रदूषण से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की, तो मुझे लगता है कि हमारे अधिकतर परिवारों में आज तक वह कोई मुद्दा नहीं बन पाया है। इन त्योहारों के कारण होने वाला शोर और धुआं प्रकृति की सहज गति में अवरोध खड़े करता है। यह भी हमारी संवेदनहीनता ही है कि इस प्रदूषण के अपनी वनस्पतियों और पशु-पंछियों पर पड़ने वाले घातक प्रभाव को हम महसूस नहीं कर रहे। परंपराओं की दुहाई देते रहने की प्रवृत्ति ने हमारा बहुत नुकसान किया है। आवश्यकता इस बात की है कि अपने बच्चों के साथ पर्यावरण के विषय पर निरंतर बात की जाए। इस विमर्श के तार आखिर बच्चों के ही भविष्य से जुड़ते हैं।
’शोभना विज, पटियाला, पंजाब</p>
आस्था के नाम पर
त्योहार और धर्म के नाम पर बरकरार कुरीतियों ने धार्मिक मायनों को खोखला कर दिया है। दशहरा और दिवाली में मूर्तियों के पूजन के साथ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसका अपना सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व है। लेकिन उसकी आड़ में डीजे यानी बेहद ऊंची आवाज में संगीत बजाने की होड़ कराना कितना जायज है? हम आधुनिक भारत की बात करते हैं, लेकिन क्या इक्कीसवीं सदी के भारतीय युवाओं को सारा धर्म और आस्था इसी में नजर आता है? प्रशासन और सरकार को भी इस विषय को अति गंभीरता से लेने की जरूरत है।
जरूरत से अधिक तीव्र ध्वनि, हमारे दिल, दिमाग और शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, जिसका असर तुरंत तो नहीं, लेकिन लंबे समय के बाद पता चलता है। क्या सरकार और कानून बेबस है? अगर किसी व्यक्ति के साथ कोई दुर्घटना डीजे की अति तीव्र ध्वनि से होती है तो क्या सरकार और प्रशासन जिम्मेदारी लेगा? आस्था के नाम पर आडंबर बंद होना चाहिए। इस बात का हमेशा ध्यान रहे कि आपकी खुशी किसी दूसरे के दुख का कारण न बने। अन्यथा रंग में भंग पड़ने में समय नहीं लगता। हम चीन और अमेरिका जैसा बनने की बात करते हैं। क्या वहां का युवा भी इसी तरह के काम करते होंगे? सोचने और समझने की जरूरत है। युवाओं को यह तय करना है कि वे कैसी प्रतियोगिता चाहते हैं!
’अमन जायसवाल, दिल्ली विवि, दिल्ली