जनसत्ता में 28 जून को छपे संपादकीय ‘आंदोलन की राह’ में स्पष्ट उल्लेख है कि किसानों के आंदोलन को केंद्र प्रतिष्ठा का मुद्दा मान बैठा है। जबकि सात महीने के आंदोलन के दौरान दोनों पक्षों में दस से अधिक दौर में चर्चा हुई, लेकिन हर बार केंद्र का रुख किसानों की अपेक्षा ज्यादा ही अड़ियल रहा। अन्यथा कोई तो हल अवश्य निकलता। केंद्र कानून रद्द नहीं करना चाहता, जबकि किसान इन्हीं कानूनों के खिलाफ आंदोलित हैं। केंद्र सरकार आंदोलन को कमजोर कर सकती है, किंतु किसानों को या किसान शक्ति पर चोट करने की ताकत अब उसमें नहीं रह गई है। क्योंकि किसानों में जागरूकता बढ़ी है। गौरतलब है कि जिसने कानून बनाए हैं वे उसे रद्द भी कर सकते हैं। वस्तुत: इन कानूनों को किसानों द्वारा मान्यता नहीं दिए जाने से ये महत्त्वहीन हो चुके हैं। इसलिए बेहतर हो कि केंद्र किसानों तथा पारित कानूनों के प्रति रवैया बदले।
’बीएल शर्मा “अकिंचन”, तराना-उज्जैन

कानून के राज में

पिछले कुछ महीनों में ऐसी घटनाएं हुई हैं जो भारतीय कानून-व्यवस्था पर ही उंगली उठा रही हैं। इससे तो लगता है कि देश के हालात वाकई भयावह और चिंताजनक हैं। पिछले कुछ सालों में जिस तरह की हिंसक संस्कृति पनपी है, उससे दुनियाभर में देश की कम बदनामी नहीं हुई है। चाहे भीड़ द्वारा साधुओं की हत्या हो या मॉब लीचिंग के मामले या धर्म के नाम होने वाले जघन्य अपराध या फिर पूर्णबंदी तोड़ने के इल्जाम में तमिलनाडु पुलिस द्वारा पिता-पुत्र की पुलिस हिरासत में हत्या का मामला, या उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बढ़ते अपराध, इन सबसे तो लगता है कि देश में जंगल राज है।
वर्तमान कानून व्यवस्था की मुख्य समस्याओं की बात करें तो सबसे बड़ी समस्या न्याय में अत्यधिक समय का लगना है। इससे लोगों का न्याय व्यवस्था में विश्वास कम होता जा रहा है। इसीलिए जनता पुलिस मुठभेड़ों को भी सही ठहरा के जश्न मनाने लगती है। न्याय प्रक्रिया की जटिलता और इस कारण इसमें लगने वाले वक्त का अपराधी भरपूर फायदा उठाते हैं। गवाहों को तोड़ लिया जाता है और दोषी भी बच निकलता है। तानपुर के विकास दुबे कांड का उदाहरण सामने है।

अगर विकास दुबे को उसके अपराधों की सजा पहले ही मिल जाती तो वह खुला नहीं घूम रहा होता और न ही आठ पुलिस वालों की हत्या का दुस्साहस कर पाता। अगर कानून व्यवस्था को मजबूत करना है तो अंग्रेजी काल से चली आ रही इस व्यवस्था मे सुधार की जरूरत है। स्वतंत्रता प्राप्ति के दशकों बाद भी भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की पारदर्शिता और जवाबदेहिता को प्रभावी रूप से सुनिश्चित करना शेष है। अपराधों की प्रकृति व स्थिति में परिवर्तन, संख्या में वृद्धि, अनावश्यक व अनुचित गिरफ्तारियां, आपराधिक मामलों का अत्यधिक लंबित होने, समन्वय की कमी, दोषसिद्धि की दर अत्यधिक कम होने आदि कारणों के चलते पुलिस सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है। पुलिस सुधारों को लेकर 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में राष्ट्रीय पुलिस आयोग बना था। लेकिन इसकी सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया। इसके बाद भी कई आयोग बनते रहे, लेकिन किसी भी आयोग की सिफारिशों पर अमल नहीं होने से हालात नहीं बदल पाए। पुलिस सुधारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह और अन्य ने एक याचिका दायर की थी। इस पर 22 सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने सात निर्देश दिए।

इनमें से 6 निर्देश राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों और सातवां निर्देश केंद्र सरकार के लिए था। इनमें डीजीपी की नियुक्ति से लेकर डीएसपी रैंक से नीचे के अधिकारियों के तबादले, तैनाती, पदोन्नति सेवा आदि का उल्लेख था। 2006 में सोली सोराबजी की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति ने आदर्श पुलिस अधिनियम की प्रति राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को विचार और उपयुक्त कार्रवाई के लिए भेजी गई। इस पर छत्तीसगढ़ सहित पंद्रह राज्यों ने राज्य पुलिस अधिनियम तैयार किया था। इतना ही नहीं छत्तीसगढ़ ने सुप्रीम कोर्ट के छह निदेर्शों को भी अमली जामा पहनाया। केंद्र सरकार ने आदर्श पुलिस अधिनियम 2006 की समीक्षा कर आदर्श पुलिस विधेयक 2015 भी तैयार किया था। लेकिन ये सब सुधार के कदम इतनी मंथर गति से चल रहे हैं कि इनका कोई प्रभाव नहीं दिखता। हाल ही में सरकार ने रणवीर सिंह समिति बनाई है जिसे पूरे कानून व्यवस्था पर सलाह देने को कहा गया है। लेकिन कोरोना काल मे बनाई गई इस समिति में लोगो से या एक्सपार्ट से सलाह लेने से परहेज किया गया है जो कि समस्या को जन्म देगा।
’नृपेंद्र अभिषेक, दिल्ली विवि, दिल्ली

वक्त का क्रूर दौर

देश में महाविपदा के कारण करोड़ों लोग बेरोजगारी, तंगहाली, महंगाई और भुखमरी का दंश झेल रहे हैं। पेट्रोल, डीजल, खाद्य तेल और रोजमर्रा के इस्तेमाल वाली वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं। जमाखोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी चरम पर है। लेकिन बिल्कुल असंवेदनशील, क्रूर और खुदगर्ज सत्ता के कर्णधार अपनी विलासितापूर्ण जीवन जीने में कोई कमी नहीं होने दे रहे हैं। इनके पतन के बाद जब इस दौर का इतिहास लिखा जाएगा, तब इस दौर को नीरो से भी असंवेदनशील और क्रूर दौर के तौर पर लिखा जाएगा।
’निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद

बचाव की जरूरत

भारत में कोरोना विषाणु के डेल्टा और डेल्टा प्लस रूप के मामले महाराष्ट्र, केरल, आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित कुछ राज्यों में देखे गए हैं। भारत के टीके कोविशील्ड और कोवैक्सीन इन विषाणु रूपों के खिलाफ कितने कारगर होंगे यह अभी पता नहीं चल पाया है। लेकिन जिस तरह से ज्यादातर राज्यों में प्रतिबंध हटा लिए गए हैं और बाजार खोल दिए गए हैं, उससे खतरा कहीं ज्यादा बढ़ता जा रहा है। लोग बचाव के निदेर्शों का पालन किए बिना बाजारों में निकल रहे हैं। पर्यटन स्थलों में तफरीह कर हैं, उससे तीसरी लहर की आने की आशंका काफी बढ़ गई है। दूसरी समस्या यह है कि अशिक्षा, अंधविश्वास और धर्मांधता के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग वैसे भी टीका लगाने में बहुत पीछे हैं। शहरों में टीकाकरण की रफ्तार तेज नहीं है। टीकों की कमी पहले ही से बनी हुई है। इससे खतरा और भड़ रहा है। ऐसे में आमजन को स्वयं को कर अपने आप को बचाने के लिए भीड़ से अलग अपने घर में रहने की जरूरत है। तभी संक्रमण से बचा जा सकेगा।
’संजीव ठाकुर, रायपुर