क्या सत्ता पक्ष का हिस्सा बन कर ही सांसद व विधायक अपने क्षेत्रों में काम कर सकते हैं? भारत के लोकतंत्र में विपक्ष का वजूद खारिज करने की कवायद कहां तक जाएगी? लोकतंत्र को लेकर महाराष्ट्र से उठे सवालों पर चर्चा करता बेबाक बोल।
तेग-बाजी का शौक अपनी जगह
आप तो कत्ल-ए-आम कर रहे हैं
-जान एलिया
उद्धव ठाकरे ने इस्तीफा नहीं दिया होता तो महाराष्ट्र में उनकी सरकार को बहाल किया जा सकता था।
–सुप्रीम कोर्ट की पीठ
‘मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है। लेकिन, राजनीति में कुछ भी हमेशा जायज नहीं होता। राजनीति में आदर्शवाद अच्छा है, लेकिन अगर आप वहां से ही बाहर निकाल दिए गए तो फिर आपकी कौन परवाह करता है?’
–देवेंद्र फडणवीस, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साक्षात्कार में
2024 के लिए शुरू हुई लड़ाई में महाराष्ट्र बड़ी प्रयोगशाला बन चुका है। देश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले सूबे की अभी की राजनीति को समझने के लिए एकनाथ शिंदे और अजित पवार से पहले उद्धव ठाकरे और देवेंद्र फडणवीस की बात। एक वह समय था जब अजित पवार 77 घंटे के लिए महाराष्ट्र के नायक दिखे थे तो फिर लगा एकनाथ शिंदे नायक बन गए और अभी हम अजित पवार के पीछे के कथित चाणक्य की बात कर रहे हैं।
महाराष्ट्र की राजनीति बार-बार करवट बदल रही है
महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के बगावत करते ही उद्धव ठाकरे ने फेसबुक लाइव किया। जनता के सामने भावुक होते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और मुख्यमंत्री निवास भी छोड़ दिया। महाराष्ट्र से लेकर असम तक दौड़ते विधायकों के बीच उद्धव ठाकरे सबको नमस्कार कर चले गए। वहीं देवेंद्र फडणवीस उसी वक्त समझ चुके थे कि महाराष्ट्र की राजनीति अब बिलकुल बदल चुकी है। महाराष्ट्र के सशक्त मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहचान बना चुके फडणवीस ने एकनाथ शिंदे का मातहत होना स्वीकार किया और खामोशी से अपना काम करते रहे। बीच-बीच में ‘औरंगजेब की औलादें’ जैसा बयान देकर अपनी पिछली बनाई सौम्य छवि को समय के स्वादानुसार तोड़ते भी रहे।
राजनीतिक शुचिता के अध्याय में मुश्किल सवाल खड़े किए
यह संयोग है कि महाराष्ट्र में महा-उठापटक के वक्त फडणवीस एक अखबार के साक्षात्कार में वैसा सच बोलते हैं, जिसका साक्षात्कार वे बहुत पहले कर चुके थे। राजनीतिक मूल्यांकन के खाते में आने के लिए आपका राजनीति में बचे रहना जरूरी है। पिछले चार साल में महाराष्ट्र की राजनीति में जितनी तेजी और आसानी से तख्तापलट हुआ है, उसने राजनीतिक शुचिता के अध्याय में उतने ही मुश्किल सवाल खड़े किए हैं।
इन सवालों के साथ छगन भुजबल के बयान आगे भी नत्थी किए जाते रहेंगे। शिंदे-फडणवीस सरकार में शामिल होने के बाद भुजबल ने कहा-लोग कहेंगे कि हमारे खिलाफ जांच एजंसियों के मामले हैं, इसलिए साथ आए, लेकिन कई विधायकों के खिलाफ कोई मामला नहीं है, वे भी साथ आए हैं।
प्रवर्तन निदेशालय से लेकर अन्य जांच एजंसियों के मुख्यालयों तक भी भुजबल के इस बयान की गूंज गई होगी। भुजबल साफगोई से कहते हैं-कई विधायकों के खिलाफ कोई मामला नहीं है…वे भी साथ आए हैं…जांच एजंसियों के मुख्यालय से कुछ समय बाद सवाल तो पूछे जाएंगे कि जो भ्रष्टाचार के आरोप वाले आए थे, उनका क्या हुआ? आगे पूछे जाने वाले इस सवाल का जवाब भुजबल दे चुके हैं। जांच एजंसियों की कलम में विपक्षी नेताओं के खिलाफ मामला दर्ज करते-करते सरकार के पक्ष में आने वालों के लिए शायद स्याही ही न बची रहे तो इसे कलम का कसूर तो नहीं कह सकते हैं।
हां, राजनीति की इतनी अति पर एक अतिरेकी सवाल। जब सत्तर हजार करोड़ वाले परिवारवादियों से भी कोई समस्या नहीं तो कल को वे जमाई जिनकी कमाई के ही सवाल उठा कर तख्ता-पलट हो गया था, भी आपके पास आ जाएंगे तो धुल-धुला के साफ हो जाएंगे? परिवारवाद और भ्रष्टाचार की पर्ची क्या सिर्फ विपक्ष के माथे पर चस्पा करने के लिए है?
पिछले दिनों शरद पवार ने राकांपा की अगुआई छोड़ने का एलान किया। हालांकि तकनीकी रूप से उन्होंने छोड़ी नहीं और बाद में अपनी बेटी को ही विरासत सौंपी। शरद पवार का राजनीतिक इतिहास रहा है कांग्रेस को छोड़ कर फिर उसमें शामिल होने का। उनका मंत्र रहा है कि सत्ता में शीर्ष को छोड़ कर कुछ भी स्वीकार्य नहीं। अपने इसी मंत्र से वे महाराष्ट्र के क्षेत्रीय क्षत्रप बने। उनके बारे में कहा जाता है कि वे दो बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए।
एक बार उनकी जगह नरसिंह राव तो दूसरी बार मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। इसलिए, घटनाक्रम के बाद पवार की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी-यह बगावत मेरे लिए नई नहीं है। अजित पवार ने अपने परिवार से मिली सीख का पालन करते हुए जब भी मौका मिला येन-केन प्रकारेण उपमुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर ली। राकांपा की विरासत सुप्रिया सुले को हस्तांतरित होते ही अजित पवार की इस बगावत की आशंका जताई जा रही थी।
विपक्ष के खिलाफ ‘आपरेशन’ करने का आरोप तो भाजपा पर लग रहा था, लेकिन ऐसा दिखा कि ‘आपरेशन कक्ष’ की तैयारी खुद शरद पवार ने की हो और शल्य-क्रिया कर रहे चिकित्सक को उसकी मांग के अनुसार औजार मुहैया करवा रहे हों। क्षेत्रीय क्षत्रपों की सत्ता के शरीर पर परिवारवाद का कैंसर इतना विकराल हो चुका है कि अंग-विशेष को निकालते ही पूरा शरीर नाकाम सा दिखता है।
शरद पवार ने पार्टी के स्थापना दिवस पर रोटी पलटने की कहानी सुनाई। अगर रोटी को समय-समय पर पलटा नहीं जाए तो वह तवे पर जल जाती है। लेकिन, जिस कहानी को अजित पवार बड़े शौक से सुन रहे थे, उसी को सुनाते-सुनाते शरद पवार पुत्री मोह में खो गए। शरद पवार ने इस्तीफा वापस ले लिया और रोटी पलटी नहीं गई। कहानी का अंजाम रोटी को ही भुगतना पड़ा। राकांपा की रोटी जल गई। शीर्ष पर जाने को बेताब अजित पवार झल्ला कर कह ही बैठे-भाजपा में नेता 75 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हो जाते हैं। आप कब होने जा रहे हैं? मैं भी मुख्यमंत्री बनना चाहता हूं।
अब रही बात दल-बदल कानून की तो श्रीमान आया राम, जब गया राम हुए थे तब कहां मालूम था कि उनके नाम पर बने जुमले की मियाद भी खत्म हो जाएगी। बाद में पूरी सेना दल-बदल करेगी। आने वाले समय में पूरा दल ही बदल जाया करेगा।
हालांकि, इन सबको देखने के बाद जनता भी अपना जनार्दन वाला तमगा खोज रही होगी कि इन नेताओं ने उसे कहां जमींदोज कर किया। पिछले चार साल में महाराष्ट्र की सरकार ने जितने अवतार लिए हैं उसे देख कर जनता सोच रही होगी कि गनीमत है पांच साल में चुनाव हो जाएंगे, नहीं तो इनका ‘दशावतार’ पूरा हो जाता।
असमंजस में खड़ी जनता के जख्म पर राजनीतिक जुमलों का मिर्च-मसाला छिड़कते हुए एकनाथ शिंदे कहते हैं-दोहरे इंजन की सरकार अब तिहरे इंजन की हो गई है। इससे महाराष्ट्र का विकास तेजी से होगा और जनता को ज्यादा फायदा मिलेगा। तिहरे इंजन की बात वे एकनाथ शिंदे कह रहे हैं, जिन्हें खूब पता है कि अगर उनका गुट अयोग्य करार दिया जाएगा, जिसकी आशंका जताई जा रही है तो फिर सबसे पहले बेपटरी वही होंगे।
जो कल उन्होंने शिवसेना के साथ किया आज वही अजित पवार ने राकांपा के साथ किया। हो सकता है कल एकनाथ शिंदे की कुर्सी पर अजित पवार हों और, शिंदे विधानसभा के लिए अयोग्य करार दिए गए की राजनीतिक मिसाल हों। महाराष्ट्र की सरकार फिर दोहरे इंजन की हो सकती है। डिब्बों और इंजन का अनुपात क्या होना चाहिए इस पर भी बात हो जाए।
महाराष्ट्र की राजनीति को जिस तरह दल ही बदल दो की प्रयोगशाला बना दिया गया है, उसका सबसे बुरा असर विपक्ष की एकता पर बताया जा रहा है। फिलहाल यही दृश्य बनाया जा रहा है कि जो पक्ष में रहेगा वही बचेगा। पक्ष में आने और लाने की होड़ अन्य राज्यों में भी मचने की आशंका है। तो क्या महाराष्ट्र विपक्ष की एकता के लिए बुरा संदेश लाया है? क्या बिना सत्ता में रहे सांसद व विधायक अपने क्षेत्र में विकास नहीं कर सकते हैं।
ऐसा कहने वाले एक भागीदार को भूल रहे हैं। यानी, जनार्दन के जमींदोज तमगे को खोज रही महाराष्ट्र की जनता। दल-बदल से इस बल-बदल के मर्ज का इलाज भी वही करेगी। आप कितना भी दोहरा या तिहरा इंजन जोड़ लीजिए, एक बार चुनाव के स्टेशन पर रुकने के बाद सिर्फ जनता की हरी झंडी काम करेगी।