अधिकतर देखा जाता है कि चुनाव आते ही राजनेताओं के हाव-भाव और बोलचाल में कुछ असामाजिक बर्ताव भी दिखने लगता है! नेताओं के कहने के बाद जनता उन्हीं शब्दों को अपने विचारों में शामिल कर लेती है, यह सोचे बिना कि ये बातें जो नेता जी ने कही हैं, वे उनके हित में हैं भी कि नहीं! अभी कुछ दिन पहले ही असदुद्दीन ओवैसी ने भाजपा पर हमला करते हुए कहा कि अभी इनको बचाने के लिए मोदी योगी की सरकार है, ये जब मठ और पहाड़ों में चले जाएंगे तो इन्हें कौन बचाने आएगा। इनको और इन्हें जैसे शब्दों का प्रयोग ओवैसी ने किस धर्म समुदाय के लिए किया यह तो सभी अच्छे से जानते हैं! औवेसी के शब्दों से साफ लगता है कि उन्होंने अपना भाषण भड़काऊ तौर पर पेश किया और वे देशवासियों को धर्म और जातिवाद के नाम पर लड़वाने की साजिश करना चाहते हैं!

उनके बिगड़े बोल देश के हित में नहीं हैं, क्योंकि देश को अब जातिवाद में नहीं, अपनी उन्नति और प्रगति की ओर ध्यान आकर्षित करने में रुचि है। ओवैसी जैसे जातिवादी नेताओं के कारण देश के युवा भ्रमित हो रहे हैं, यह किसी भी तरह सही नहीं। ऐसे हालत में चुनाव आयोग को राजनेताओं के प्रति अपने नियम तथा कानूनों को कठोर करना चाहिए, जिससे कि देशवासियों को नेताओं के बिगड़े रवैए से छुटकारा मिल सके।
’शुभम दुबे, इंदौर</p>

जातिवाद सर्वोपरि

हर राजनीतिक पार्टी अपनी रैलियों को संबोधित करते हुए बयानों की शुरुआत विकास के मुद्दे से करती है तथा समाप्ति जातिवाद के एजेंडे से ही करती है। भारतीय जनता पार्टी भी अपने कार्यकाल में किए हुए कुछ विकास कार्यों को काफी जोर-शोर से लोगों के बीच याद दिलाने के साथ ही साथ अपने कुछ मंत्रियों द्वारा लोगों पर किए गए अत्याचारों पर पर्दा डाल कर जातीय समीकरण की बात शुरू कर देती है। वहीं समाजवादी पार्टीे के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव तक मुसलिम समुदाय को अपने पक्ष में समर्थन पाने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन इस बार अखिलेश यादव ने पार्टी के पक्ष में हिंदू समुदाय को आकर्षित करने के लिए भी हर तरह की कोशिश कर रहे हैं।

पिछले दिनों रैलियों को संबोधित करने के दौरान अखिलेश यादव का एक बयान सामने आया, जिसमें वे बता रहे थे कि मेरी सरकार होती तो बहुत पहले राम मंदिर बन गया होता। लेकिन राम मंदिर के प्रति समाजवादी पार्टी का रवैया क्या रहा है, यह सबको पता है। इससे साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जातीय एजेंडे को लेकर हर तरह का समीकरण बनाया जा सकता है।

एक तरफ संविधान में देश को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहा जाता है, तो दूसरी तरफ देश को चलाने वाली राजनीतिक पार्टियां खुद को जातिवादी पार्टी बता रही हैं। इससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था से लोगों की उम्मीद टूट सकती है।
’मुकेश कुमार, मोतिहारी