चीन के साथ सीमा विवाद इस वक्त मीडिया के सामने शायद कोई अहम मुद्दा नहीं है। भारत सरकार तो इस महत्त्वपूर्ण विषय पर पूर्णत: खामोश है। लगता है, विपक्ष को भी इस मसले में कोई दिलचस्पी नहीं है। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद सात दशक से भी अधिक पुराना है। चीन लगातार इस मामले में अनर्गल बयानबाजी करता रहा है। चीन की विस्तारवादी नीतियों को लेकर प्रदर्शन भी लगातार होते रहते हैं।

इस दरम्यान चीन लगातार कहता रहा है कि भारत उसका अच्छा पड़ोसी है, लेकिन लद्दाख, गलवान, अरुणाचल आदि में उसके निरंतर निर्माण और अतिक्रमण की खबरें इस कथन का खंडन करती हैं। उल्लेखनीय है कि गलवान घाटी में उत्पन्न गतिरोध के बाद से चीन के साथ अब तक पंद्रह दौर की बैठकें हो चुकी हैं, लेकिन उनका कोई मतलब नहीं निकला।

भारत के सामने मीठी बातें और पीछे से वार करना इस देश की पुरानी नीति रही है। अगर चीन, भारत से वाकई अच्छे रिश्ते रखना चाहता है, तो सबसे पहले उसे अपनी कथनी और करनी का फर्क मिटाना होगा। भारत सरकार को इसे गंभीरता से लेते हुए सीमा विवाद के स्थायी हल हेतु ठोस पहल करना चाहिए।
इशरत अली कादरी, भोपाल</p>

खतरे की घंटी
‘बढ़ता खतरा’ पढ़ा। वैसे तो युद्ध का नाम ही खराब है, उस पर अगर बात परमाणु हथियारों की हो, तो और तस्वीर और भयावह हो जाती है। हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका का परमाणु बम से हमला कौन भूल पाएगा, जिसका जिक्र हमेशा होता है। आज हमारे सामने सबसे बड़ा खतरा परमाणु युद्ध का है, जिसे रोकने के प्रयास सभी को मिलजुल कर करने होंगे।
साजिद अली, इंदौर</p>

चुनावी पांसा

शेयर बाजार और रुपए में ऐतिहासिक गिरावट, थोक महंगाई इकतीस वर्षों के उच्चतम स्तर पर, पैगंबर विवाद से हुई अंतरराष्ट्रीय किरकिरी, सैकड़ों देसी वेबसाइटों पर सायबर हमला, बारह राज्यों में हुए दंगे-फसाद, कश्मीर में टारगेट किलिंग, देश कई हिस्सों में सूखते पेट्रोल पंप और कोरोना के बढ़ते मामले। लगता है, देश में कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा। ऐसे निराशा भरे माहौल में केंद्र सरकार डेढ़ साल में दस लाख सरकारी नौकरियां देने का ऐलान करती है। यह दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए कोई पांसा तो नहीं।
बृजेश माथुर, गाजियाबाद