देश के अन्नदाता आज अन्न के लिए तरस रहे हैं। कहीं सूखे के चलते फसल नहीं होती तो कहीं फसल इतनी हो जाती है कि फेंकनी पड़ती है। लातूर का सूखा सुर्खियों में बदल गया। वहीं मध्यप्रदेश में प्याज मिट्टी से सस्ती हो चली है। देश को आजाद हुए सत्तर साल होने वाले हैं मगर सरकारें न सिंचाई की व्यवस्था कर सकीं और न पर्याप्त भंडार-गृहों की। नतीजा, हरित क्रांति ने किसान का जीवन तबाह कर दिया।
लातूर में कई साल पहले जबर्दस्त भूंकप आया था। आपदा इस बार भी आई है, मगर सूखे के रूप में। पानी लुट न जाए, इसके लिए पहरेदारी हो रही है। अपना रास्ता खुद ढूंढ़ लेने वाले पानी को ट्रेन में सफर करना पड़ रहा है। लातूर सिर्फ उदाहरण भर है। देश के आधे से कुछ ही कम जिले बचे हैं जो सूखे की चपेट में नहीं हैं। हरित क्रांति की सबसे दुखद सच्चाई यह है कि इसने कुछ समय के लिए पेट तो भर दिया, मगर जमीन को बंजर कर दिया। रही-सही कसर चीनी मिलों ने पूरी कर दी। अकेले महाराष्ट्र में करीब तीन सौ चीनी मिलें हैं। कुल चार प्रतिशत भूमि पर गन्ना उगता है जो इकहत्तर प्रतिशत पानी पी जाता है। करीब अठारह सौ बांध हैं, इसके बावजूद महाराष्ट्र प्यासा है, क्योंकि बांध बनाए गए हैं चीनी मिलों की प्यास बुझाने के लिए। अकेले महाराष्ट्र का ही गला नहीं सूख रहा। कुल ग्यारह राज्य इस आपदा की चपेट में हैं, जो सूखे की मार को झेल रहे हैं। ट्रेनों से पीने के लिए तो पानी पहुंचाया जा सकता है, खेतों तक नहीं।
इस देश में किसान दांतों के बीच जीभ की तरह है। खेतों तक पानी पहुंचाने में नाकाम रहीं सरकारें, फसलों को सहेजने में भी नाकाम रहीं। हरित क्रांति तो मानो सिर्फ फसल पैदा करने के लिए आई थी। स्मार्ट सिटी और औद्योगिक गलियारों के लिए बाहें फैलाए बैठी हमारी सरकारें कोल्ड स्टोरेज के नाम पर गूंगी हो जाती हैं।
हर साल हजारों करोड़ रुपए का अनाज सड़ जाता है। बंगाल में आलू, मध्यप्रदेश में प्याज तो कहीं टमाटर सड़ जाता है और साल में एक बार जरूर यही सब्जियां लोगों की थाली से गायब होने लगती हैं। अब किसान कहां जाएं? मुआवजा मिलता नहीं, फसल होती नहीं, होती है तो बिकती नहीं। सुना, किसी बैंक का लाभांश बढ़ कर एक चौथाई फीसद से ज्यादा रहा है, लेकिन किसान का घाटा बढ़ता ही जा रहा है! (आलोक कुमार गाजियाबाद)
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पर्यावरण और हम
कमजोर मानसून और भूजल के घटते स्तर के कारण खेती, बिजली उत्पादन और पेयजल के लिए भयानक संकट उत्पन्न हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों के कुछ परिवार ऐसे हैं जिन्हें आधा किलोमीटर से अधिक दूर से पानी लाना पड़ता है। बड़े शहरों में दूरदराज के बांधों से पानी का शुद्धिकरण कर उसकी आपूर्ति की जाती है, लेकिन गरीब शहरी आबादी में इसकी आपूर्ति न के बराबर है। जलस्तर घटने के साथ-साथ आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने से कुछ इलाकों में पेयजल संकट गहराने की खबरें आ रही है। वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली बनाने वाले संयंत्रों, उद्योगों आदि से अंधाधुंध होने वाले गैसीय उत्सर्जन से कार्बन डाइआक्साइड में बढ़ोतरी हो रही है।
जंगलों का बड़े पैमाने पर विनाश इसकी दूसरी वजह है। जंगल कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा को प्राकृतिक रूप से नियंत्रित करते हैं, लेकिन इनकी बेतहाशा कटाई से यह प्राकृतिक नियंत्रक भी हमारे हाथ से छूटता जा रहा है। याद रखें कि बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है। अगर हम सोचें कि एक अकेले हमारे सुधरने से क्या हो जाएगा, तो ध्यान रखें कि हम सुधरेंगे तभी जग सुधरेगा। सब लोग अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करें तो ग्लोबल वार्मिंग को भी परास्त किया जा सकता है। धूप की आग पल भर में कितने ही गांवों को चपेट में ले रही है। नदी, नाले, तालाब सब सूख रहे हैं। यह ग्लोबल वार्मिंग की खतरनाक चेतावनी है। (संतोष कुमार, बाबा फरीद कॉलेज, बठिंडा)
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मौत का निवाला
एक लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह आम जनता के हित में काम करेगी। उसका कल्याण करेगी और उसके जीवन स्तर को ऊपर उठाने की कोशिशें करेगी। लिहाजा, भारत सरकार ने भी समय-समय पर जनता को बीमारियों से बचाने वाले टीके लगाने से लेकर स्कूली बच्चों के दोपहर के भोजन की जिम्मेवारी ली। मगर क्या इन कार्यों को हमारी व्यवस्था ने सफलतापूर्वक अंजाम दिया है?
जवाब निराशाजनक होगा। पिछले दिनों दिल्ली के वजीरपुर के एक कन्या विद्यालय में राजकीय प्रयासों से दवा खिलाने के कार्यक्रम के दौरान लौहफॉलिक एसिड की गोली खाने वाली छात्रा की तबीयत बिगड़ी और वह दुनिया से रुखसत हो गई। यह मामला चूंकि राजधानी का है इसलिए दर्ज हुआ और अखबारों में इसकी खबर छप गई। जबकि यह पहला मामला नहीं है, देश के दूर-दराज इलाकों में ऐसे मामले रोज ही सामने आते हैं पर जानकारी और चेतना के अभाव में मां-बाप को पता नहीं चलता कि बच्चे की मौत का कारण क्या था।
स्कूलों में आएदिन दोपहर के भोजन में कभी कॉकरोच तो कभी छिपकली पाए जाने की खबरें आती हैं। तीन साल पहले बिहार के छपरा में जहरीला मध्याह्न भोजन खाने से दर्जन भर बच्चे मौत का निवाला बन गए थे। जब सरकार ऐसे कार्यक्रमों की बागडोर ईमानदार हाथों में देने और पूरी पारदर्शिता सुनिश्चित करने में नाकाम साबित हो रही है तो अब भी इन्हें चलाते रहने की क्या मजबूरी है? (अंकित दूबे, जनेवि, नई दिल्ली)
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इलाज में सहायक
अनेक लोग विभिन्न कारणों से चोटिल हो जाते हैं और उन्हें एक से लेकर छह हफ्ते तक बिस्तर पर आराम करना पड़ता है। इस दौरान मरीजों को कुर्सी, छड़ी, पॉट, वॉकर आदि विभिन्न सहायक उपकरणों की जरूरत रहती है जो आराम के बाद बेकार हो जाते हैं। इन उपकरणों का अस्थायी प्रयोग होने के चलते बहुत लोग इन्हें खरीदते नहीं और जैसे-तैसे गुजारा कर लेते हैं। सुझाव है कि अगर चिकित्सालयों में ऐसे उपकरण रियायती किराए पर उपलब्ध हों तो हर कोई उनका उपयोग कर समय से ठीक हो सकता है। (जीवन मित्तल, मोती नगर, दिल्ली)