भारतीय सभ्यता दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है और भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र। ये बातें हर भारतीय के लिए गर्व का विषय हैं, लेकिन हमें समय-समय पर लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटियों पर अपने आप को परखने, आत्मविश्लेषण करने और कमजोरियों को दूर करने की पद्धति भी विकसित करनी चाहिए। एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में प्रधानमंत्री का चयन संवैधानिक मताधिकार द्वारा जनता करती है। ऐसे में केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘ईश्वर का तोहफा’ निरूपित करना क्या लोकतंत्र की भावना के अनुरूप है?
चुनाव नजदीक आते ही सतलज-यमुना लिंक नहर के पानी के बटंवारे के भावनात्मक मुद्दे को भड़काने का प्रश्न हो, हरियाणा के आरक्षण आंदोलन में अपार जनधन के नुकसान के बाद घुटने टेकने का सवाल हो, ओवैसी, आजम खान, तथाकथित योगियों और साध्वियों जैसे गैरजिम्मेदार बयानबाजों द्वारा गाहे-बगाहे विषवमन का प्रश्न हो, झूठे गढ़े गए प्रमाणों के बार-बार प्रसारण के कुछ चैनलों के दुष्प्रभावों का प्रश्न हो, जबान काट लेने या गोली मार देने, न्यायालय परिसर में काले कोट की ओट में मारपीट और गुंडागर्दी, विधायक, सांसद, मंत्री जैसे पदों पर प्रतिष्ठित जनप्रतिनिधियों द्वारा सड़कों पर मारपीट और धमकियों का प्रश्न हो, राष्ट्रप्रेमी या राष्ट्रद्रोही घोषित करने वाले स्वयंभुओं की मंशाओं के सवाल हों, घोड़े की टांग तोड़ने या घोड़े की तरह खरीदी (हॉर्स ट्रेडिंग) का प्रश्न हो, मुद्दाविहीन बिंदुओं को मुद्दा बना कर देश और समाज में उत्पात, उद्वेलन, विभेद, वैमनस्य फैलाने का प्रश्न हो और प्रशासन मूकदर्शक या उसकी कार्रवाइयां स्पष्ट पक्षपाती दिखाई दें तो जनता का विश्वास दरकना और लोकतंत्र का संदेह के घेरे में आना स्वाभाविक है।
देश में विकास शब्द का उपयोग बहुत होता है। कैसा विकास, किसका विकास, विकास की कीमत क्या, कीमत कौन चुका रहा है? ये प्रश्न उठाने वाले विकास-विरोधी और भूख, गरीबी, बेकारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक आजादी के प्रश्न उठाने वाले राष्ट्र-विरोधी माने जाएंगे क्या?
लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान के मुख्य आधार हैं। संविधान ने हमारे अधिकारों और कर्तव्यों को भी स्पष्ट किया है और अपराधी घोषित करने और दंड देने के लिए संस्थानों को अधिकार दिए हैं। अपने अधिकारों के प्रति सजग और कर्तव्यों का पालन करने के प्रति प्रतिबद्ध नागरिकता बोध को जागृत करने के लिए शीर्ष नेतृत्व को अपनी-अपनी जमात को अनुशासित और प्रशिक्षित करना होगा और जनता में लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के प्रति विश्वास को दृढ़ करना होगा।
देश की नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर समान वितरण के लिए राष्ट्रीय जल आयोग का गठन करना चाहिए और संकीर्ण क्षेत्रीय राजनीति के हाथ का खिलौना नहीं बनने देना चाहिए। विकास की अवधारणा सहित तमाम बुनियादी मुद्दों और जनोन्मुखी राजनीति के लिए भाषाई गरिमा के साथ स्वस्थ बहस लोकतंत्र को विस्तार देकर अधिक विश्वसनीय बनाएगी, जिसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। (सुरेश उपाध्याय, इंदौर, मप्र)
………………
बेमानी बहस
आजकल संसद से सड़क तक शाब्दिक देशभक्ति पर बेमानी बहस छिड़ी हुई है, जबकि सभी देशवासी एकता के सूत्र में बंधे हुए हैं और सभी देशभक्त भी हैं। देश का मीडिया भी मुद्दे को गरमाए रखना चाहता है, ताकि उसको टीआरपी की भरपूर खुराक मिल सके। यह पत्रकारिता के लिए ठीक नहीं है। ‘भारत माता की जय’ हो या कोई और मुद्दा, मीडिया को निष्पक्ष भूमिका अदा करनी चाहिए। जहां तक देशभक्ति का प्रश्न है, हम सब जानते हैं कि मात्र कह देने से कोई देशभक्त नहीं हो जाता, बल्कि वह देश के लिए क्या कर रहा है और कर सकता है, इस पर निर्भर करता है। अब देश को भाषणों, आश्वासनों और संवादों की जरूरत नहीं, बल्कि समर्पण और ईमानदारी से देश सेवा करने की है। (जुल्फिकार, एएमयू, अलीगढ़)
…………….
देश की फिक्र
भारत और इंडिया के बीच की लकीर शायद अब इतनी मोटी होती जा रही है कि शायद कुछ समय बाद हमें दूसरी तरफ दिखाई ही न पड़े! चाहे देशभक्ति के नारे हों या एक बार फिर से बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से बर्बाद हुए देश के अन्नदाता की चीख, सब हाल ही में शुरू हुए क्रिकेट विश्व कप के शोरगुल मे गुम हो जाएगी!
बीते दिनों उत्पन्न हुए विवादों पर जो प्रतिक्रियाएं आर्इं वे मन को विचलित करती हैं। कैसे हम अपने सामाजिक दायित्व से बच कर निकलते हैं और फिर अंधेरे की ओर बढ़ जाते हैं! ऐसा लगता है कि हम फिर से गुफा काल की तरफ बढ़ रहे हैं!
किसी भी विचारधारा और राजनीतिक दल का समर्थक बनने से पहले हमें जरूरत है एक सच्चा, ईमानदार और समर्पित नागरिक होने की और साथ ही अपनी समझदारी और सूझबूझ से काम करने की, तभी हमारा संपन्न और समृद्ध लोकतंत्र का सपना पूरा हो सकता है! (हर्ष चेतीवाल, बहादुरगढ़, हरियाणा)
………………
परीक्षा का भय
देश में शिक्षा के सुधार के लिए सरकार की ओर से सुविधाओं की बहार है। आलम यह है कि स्कूल तो खुल गए, लेकिन शिक्षकों की बहुत कमी है। हर राज्य में परीक्षाएं चल रही हैं, लेकिन पाठ्यक्रम पूरा न होने के कारण विद्यार्थी मानसिक दबाव में हैं। शिक्षकों और अभिभावकों को सामाजिक प्रतिष्ठा को ताक पर रखते हुए अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखना चाहिए। हर बरस अनेक बच्चे तनाव के चलते खुदकुशी कर लेते हैं। मध्यप्रदेश में एक छात्रा ने खुदकुशी करते वक्त चिट्ठी में लिखा कि मुझे प्रथम न आ पाने का डर सता रहा था। अभिभावकों को सोचने की जरूरत है कि हम अपने बच्चों पर दबाव बना कर उनकी जान जोखिम में क्यों डाल देते हैं।
बच्चे देश के महान पुरुषों की कहानी से शिक्षा ले सकते हैं। देश के महान खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर का भी शुरुआती दौर में पढ़ाई में मन नहीं लगता था, सिर्फ क्रिकेट में मन लगता था। वे बाद में महान खिलाड़ी बने। हम सबको सोचना होगा कि देश के बच्चों में क्या कमियां हैं, जो आत्महत्या को गले लगा रहे हैं। इसकी जिम्मेवारी अभिभावक और शिक्षक के साथ समाज की भी होनी चाहिए। देश के अंदर कई ऐसे संस्थान हैं, जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक रूप सें परिपक्व बनाने का काम कर रहे हैं। प्राइवेट स्कूलों को भी कॉरपोरेट हितों से ऊपर उठ कर देश के हित में सोचना चाहिए।
(शुभम द्विवेदी, भोपाल)