सरकार और संविधान जैसी संस्थाएं इकबाल से चलती हैं। इन संस्थाओं का इकबाल बुलंद होना चाहिए। हर घर-परिवार के लिए स्कूल वह पहली संस्था होती है जिसके प्रति उसे पूरा भरोसा होता है। अभिभावकों को उम्मीद रहती है कि स्कूल परिसर बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित है। वहां का शिक्षण-प्रशिक्षण उन्हें एक बेहतर नागरिक बनाएगा। पिछले कई अरसे से स्कूल परिसरों से ऐसी खबरें और दृश्य आ रहे हैं जो हमें विचलित कर देते हैं। उत्तर प्रदेश के एक निजी स्कूल से जिस तरह का वीडियो आया वह हम सबके लिए संभलने का वक्त है। शिक्षिका के निर्देश पर बच्चे अपने सहपाठी को थप्पड़ जड़ते हैं। वीडियो वायरल होने के बाद सत्ता पक्ष के नेता शिक्षिका के समर्थन में आ जाते हैं। स्थानीय नेता पीड़ित बच्चों को मीडिया के सामने गले लगवाते हैं। वे थाने में दर्ज प्राथमिकी को हटवाने की बात कह नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हैं। स्कूल के वीडियो के जरिए संक्रमण की शिकार संस्थाओं पर बेबाक बोल के सवाल।

जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया
बच्चों के स्कूल में शायद तुमसे मिली नहीं है दुनिया

-निदा फाजली
सुबह-सुबह हर मोहल्ले-सोसायटी के बाहर की तस्वीर। कोई बच्चा अपने पिता के पांव पकड़ कर सुबक रहा है तो कोई बच्ची मां के कंधों पर सोई-सोई सी कह रही, आज स्कूल नहीं जाना। कोई खुशी में पूछ रहा कि आज मेरे लंच बाक्स में क्या दिया है तो कोई बता रहा है कि उसकी ‘टीचर मैम’ कितनी प्यारी है और स्कूल में घुसते ही कितने अच्छे से ‘विश’ करती हैं।

ऐसे दृश्यों में मां-बाप के चेहरों पर कोई शिकन नहीं है। उनके लिए तो स्कूल जाता बच्चा सबसे खुश और सुरक्षित है। अवकाश के दिनों के अलावा स्कूल के लिए बच्चों का निकलना इस बात का संदेश है कि घर में सब कुछ ठीक है। स्कूलों से उम्मीद की जाती है कि वे इस दुनिया की सबसे प्यारी और भरोसेमंद जगह बने। स्कूलों को लेकर निदा फाजली जो भरोसा जताते हैं हर अभिभावक चाहता है कि वह भरोसा कायम रहे।

हर अभिभावक के लिए स्कूल सुरक्षित जगह माना जाता है

स्कूल शिक्षक किसी बच्चे के लिए इस दुनिया में पहली आधिकारिक शक्ति होता है। सही-गलत की आधिकारिक समझ वहीं से मिलती है। जो चीज आपने स्कूल में एक बार सीख ली उसे ताउम्र नहीं भूलते हैं। बच्चा इसी स्कूल में सबसे पहले 15 अगस्त, 26 जनवरी को तिरंगा फहराते शिक्षक को देखता है। इन अवसरों पर अपने शिक्षकों का भाषण उसके लिए किसी राष्ट्र-प्रमुख के भाषण से कम नहीं होता। कोई स्कूल, वहां का प्रमुख बच्चे को देश के लिए तैयार कर रहा होता है।

ऐसे ही स्कूल से एक वीडियो आता है। शिक्षिका बच्चे को उसके सहपाठी से थप्पड़ लगवाती है। इस वीडियो पर घर-परिवार से लेकर सरकार तक को आपत्ति करने के लिए यही एक बहुत बड़ी वजह थी कि एक बच्चे को दूसरे बच्चों से पिटवाया जा रहा है। यहां एक और वजह भी थी कि वीडियो में दिख रहे थप्पड़ खाने वाले और थप्पड़ लगाने वाले बच्चों का धर्म अलग था।

मारने वाले बच्चों की अब आगे मानसिकता क्या होगी?

एक अभिभावक के तौर पर सोचिए। जिन बच्चों ने अपने सहपाठी पर थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया उनकी आगे की मानसिकता क्या होगी। थप्पड़ मारना उनके लिए स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा हो जाएगा अगर सामने वाला उनके जाति, धर्म से अलग मामला हो। और, जिस बच्चे की गालों पर थप्पड़ लगा? सोचिए उसके मन में स्कूल परिसर, अपने शिक्षक और खास धर्म के सहपाठियों के लिए कितनी नफरत पैदा होगी।

जिले के दबंग नेता कहते हैं- स्कूल टीचर पर दर्ज रिपोर्ट खत्म करा देंगे

बच्चे के अवचेतन मन में बैठी इस नफरत का मरहम एक ही चीज के पास था, कानून और संविधान। लेकिन, जिले के दबंग नेता पूरे मीडिया के कैमरों के सामने दोनों बच्चों को गले लगवाते हुए दावा करते हैं कि मामला खत्म हो गया। प्राथमिकी के बाबत सवालों पर कहते हैं कि इस जिले में हमारी इतनी भी न चलेगी क्या (मतलब प्राथमिकी रद्द हो जाएगी)।

फैक्ट फाइंडिंग वेबसाइट के सहसंस्थापक पर केस दर्ज

स्कूल के इस मामले में सभी संस्थाओं का ढहना दिख रहा है। शिक्षिका तृप्ता त्यागी के इस असंवैधानिक कृत्य का वीडियो वायरल होने के बाद खबरों के तथ्य जांचने वाली वेबसाइट के सह-संस्थापक पर मुकदमा दर्ज किया गया कि उसने इस मामले में बच्चे की पहचान उजागर की, जबकि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के आपत्ति जताने पर उसने ‘एक्स’ की पोस्ट डिलीट कर दी थी।

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) का दोहरा रवैया

अब एक और वीडियो वायरल होता है। उस किसान नेता के वीडियो से किसी तरह की एजंसी को कोई आपत्ति नहीं है, जिसमें दोनों बच्चों को गले मिला कर माहौल ठीक करने की वाहवाही लूटी जा रही है। पीड़ित बच्चों के जरिए स्थानीय नेता अपना वीडियो वायरल करने का जुगाड़ कर बैठे। उस वीडियो को देख कर कोई भी समझ सकता है कि इसमें थप्पड़ खाने वाला बच्चा कौन है और थप्पड़ मारने वाला बच्चा कौन है। कैमरे के सामने दोनों बच्चों के चेहरों की असहजता शायद बाल संरक्षण के दायरे में नहीं आई होगी।

बच्चे को न्याय दिलाने वाली प्राथमिकी को रद्द करवाने का जज्बा दिखाने वाली बात भी हर तरह की एजंसी के कान ने सुने ही होंगे। फिर भी उस नेता की तरफ से हर तरह की एजंसी का मुंह फेर लेना क्या संदेश देता है? वहां पर पीड़ित बच्चों की पहचान उजागर होने, उस वीडियो के वायरल होने से एजंसी को कोई दिक्कत नहीं है तो हम सभी को एजंसी की इस कार्यप्रणाली से दिक्कत होनी चाहिए। पीड़ित बच्चों का इस तरह का इस्तेमाल क्यों किया गया जो संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ जाता है।

बात करते हैं वीडियो की। ऐसे वीडियो की जरूरत ही नहीं पड़ती अगर तृप्ता त्यागी ने शिक्षण-प्रशिक्षण के बुनियादी सिद्धांत को समझा होता। सोचिए, जब वीडियो वायरल होने के बाद सत्ता पक्ष से जुड़े नेता उसके समर्थन में हैं, किसान नेता मामला रफा-दफा करवाने की कोशिश में हैं तो वह वीडियो सामने नहीं आता तो क्या होता? ऐसे और कितने मामले रोज होते होंगे जिससे किसी को भी दिक्कत नहीं होती होगी।

मणिपुर की घटना का वीडियो आने पर ही टूटी थी नेताओं की चुप्पी

कुछ समय पहले एक वीडियो मणिपुर से भी आया था। वीडियो आने के पहले वहां जातीय हिंसा में यौन उत्पीड़न की खबरें आ रही थीं। लेकिन, यौन उत्पीड़न की खबरों से दिल्ली में बैठे साहित्यकारों और सोशल मीडिया आंदोलनकारियों को कोई फर्क नहीं पड़ा। खबरें कौन पढ़ता है? तो सब विभिन्न कार्यक्रमों में कालजयी साहित्यकारों के साथ अपनी-अपनी सेल्फी में खुश थे। तभी मणिपुर के वीडियो पर दिल्ली केंद्रित वर्ग सुबकने लगा। वीडियो के बाद ही सरकार की चुप्पी भी टूटी और विपक्ष संसद में अविश्वास प्रस्ताव तक लेकर आया।

कहते हैं कि सरकार का इकबाल बुलंद होना चाहिए। संविधान का इकबाल बना रहना चाहिए। लेकिन, ये दोनों संस्थाएं तभी बचेंगी जब स्कूलों का इकबाल बचा रहे। स्कूल ऐसी संस्था हो, जहां किसी भी तरह के भेदभाव और हिंसा के बिना सबको बराबर शिक्षा दी जाए। उच्च कक्षाओं की स्कूली किताबों के पहले पन्ने पर संविधान की प्रस्तावना छपी होती है। यह प्रस्तावना हर बच्चे को आश्वस्त करती है कि एक बेहतर नागरिक बनने और जीवन में आगे बढ़ने में उसका धर्म, जाति, लैंगिक स्थिति आड़े नहीं आएंगे। स्कूल में उसके साथ कोई असंवैधानिक व्यवहार नहीं होगा।

तृप्ता त्यागी जैसी शिक्षक ने संविधान की प्रस्तावना पढ़ी और समझी होती तो ऐसी हरकत ही नहीं करती। गलती किसी से भी हो सकती है जो अपराध की श्रेणी तक जा सकती है। लेकिन, तृप्ता त्यागी ने जिस तरह अपने किए पर पछतावे से इनकार किया वह और भी ज्यादा खतरनाक है। जिस व्यक्ति की संविधान में ही आस्था नहीं है वह उन किताबों को कैसे पढ़ाएगी जो संविधान का आदर करना सिखाती है। इन दिनों संविधान के बुनियादी आधार पर बहुत बहस हुई है। संविधान की बुनियादी संरचना जिस पहली जगह से शुरू होती है वह स्कूल है।

छोटे शहरों और दूरदराज के स्कूलों पर कोई नीति नहीं काम करती

केंद्र सरकार अपनी नई शिक्षा-नीति के प्रचार-प्रसार में व्यस्त है। लेकिन, क्या उसे यह देखने की फुर्सत है कि दिल्ली व अन्य संपन्न इलाकों से दूर स्कूलों में किस नीति के तहत शिक्षा दी जा रही है? स्कूल के शिक्षकों का नैतिक और मानसिक स्तर कैसा है, इसे जांचने-परखने की कोई प्रणाली तैयार की है?

इस मुद्दे को सिर्फ धर्म के कोण से देखना भी एक संकीर्णता होगी। सोशल मीडिया पर तृप्ता त्यागी के समर्थक कह रहे कि हमने भी स्कूलों में मार खाई थी। स्कूल में पिटाई खाने वाले बच्चे अच्छे बनते हैं। वाकई? ऐसी अविकसित सोच वालों को शिक्षा का सही अर्थ पता ही नहीं है। अगर इसका समर्थन कर रहे हैं तो वे वकील, पत्रकार, शिक्षक जो भी बने हों ऐसी गलत शिक्षा उन्हें अच्छा नागरिक तो नहीं बना पाई।

अब ऐसे कोई भी दृश्य शायद समाज को विचलित नहीं करते हैं

मणिपुर से लेकर उत्तर प्रदेश। आए दिन हमारे पास ऐसे वीडियो आ रहे हैं जो मनुष्यता के पतन का नया अध्याय लिख रहे हैं। पतन के ये दृश्य इतने भयावह हैं जिनकी व्याख्या शब्दों के जरिए मुश्किल होती जा रही है। मणिपुर का यौन उत्पीड़न हो या शिक्षक द्वारा बच्चे का उत्पीड़न। इनके साथ अब अस्वीकरण भी नहीं होता कि दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं। आए दिन सामने आ रही ऐसी घटनाओं के बाद प्रतिक्रिया के खंड में यह लिखना उबाऊ लगने लगा है कि हम शर्मिंदा है। अब शर्म ही सत्य है।