ओम प्रकाश
भारत में अप्रैल महीने की शुरुआत से कोविड-19 (Coronavirus) महामारी का संक्रमण अकस्मात क्यों बढ़ रहा है? क्या लोगों का शारीरिक बल घटा है? इस प्रश्न पर आयुर्वेद के सिद्धान्तों की दृष्टि से चर्चा करने से भी इस महामारी की घातकता से बचाव में सहायता मिल सकती है। जनसामान्य के लम्बे अनुभव से उपजी एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है- रोकथाम उपचार से बेहतर है। अभी चल रही कोविड-19 की महामारी के सन्दर्भ में यह कहावत बहुत ही सार्थक है। भारत जैसे विशाल देश में दीर्घकाल से आयुर्वेद पद्धति द्वारा जन-जन को लाभ हुआ है, भले ही प्रत्येक व्यक्ति को उसके मूलभूत सिद्धान्तों का पता न रहा हो।
स्वस्थ रहने के लिये आयुर्वेद की परम्परा ने एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया है- हितभुक्-मितभुक्-ऋतभुक्। इसका अर्थ है- हितकारी पदार्थों का सेवन करें, जितना आवश्यक हो उतनी सीमित मात्रा में लें तथा ऋतु के अनुसार ग्रहण करें। अभी चल रही महामारी में भी काढों व अन्य हितकारी पदार्थों के सेवन से अनेकों व्यक्तियों ने लाभ प्राप्त किया है किन्तु और अधिक विकट होती परिस्थितियों में ऋतुचर्या के बारे में जानना व उसका पालन करना आवश्यक है। इसलिये इसके मूलभूत सिद्धान्त के बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
आयुर्वेद के दो प्रमुख उद्देश्य चरक, सुश्रुत जैसे आचार्यों ने स्पष्ट रूप से बताये हैं- “प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम् आतुरस्य विकारप्रशमनं च” अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा रोग से युक्त व्यक्ति के रोग को दूर करना। स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु आयुर्वेद के ज्ञान को उपयोग में लाने के अनेक महत्त्वपूर्ण प्रयास अनेक स्तरों पर किये गये हैं।
अभी इस महामारी से भारत में अचानक से जो अधिक घातक स्थिति उपजी है उसके कारणों में प्रमुख कारण इसके कारक विषाणु (वायरस) में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) होना माना जा रहा है। इसके साथ दूसरा पक्ष व्यक्तियों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) कम होने से सम्बन्धित है। जिसके शरीर की यह क्षमता जिस समय जितनी कम है वह उतना ही इस विषाणु के प्रति अधिक संवेदनशील है। आधुनिक विज्ञान व ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के कई शोधों में भी ऋतुओं व रोग प्रतिरोधक क्षमता का महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध देखा गया है।
अभी भी कई शोधकर्ता इस दिशा में और अधिक गहराई से जानने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन प्रयोगों व प्रेक्षणों से प्राप्त तथ्य आयुर्वेद के ग्रन्थों में बताये गये सिद्धान्तों का समर्थन करते प्रतीत होते हैं जो पृथक रूप से विस्तृत चर्चा का विषय है। भारत में शीतकाल में रोगियों की संख्या घट गई थी, वह बाद में अचानक से कैसे बढ गई? क्या अभी मार्च-अप्रैल महीने से अधिक लोगों की यह रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो गई है? आयुर्वेद की दृष्टि से हां, ऐसा है। कैसे?
आयुर्वेद के अनुसार पूरे वर्ष के बारह महीनों (चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष/अग्रहायण, माष, पौष, माघ, फाल्गुन) में छः ऋतुएँ (प्रत्येक 2-2 महीने की) हैं- शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त। ये ऋतुएं पृथ्वी के उत्तरी भाग व दक्षिणी भाग में सूर्य की किरणों की समयावधि व तीव्रता के आधार पर बनती हैं जिसे क्रमशः उत्तरायण व दक्षिणायन कहते हैं।
आयुर्वेद उत्तरायण को आदान काल तथा दक्षिणायन को विसर्ग काल कहता है। आदान काल में सूर्य की किरणों की पृथ्वी के उत्तरी भाग में अधिक समयावधि बढते जाने के कारण वातावरण में नमी कम होकर रूखापन बढता जाता है। यह शिशिर ऋतु से प्रारम्भ होकर ग्रीष्म ऋतु तक प्रभावी होता जाता है। दूसरी ओर दक्षिणायन जो वर्षा से हेमन्त ऋतु तक होता है उसमें वायु में नमी रहती है।
वातावरण में वायु की शुष्कता बढने व नमी कम होने से शरीर के बल (स्वाभाविक रोगप्रतिरोधक क्षमता) पर क्या प्रभाव पडता है? आचार्य चरक के अनुसार आदान काल (शिशिर से ग्रीष्म तक) में शरीर का बल कम होता है तथा विसर्ग काल (वर्षा से हेमन्त तक) में शरीर का बल बढता जाता है। इस प्रकार हेमन्त के अन्त में तथा शिशिर के प्रारम्भ में शारीरिक रोगप्रतिरोधक क्षमता अधिकतम होती है और शिशिर के अन्त में व वसन्त के समय यह बल मध्यम होता है।
ग्रीष्म ऋतु के अन्त व वर्षा के प्रारम्भ में रोग-प्रतिरोधक क्षमता न्यूनतम होती है। इसके बाद शरद व हेमन्त में यह क्षमता क्रमशः बढ़ती है। उसके बाद पुनः कम होना प्रारम्भ होता है। इस प्रकार ऋतुचक्र के अनुसार शरीर के स्वाभाविक बल का भी चक्र चलता है।
चैत्र मास (इस बार अप्रैल महीना) से वसन्त ऋतु का प्रारम्भ होता है। इस ऋतु में सूर्य की किरणें तेज हो जाने से शरीर से कफ पिघलता है जिससे पाचन अग्नि कमजोर हो जाती है तथा भूख कम होने लगती है तथा अनेक प्रकार के रोग होने लगते हैं। इस समय मधुर (मीठे), अम्लीय (खट्टे), स्निग्ध (चिकने), गुरु (पचने में भारी) व शीत (ठण्डे) पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिये तथा दिन में नहीं सोना चाहिये।
गेहूं व जौ से बने उत्पादों का उपयोग करना चाहिए। गर्म पानी से गरारे करने चाहिए, वमन (उल्टी – किसी वैद्य के परामर्श से करें), नास्य (नाक में तिल या नारियल का तेल या घी सुबह-शाम डालना) इत्यादि क्रियायें करनी चाहिए। अभी घर बैठकर ही कार्य करने की स्थिति से घरों में अधिक समय बिताने के कारण लोग सामान्यतः दिन में भी सो जाते हैं तथा ठण्डी चीजों का उपयोग भी कर लेते हैं, जो इस ऋतु के विपरीत आचरण है तथा कफ बढ़ाता है।
कोविड-19 कफ व श्वसन सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करता है इसलिये ऐसे लक्षण बढने से लोगों के मन में भय व आशंकाएं बढ़ जाती हैं। इससे मानसिक रूप से भी अस्त-व्यस्तता बढ जाती है। इसलिये अभी ऋतु के अनुसार सावधानियाँ रखना और भी आवश्यक हो गया है। वसन्त के बाद ग्रीष्म (गर्मी) ऋतु (जून-जुलाई) में सूर्य की किरणों की तीव्रता व समय अवधि और अधिक हो जाती है। इससे शरीर में निर्जलीकरण (डिहाइड्रेशन) बढ जाता है तथा मधुर, अम्ल व लवणीय रसों की कमी होने लगती है। इससे शरीर का बल और भी कम हो जाता है। इससे बचने के लिये शरीर में मधुर रस को बढाने वाले पदार्थ, शीतलता देने वाले पदार्थ, तरल पदार्थ तथा चिकनाई वाले पदार्थों का सेवन करना चाहिये।
खट्टे, कड़वे, अधिक लवण (नमकीन) वाले तथा गर्म चीजों से परहेज करना चाहिए तथा अधिक व्यायाम नहीं करना चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में दिन में सोना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक नहीं होता। इस ऋतु में शरीर की स्वाभाविक रोग-प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम होने से कोविड-19 के संक्रमण के और अधिक बढने की भी सम्भावना बनती है। हेमन्त व शिशिर ऋतुओं में टीकाकरण होना असम्भव रहा, लेकिन हो चुका होता तो शरीर प्रतिरोधकता बहुत अच्छी प्राप्त करता क्योंकि उस समय शरीर में स्वाभाविक शक्ति अधिक रहती है।
अभी भी शीघ्र ही सभी का टीकाकरण हो जायेगा तो उपार्जित रोगप्रतिरोधक क्षमता जुड़ जायेगी जो इसके संक्रमण को कम करने में सहायक होगी। इतने से भी इस रोग के संक्रमण पर कम समय में पूर्ण रोक की सम्भावनाएं कम लग रही हैं। इसके लिए अनेक स्तरों पर रोकथाम के उपाय करने आवश्यक हैं। इन उपायों के अन्तर्गत ही शरीर की स्वाभाविक रोग-प्रतिरोधक क्षमता को अच्छी बनाये रखने के लिये ऋतुओं के अनुसार अपने आहार-विहार को व्यवस्थित रखना बहुत आवश्यक है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)