मध्यप्रदेश सरकार ‘युक्तियुक्तकरण’ के नाम पर एक लाख बीस हजार स्कूलों में से एक लाख आठ हजार स्कूल बंद करने और बाकी बचे बारह हजार स्कूलों को निजी स्कूलों की तर्ज पर विकसित करने के प्रस्ताव पर अमल करने की तैयारी में है। प्रयोग के तौर पर भोपाल संभाग के पांच जिलोें भोपाल, रायसेन, विदिशा, सीहोर और राजगढ़ में इसे लागू करने की योजना है, जिसे बाद में पूरे प्रदेश में विस्तारित किया जाना है।
सरकारी स्कूल प्रणाली को हतोत्साहित करने और निजीकरण को प्रोत्साहित करने की नीतियों ने आमजन के मन में निजी स्कूलों और शिक्षण संस्थाओं के प्रति आकर्षण उत्पन्न किया है और शिक्षा के क्षेत्र में एक व्यवसाय तंत्र की स्थापना हुई है। पहले इन स्कूलों को पीपीपी यानी प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप के आधार पर चलाने का प्रस्ताव चर्चा में था, जो सीधे-सीधे सरकारी संसाधनों को निजी हाथों में सौंपने की कोशिश दिखाई देती थी। शायद इसीलिए वह प्रस्ताव स्थगित करके यह प्रस्ताव लाया गया है। यह प्रस्ताव उससे भी घातक है जो सीधे सरकारी स्कूलों को बंद करने का ही काम करेगा।
अगर ऐसा हुआ तो यह आर्थिक रूप से कमजोर, ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्र के विपन्न और वंचित बच्चोें के न्यूनतम उपलब्ध अवसरों को और कम कर देगा। आज जब लगातार महंगी होती जा रही शिक्षा ने खासकर गरीब वर्गों के सामने कठिन चुनौतियां खड़ी की है, ऐसे में आवश्यकता सरकारी स्कूलों को सक्षम, सुविधासंपन्न और प्रतिस्पर्धा के योग्य बना कर विस्तारित करने की है। सरकारी स्कूलों को संकुचित करने वाला यह प्रस्ताव प्रतिगामी होकर समाज के विपन्न और वंचित वर्ग को और पीछे धकेलने का काम करेगा। साथ ही निजी और निगम के स्कूलों के एकाधिकार को बढ़ावा देगा और पहले से ही महंगी शिक्षा और अधिक महंगी होकर बहुत सारे लोगों को इसके दायरे से बाहर कर देगी।
गौरतलब है कि सरकारी स्कूलों के भवन मुख्य जगहों पर है और पर्याप्त मैदानी भूमि उनके पास है, जिसके व्यावसायिक उपयोग पर भूमाफिया और निजी शिक्षण संस्थाओं की कुदृष्टि पड़ी हुई है। आज भी सरकारी स्कूलों में निजी स्कूलों की तुलना में योग्य, प्रशिक्षित और श्रेष्ठ शिक्षक हैं, उन्हें जनगणना, पशुगणना, जनप्रतिनिधियों के निजी सहायक और अन्य अभियानों और सर्वे आदि के काम में लगाने के बजाय उनकी प्रतिभा का सिर्फ शिक्षण के लिए उपयोग कर सरकारी स्कूलों को श्रेष्ठ और विद्यार्थियों को निजी से प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाया जा सकता है।
हालत यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य राज्य के विषय-सूची में होने के बावजूद मध्यप्रदेश ने अपनी कोई शिक्षा और स्वास्थ्य नीति नहीं बनाई है। 1968 की देश की प्रथम शिक्षा नीति, 1986 की नवीन शिक्षा नीति और आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में गठित समीक्षा समिति की अनुशंसा के परिप्रेक्ष्य में 1992 में किए गए संशोधन ही मार्गदर्शी रहे हैं। राष्ट्रीय नीति के लक्ष्यों और सिद्धांतों की रोशनी में राज्य की आवश्यकताओं और आदिवासी बहुल आबादी को केंद्रित कर मध्यप्रदेश को अपनी शिक्षा नीति का निर्माण करना चाहिए। साथ ही 1966 की डॉ डीएस कोठारी आयोग की रिपोर्ट को लागू कर शिक्षा को विकास और परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण उपक्रम की तरह प्रयोग किया जाना चाहिए।
संविधान के नीति निदेशक सिद्धांत ‘सबको मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा’ का लक्ष्य सार्वजनिक या सरकारी शिक्षा प्रणाली को विस्तारित करके और शिक्षा को वहनीय और गुणवत्तापूर्ण बना कर ही प्राप्त किया जा सकता है।
सुरेश उपाध्याय, गीता नगर, इंदौर