जिन्हें समाज सुधार का आंदोलन चलाना हो वे अर्णवजी की शरण आएं। जिनको ऊंची बौद्धिक गप मारनी हो, वे एनडीटीवी की निधिजी को देखें और जिनको फ्रांसीसी राजदूत से फ्रांस की नीति पर चर्चा करनी हो वे करण थापर के इंडिया टीवी को देखें। बाकी बचे एबीपी में पूरे दिन बैठे वक्ताओं-प्रवक्ताओं और अधिवक्ताओं की शरण में जाएं, जहां आपको उमाजी का गंगा सफाई अभियान दिखाई देगा। फिर आप ‘देश का मूड’ देखें, जिसमें मोदीजी अब तक पापुलरिटी में सबसे आगे क्यों हैं और राहुल क्यों उनसे अब भी मीलों पीछे हैं का जवाब मिलेगा।
शनिवार का दिन। शनिदेव का दिन। शनि की पूजा का दिन और शनि की पूजा के अधिकार के लिए आंदोलन का दिन! महिलाएं भी बराबर की पूजा करें, इसकी पुकार का दिन। टाइम्स नाउ ने यह पहले ही बता दिया था कि इस शनिवार के दिन सचमुच शनि की पूजा के लिए जंग होगी, जो लाइव कवर की जाएगी!

शिंगणापुर के शनि महाराज के पूरे दिन के लाइव कवरेज को देखें: एक लड़की अचानक सीढ़ियां चढ़ कर जाती है, शनि भगवान की पूजा करती है और तुरंत उतर आती है। उसके बाद मंदिर में हाय-तौबा मच जाती है। तृप्ति देसाई जैसी नई स्त्रीवादी नायिकाएं इसी तरह बनती हैं।
तीन दिन तक सिर्फ भूमाता रंग रागिनी आंदोलन की चर्चा है। पूजा के बराबर के अधिकार की मांग की चर्चा है और जो चुप हैं उनकी ओर इशारे हैं कि सब दल क्यों चुप हैं? बोलते क्यों नहीं? टाइम्स नाउ उकसा-उकसा कर आंदोलन का पक्ष बनाता है। बाकी चैनल गणतंत्र दिवस की झांकियों में उलझे हैं। कोई ब्रह्मोस की खूबियों और रफाल जहाज की विशेषताओं की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई परेड की भव्यता की चर्चा कर रहा है, लेकिन टाइम्स नाउ लगा हुआ है शिंगणापुर के शिन मंदिर पर। समाज सुधार की ऐसी लहर चली कि सनातन संस्था वाले सज्जन से लेकर राहुल ईश्वर तक सबकी खबर ली गई और स्त्रीत्ववाद की विजय हुई।

इस बीच तमिलनाडु से मेडिकल की तीन छात्राओं की डूब कर आत्महत्या करने की खबर आई है और एक सिहरन-सी फैल गई है। एबीपी, जी न्यूज से लेकर एनडीटीवी तक आत्महत्या करने वाली मेडिकल की तीन छात्राओं की तस्वीरें दिखा कर मेडिकल कॉलेज के धनलोलुप होने की आलोचना कर रहे हैं, लेकिन उधर तृप्ति देसाई बस में बैठ कर पांच सौ औरतों के साथ शिंगणापुर कूच कर चुकी हैं और वहां से साठ किलो मीटर दूर रोक दी गई हैं। वे सड़क पर लेट गई हैं और नारे लगा रहीं हैं। मंदिर वाले कह रहे हैं कि हमने सुरक्षा के इंतजाम कर लिए हैं। पुलिस बैरीकेडों पर खड़ी है, पूजा चल रही है, हम देख रहे हैं, ट्वीटों की संख्या बढ़ रही है। आंदोलनों को लाइव बनते देख आंदोलन बनाने की पे्ररणा मिलती है। जितने आंदोलन उतना लाइव कवरेज और उतनी ही टीआरपी! शनिजी की टीआरपी ऊंची है।

अगले रोज आंदोलन की खबर बाकी चैनलों पर जगह पाती है, लेकिन टाइम्स नाउ के अपने ‘इंपैक्ट’ की जय-जयकार कर अपने मुह मियां मिट््ठू बनता रहता है कि देखा हमारा रुतबा, हमारा असर कि हमने अभियान कवर किया और हमारे दबाव में सीएम को तृप्ति से मिलने आना पड़ा और कहना पड़ा कि मंदिर के लोग संवाद करके हल निकालें!

खबर की बीट पर ट्वीट भारी है। ट्वीट की पीठ पर खबर की सवारी है। हर चैनल खबर के बरक्स ट्वीट को महत्त्व देता लगता है। पूजा अधिकार आंदोलन को ट्वीट परिभाषित कर रहे हैं। पूजा के अधिकार को लेकर शाम के पांच बज कर पचास मिनट पर कुल दो हजार छह सौ अठहत्तर ट्वीट, छह बज कर पांच मिनट पर तीन हजार आठ सौ तिहत्तर। सात बज कर पैंतीस मिनट पर चार हजार दो सौ पांच, जबकि रात तक आठ हजार दो सौ इक्यावन हो गए!

गणतंत्र दिवस और उसमें भी ओलांद जैसे मेहमान और उसमें भी डिजिटल इंडिया की झांकी कि मोबाइल तख्ती के बराबर और टैबलेट श्यामपट््ट के बराबर! यही अमेजिंग इंडिया है: एक ओर डिजिटल इंडिया की झांकी जा रही है, दूसरी और तृप्ति देसाई को शनिदेव की बराबरी की पूजा नहीं करने दी जा रही!

राजनीति की इतनी अति है कि पद्म पुरस्कारों तक को राजनीति में घसीट लिया गया। किसी मुद्दे का राजनीतिकरण किए जाने के बाद उसका गैर-राजनीतिकरण कैसे किया जाए? ऐसा नुस्खा बना ही नहीं। ये पद्म पुरस्कार भी राजनीति में रगड़े गए। शुरुआत कांग्रेस के केसवन ने की कि कुछ ऐसे नामों को दिया गया है, जो सत्ता दल के पक्ष के हैं। इससे उनकी चमक फीकी पड़ जाती है, तिस पर आरती जे जैरथ ने सही कहा कि हर मुद्दे पर राजनीति करना जरूरी नहीं! शेखर गुप्ता ने कहा कि जिनका आॅफीशियल स्टेटस पहले ही बड़ा है, उनको नहीं दिया जाना चाहिए। एक बार मुझसे भी पूछा गया था कि ऐतराज तो नहीं। पद्म सम्मान में मिलता कुछ नहीं है। सम्मान देने की पुरानी परंपरा है, जो दरबार काल से चली आ रही है।

एक बड़ी बहस अरुणाचल प्रदेश में जनतंत्र की हत्या नाम से चली। हर चैनल पर एक न एक कानूनी प्रवक्ता रहे और दलीय प्रवक्ता रहे। भाजपा के सुधांशु त्रिवेदी भारी मांग में रहे। वे टाइम्स नाउ की लाइव बहस में रहे और एनडीटीवी की बहस में भी रहे। वकील केटीएस तुलसी भी दोनों में रहे। सारी बहसों का सार इतना-सा था कि सीमांत के इस राज्य के साथ छेड़छाड़ ठीक नहीं है।

एनडीटीवी पर इतिहासकार रामचंद्र गुहा सुभाषचंद्र बोस और नेहरू के बीच के रिश्तों को समझाने के लिए आए तो मालूम हुआ कि वह टिप्पणी किसी छद्म स्टेनो की है, जिसमें बोस को नेहरू ने ‘वार क्रिमिनल’ कहा है यानी उसकी टिप्पणी यकीन करने योग्य नहीं है! गुहा ने बताया कि नेहरू और बोस के बीच सन उन्नीस सौ तीस से मतभेद पनपने लगे थे, लेकिन दोनों एक-दूसरे की बहुत इज्जत करते थे। फासिज्म को लेकर दोनों में मतभेद बढ़े। नेहरू हिटलर से बात करने तक के पक्ष में नहीं थे, जबकि बोस मानते थे कि दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त हो सकता है। एक अच्छी बातचीत थी यह।
लीजिए कूड़े पर कबड्डी शुरू! एनडीटीवी ने बताया कि दिल्ली में आप सरकार के एक मंत्री के घर पर किसी कूड़ा कर्मचारी ने कूड़ा डाल कर कूड़ा राजनीति की शुरुआत कर दी है।
झाडू है तो कूड़ा होगा ही!