नदियों को मां और समुद्र को पिता मानने वाले हम भारतीयों ने कभी समुद्र को बांधने और उस पर अपने अधिकार की रेखाएं खींचने का काम नहीं किया था। पारंपरिक रूप से हम सागर की स्वतंत्रता का सम्मान करते थे और उसे किसी भी राज्य की सीमा में नहीं मानते थे। पुर्तगाली जब भारत आए तब उन्होंने हमारी इस मान्यता को तोड़ा और असीम समझे जाते रहने वाले सागर को अपने देश में शामिल करने और उसके सीने पर अदृश्य लकीरें खींच कर अपने पाले में करने की नई सीख दी।

और आज एक ही मातृभूमि को साझा करने वाले भारत-पाक-बांग्लादेश ने इसी का अनुसरण करते हुए सागर को बांट कर अपने-अपने राष्ट्र के संसाधनों की गठरी में गंठिया लिया है। इसी सागर के सीने पर आजीविका खोजते रोज कुछ मछुआरे उसकी विराटता में गोते लगाते भूल जाते हैं कि अब इसमें हिस्सेदारी लग चुकी है, हमें अपने में ही रहना है।

मछलियां पकड़ने वाले ये लोग उन्हीं की तरह शासकों की बनाई सीमा को धता बता कर स्वतंत्र रूप से इधर-उधर आने-जाने का स्वच्छंद आचरण कर बैठते हैं। नतीजा होता है, पड़ोसी देश की जेलों की पथरीली दीवारों से सर टकराते वर्षों गुजार देना। अपना घर-बार, धर्म-भाषा सब कुछ भूल जाना और पीछे एक परिवार को भूखे पेट बिलखता छोड़ आना! दक्षिण एशिया के इन तीनों देशों के लिए किसी भी सीमा विवाद को सुलझाने से अधिक महत्त्वपूर्ण है इस मानवीय समस्या को हल करना।

अंकित दूबे, जेएनयू, दिल्ली</strong>


प्रचार पर सरकार

पिछले कुछ महीनों में राजनीतिकों और सरकारों ने जनता के धन की बरबादी और भ्रष्टाचार का एक नया तरीका निकाला है और वह है अपने महिमामंडन के लिए पूरे देश के समाचारपत्रों और तमाम टीवी चैनलों में विज्ञापन देना। इसके लिए विज्ञापन एजेंसियों की स्थापना करके निविदाएं तक निकाली जा रही हैं। समाचारपत्रों के विज्ञापन तो एक सीमा तक गिने जा सकते हैं, लेकिन टीवी पर कितनी बार और कितनी देर तक विज्ञापन दिखाए गए, कोई नहीं जानता। व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने के लिए व्यक्ति विशेष के फोटो और आवाज का प्रयोग हो रहा है। यदि इस संबंध में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो यह भी एक बड़ा घोटाला कांड होगा। विकास दिखता है, उसे दिखाने के लिए किसी विज्ञापन की जरूरत नहीं।

यश वीर आर्य, दिल्ली