करीब दो वर्ष बाद सिनेमाघरों के खुलने पर एक बार फिर दिख रहा है वही उमंग, उत्साह और खुशी आम लोगो में। फिल्में लोगों के जीवन का एक जरूरी हिस्सा हैं, क्योंकि हम चाहे फोन पर कितनी वेब-सीरीज देख लें, मगर थिएटर में जाकर फिल्में देखना एक अलग ही बात होती है। वह एक ऐसी अनमोल खुशी है, जो लोग अपने दोस्तों और परिवार के संग महसूस करते रहे हैं सालों से। जनता के इस बेशुमार प्यार को देख अब लग रहा है कि सिनेमा का चस्का आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगा। अब फिर थिएटर हाउसफुल होंगे और एक बार फिर फिल्मों का बोलबाला होगा।
’निकिता बेदी, नई दिल्ली

बदहाल बचपन

कुपोषित विकास (9 नवंबर) के जरिए जताई गई चिंताएं वाजिब हैं, क्योंकि ये आंकड़े उन सरकारी योजनाओं को मुंह चिढ़ाते नजर आ रहे हैं, जो लक्षित तौर पर बच्चों में कुपोषण की समस्या से निपटने की खातिर संचालित हैं। सबसे दुखद है कि इस पंक्ति में पहले और तीसरे स्थान पर क्रमश: महाराष्ट्र और गुजरात हैं। बिहार की बात तो हर किसी को समझ में आ सकती है, मगर यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि बिहार के मुख्यमंत्री का सर्वाधिक जोर शिक्षा और स्वास्थ्य पर है।

इस संबंध में सरकार द्वारा बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। गुजरात माडल तो भारत प्रसिद्ध है ही। महाराष्ट्र में भी वही स्थिति है। मगर इन तीनों राज्यों की सरकारों पर गौर करने पर इस बात की तस्दीक हो रही है कि सभी दलों की सरकारों में जन-कल्याणकारी योजनाओं में या तो छीजन मौजूद है या पूर्ण बंदी का असर है। मगर आंकड़ों में पहले, दूसरे, तीसरे क्रम से तसल्ली नहीं मिलती है।

एक बात और गौर करने वाली है कि ये आधिकारिक आंकड़े हैं। जो इस समस्या से संबंधित मंत्रालय द्वारा सूचना के अधिकार के तहत जारी किए गए हैं। हो सकता है कि जमीनी हालात इससे बदतर हों। वास्तविक तस्वीर कैसे सामने आएगी, आज की तारीख में यह सवाल बेहद प्रासंगिक है?
’मुकेश कुमार मनन, पटना</p>