बढ़ती बेरोजगारी और महामारी के इस कठिन संकट के दौर में आम जनता को राहत के साथ महंगाई पर रोक लगाने के बजाय सरकारी तेल और गैस कंपनियां दिन-प्रतिदिन पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी कर रही है। पेट्रोल अब सौ रुपए प्रति लीटर के पार हो चुका है। वही हाल कमोबेश डीजल का भी है। आम जनता अब सब कुछ भूलते हुए बढ़ी कीमतों को अपनी आदत में उतार रही है और अभ्यस्त हो रही है। लेकिन इसी बीच सभी परिवारों की मूलभूत आवश्यकताओं में प्रमुख भूमिका निभाने वाला, किचन को संभालने वाला एलपीजी गैस अब अपना रौद्र रूप दिखाने लगा है।

गैस सिलेंडर के दामों में पच्चीस रुपए की बढ़ोतरी कर दी गई। अब गैस सिलेंडर का दाम साढ़े आठ सौ रुपए से पार कर चुका है। पेट्रोल, डीजल और गैस के सिर्फ दामों में इजाफे की बात नहीं, इन सभी के दामों में बढ़ोतरी के चलते फल, सब्जी, चीनी, दाल और दवाओं के दामों में भी निरंतर वृद्धि देखने को मिल रही है। ऐसी बढ़ती बेरोजगारी और आसमान छूती महंगाई कहीं देश को भुखमरी जैसे आपदा से जूझने पर न मजबूर कर दे। सरकार को इस मंहगाई के ऊपर समय रहते ध्यान देने की आवश्यकता है। अगर मौजूदा सरकार लगातार बढ़ती महंगाई से अपना ध्यान हटाती रही तो आने वाला समय एक बड़े संकट का समय होगा।
’श्याम मिश्रा , दिल्ली विवि, दिल्ली

कृत्रिम भाव

आधुनिकता के इस दौर में सोशल मीडिया और उस पर पीले-पीले इमोजी ने शब्दों को यह दिखा दिया है कि युवा पीढ़ी की रुचि अब शब्दों में तेजी से कम हो रही है। वे अब भावनाओं को दर्शाने में देर नहीं करना चाहते। वे ‘शब्दों पर समय खर्च क्यों करना’, जैसा महसूस करते हैं उसे एक ही क्लिक मे इमोजी से व्यक्त कर देते है। बढ़ती उत्तेजना और कम होता रचनाशिल्प इसका प्रमाण है। आलम यह है कि आगामी हिंदी दिवस की शुभकामनाएं भी अंग्रेजी मे लिखी जाएंगी और खुशी व्यक्त करने के लिए विख्यात मुस्कराने वाला इमोजी भी लगा दिया जाएगा।

भाषाओं के पतन का कारण यह इमोजी नहीं, वह आलसी युवा सोच है जो काम को आसान बनाने में विश्वास रखती है। आधुनिकता को कीबोर्ड से जोड़ कर देखने वाले लोग शायद यह भूल जाते है कि बुद्धि को कलम से जोड़ कर देखा जाता है। जब हम बोलचाल में इमोजी और सांकेतिक भाषा का प्रयोग नहीं करते तो लिखने मे क्यों करें. जबकि लिखने से ही तो हमारी भावनाओं की गहराई और शब्दों के वजन का पता चलता है। पर शायद आलसी युवाओं को यह तर्क समझ या पसंद नहीं आ रहा है, क्योंकि शब्द सिमट रहे हैं।
’हर्ष गिरि, लखनऊ, उप्र

मतलब के रिश्ते

तालिबान के काबुल में कब्जे के बाद से विश्व बिरादरी में यह चर्चा जोर पकड़ता जा रहा है कि आखिर कितने देश अफगानिस्तान के साथ राजनयिक संबंध बहाल रखेंगे। अभी जिस अफरा-तफरी का माहौल बना है, उसमें कई देश अपने दूतावास बंद कर रहे हैं। क्या उनका ये कदम स्थायी होगा? मुझे लगता नहीं है कि ऐसा होगा। दुनिया बहुत मतलबी है। केवल अपने बारे में सोचती है।

फगानिस्तान के आम नागरिकों के साथ क्या हो रहा है, यह उनकी व्यक्तिगत समस्या है। दुनिया वाले शुरू से इस दिशा में पेशेवर दृष्टिकोण अपनाते रहे हैं। याद किया जा सकता है जनवरी 1933 में एडॉल्फ हिटलर की जर्मनी के चांसलर के रूप में नियुक्ति और नाजियों का सत्ता पर कब्जा होना। उसी के साथ ही यहूदियों का जनसंहार का शुरू होना। मगर तथाकथित मित्र राष्ट्र अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत रूस का नाजी जर्मनी के साथ संपूर्ण राजनयिक संबंध उस दरमियान भी बना रहा था, जो दूसरे विश्व युद्ध के शुरू होने के बाद समाप्त हुआ था। इसी तरह बहुत संभव है कि तालिबानी अफगानिस्तान के साथ भी अनेक देशों का रिश्ता यथावत चलता रहे।
’जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर, झारखंड</p>