पिछले कुछ दशकों में भारत के सकल कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी नहीं बढ़ी, बल्कि पहले से घटती जा रही है। 1990 के दशक में कुल श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी जहां 35 फीसद थी, वह आज घटकर 22.3 फीसद रह गई है। महिलाओं को उनकी गर्भावस्था के दौरान दिए जाने वाले अवकाश को ध्यान में रखकर भी कुछ नियोक्ता उन्हें नौकरियों में नियोजित नहीं करते हैं।

उन्हें कुछ खास तरह के व्यवसाय और नौकरियों के योग्य ही समझा जाता है। इसके अलावा महिलाओं के लिए समान रोजगार के समान अवसर मिलना तथा समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना भी एक अलग ही चुनौती है। इसके चलते वे मात्र घरेलू कामकाज तक ही सीमित होकर रह जाती हैं, जिससे उन्हें आर्थिक पक्ष में कोई भी स्वायत्तता नहीं मिल पाती है और इसी के चलते वे पैतृक संपत्ति में भी हिस्सेदारी नहीं प्राप्त कर पाती हैं। आखिर वे मात्र आश्रित के तौर पर ही जीवन व्यतीत करती हैं।

सामाजिक स्तर पर तो महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा खराब है, क्योंकि राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर उनकी स्थिति खराब होने का आधार भी सामाजिक स्तर से ही जन्म लेता है। समाज में एक महिला को जन्म से लेकर मृत्यु तक भ्रूण हत्या, बाल विवाह, पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथा से गुजरना पड़ता है। समाज की पितृसत्तात्मक सोच में उसे हमेशा एक जिम्मेदारी ही माना गया है, जहां वे प्रारंभ में पिता और भाई की जिम्मेदारी होती हैं तो उसके बाद उसके पति की। ऐसा लगता है कि उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है। इसके अतिरिक्त उसे परिवार की तथाकथित ‘इज्जत’ का ताज पहनकर उसके अधिकारों को और दबा दिया जाता है और उसे मात्र घर की चारदिवारी तक ही सीमित कर दिया जाता है।

ये तो मात्र कुछ समस्याएं हैं, इसके अतिरिक्त उन्हें अभी भी अनेक समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। मुद्दे की बात यह है कि ज्यादातर महिलाओं के अधिकारों की बात कुछ महानगरीय जीवन तक ही सीमित होकर रह जाती है। उस ग्रामीण परिदृश्य तक पहुंच भी नहीं पा रही है, जहां महिलाओं को इससे भी दुरूह जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। चूंकि महानगरीय समाज में महिलाओं की पहुंच शिक्षा तक अब आसान हो गई है, लेकिन आज भी ग्रामीण समाज में महिलाएं पर्याप्त शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रही है। इसके चलते वे अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहती हैं और उनकी मांग तक भी नहीं कर पाती है।

हालांकि महिला शक्ति संपन्नीकरण की जितनी चुनौतियां हैं, संभावनाएं भी उतनी ही ज्यादा है, क्योंकि पिछले 100 वर्षों और वर्तमान की महिलाओं की स्थिति की तुलना करें तो कुछ सकारात्मक मूलभूत बदलाव जरूर आए हैं और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की दीवारें भी हिली हैं। मगर यह बदलाव संतोषजनक नहीं है। इसके लिए हमें समाज में बारीकियों को समझते हुए सामाजिक विचारों को आज के समाज और उसकी जरूरतों की ओर मोड़ना होगा, जिससे आधी आबादी अपने पर्याप्त अधिकार प्राप्त कर सके और राष्ट्र के विकास में अपनी पर्याप्त भागीदारी दे सके। इसके लिए हमें ऊर्ध्वगामी और अधोगामी, दोनों ही माध्यमों से सुधार के प्रयास करना आवश्यक है।
स्वदेश कुमार, दिल्ली विवि, दिल्ली

पौधरोपण का दायरा

प्रदूषण और महामारियों जैसी आधुनिक चुनौतियों का समाधान पौधरोपण में निहित है। औषधीय पौधे का आर्युवेद में काफी महत्त्व है, जिनसे कई तरह की बीमारियों और महामारियों पर अंकुश लगाया जा सकता है। साथ ही कई पौधे हमें वृक्ष के रूप में आक्सीजन देकर पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। नासा के वैज्ञानिकों ने पिछले वर्षो के वैश्विक तापमान का मासिक विश्लेषण भी किया। इसके मुताबिक, मौसमों में ज्यादा बदलाव, यानी अधिक गर्मी के करीब पहुंचना चिंतनीय सवाल खड़े करता है। क्या मौसम के निर्धारित माह अपने वक्त को आगे बढ़ा रहे हैं?

पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि पर्यावरण मे बदलाव का बुरा असर लकड़ी पर भी हो रहा है। उसकी प्रकृति बदल रही है और उससे बनने वाले वाद्ययंत्रों में वह मधुर स्वर नहीं आ पाएंगे, जो पहले आते थे। यह एक चिंता का विषय है। पर्यावरण में बदलाव को सुधारने के लिए कारगर कदम उठाना होगा। इसलिए वृक्षारोपण ज्यादा से ज्यादा करने की जरूरत है और इसके साथ ही हरे-भरे वृक्षों को कटने नहीं देने की व्यवस्था करनी होगी। इससे प्रकृति को बचाने में तो सहायता मिलेगी है, आम जनजीवन में सुरक्षा सुनिश्चित होगी। वाद्ययंत्रों मे फिर से मधुर स्वर आ सकेगा और ऋतु चक्र सही हो सकेगा।

दरअसल, पृथ्वी को बचाने के लिए कुछ तो हमें करना होगा। पूर्व के वर्षो में जलवायु पर हुए डरबन अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के संबंध मे किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुच पाने से जनाक्रोश भी उभर कर सामने आया था। एक अध्ययन के अनुसार सन 2030 के अंत तक गाज उष्ण कटिबंधीय देशीय (ट्रापिकल) जंगलों पर गिरेगी जो कि पर्यावरण के हिसाब से गंभीर एवं चिंतनीय पहलू है।

जंगल काटने से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन, अधिक मौसम परिवर्तन और सबके लिए कम संपन्नता ही प्राप्त होगी। यह सर्वविदित है की वृक्षों से ताप का नियंत्रण होता और वायु मंडल की विषाक्तता भी कम होती है। जितने अधिक वृक्ष होंगे, वातावरण उतना ही शुद्ध एवं स्वच्छ होगा। वृक्षों के होने से वन्य प्राणियों की जीवन सुखद होगा। भविष्य मे हरित क्रांति को विलुप्त होने से बचाने के लिए वर्षा ऋतु के समय और आम दिनों में भी पौधरोपण का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए।
संजय वर्मा ‘दृष्टि’, धार, मप्र

हंगामे का सदन

भारतीय संसद में निरंतर चलने वाले गतिरोध-अवरोध और सांसदों के निलंबन के बावजूद कोई सर्वसम्मत रास्ता नहीं निकल पा रहा है। हंगामा, धरने और विरोध प्रदर्शन भी देखे जा रहे हैं, लेकिन कोई समाधान नहीं निकल रहा है। यह देश के अकूत समय और जनता के धन की बर्बादी है। हर कोई चाहता है कि इस निरर्थक बर्बादी पर अंकुश लगे, समय और धन का सदुपयोग किया जाए और संसद की कार्यप्रणाली व्यवस्थित हो सके। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री को स्वयं सद्भाव की मिसाल कायम करते हुए आगे बढ़कर संसद की कार्यवाही में अपनी मौजूदगी दर्ज करानी चाहिए।
इशरत अली कादरी, खानूगांव, भोपाल</p>