2024 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान सत्ता पक्ष ने जनता को जिस शब्द से सबसे ज्यादा डराया, वह था गठबंधन। गठबंधन यानी कमजोर सरकार, जिसके फैसलों की कोई ‘गारंटी’ न हो। भाजपा सरकार को ‘गारंटी’ शब्द इतना भाया कि पारंपरिक घोषणापत्र को भी गारंटी बना दिया। ऐसा लगा कि लगातार दूसरी बार सत्ता में आना उसके लिए आगे भी आने की ‘गारंटी’ है। अफसोस जनता ने गारंटीधारी सरकार को ऐसी हालत में सदन में भेजा जिसकी स्थिति की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है। हालांकि, गठबंधन सरकारों को हिकारत से देखने वाली सरकार जब ढेर सारे बंधनों के साथ आई तब भी खुद को कमजोर मानने से इनकार कर दिया। लेकिन, अभी तीसरे महीने में प्रवेश तक ही सरकार अपने तीन अहम फैसलों को वापस ले चुकी है। विलंबित प्रवेश प्रक्रिया पर कांग्रेस-काल की दलीलें देकर फिर कांग्रेस व घटक दलों की दलीलों से घबरा कर जिस तरह कदम खींच लिए उसने एक सत्य तो सामने ला दिया कि लोकतंत्र में सिर्फ जनता की गारंटी चलती है। गारंटी से कमजोर कड़ी तक के सफर पर बेबाक बोल

केंद्र सरकार के मंत्री अश्विनी वैष्णव मीडिया से बात करते हैं। जाहिर सी बात है कि मौजूदा केंद्र सरकार के लिए किसी मुद्दे का आदि भी कांग्रेस होगी तो अंत भी कांग्रेस होगी। अश्विनी वैष्णव की वार्ता के समांतर सोशल मीडिया पर मनमोहन सिंह चलायमान थे। केंद्र सरकार के समर्थक सिंह को भारतीय नौकरशाही में विलंबित प्रवेश बता रहे थे। कुछ देर के लिए ही सही पता चल गया कि मनमोहन सिंह कितने बड़े आर्थिक विशेषज्ञ थे और भारतीय अर्थव्यवस्था में उनका क्या योगदान था। विलंबित प्रवेश प्रक्रिया जैसी चीज के बिना देश को वैसा योग्य अर्थशास्त्री मिलना मुश्किल था।

मनमोहन सिंह ने कहा था- इतिहास उनके मूल्यांकन को लेकर उदार रहेगा

मनमोहन सिंह ने कहा था कि इतिहास उनके मूल्यांकन को लेकर उनके प्रति उदार रहेगा। लेकिन, वह ‘इतिहास’ इतनी जल्दी आएगा और भाजपा खेमे द्वारा लाया जाएगा यह तो सिंह ने भी नहीं सोचा होगा। अफसोस कि केंद्र सरकार के खेमे ने जिस रणनीति के तहत उन्हें विलंबित प्रवेश प्रक्रिया का अग्रदूत बनाया वह अश्विनी वैष्णव के मीडिया बयान के चौबीस घंटे के अंदर फुस्स हो गई। वैसे, राजनीति में अश्विनी वैष्णव का भी प्रवेश विलंबित प्रवेश प्रक्रिया से ही हुआ था।

हालांकि प्रसारण मसविदा विधेयक के बाद वैष्णव को समझ आ गई होगी कि उनके बयान की कोई ‘गारंटी’ नहीं है। ऐसा पहले भी होता था कि सरकार अपने फैसले वापस लेती थी। लेकिन, एक प्रेस बयान में विलंबित प्रवेश प्रक्रिया के फायदे गिनाने के बाद फिर उन्हीं फायदों के खिलाफ खुशी-खुशी बोलना अब सरकार के मंत्रियों को और प्रवक्ताओं को बखूबी आ गया है।

NDA सरकार के मंत्रियों-प्रवक्ताओं के लिए कांग्रेस की नीतियों पर रिसर्च जरूरी

विपक्ष के विरोध के बाद केंद्र सरकार ने विलंबित प्रवेश प्रक्रिया के लिए दिया विज्ञापन वापस ले लिया। अब सरकार के प्रवक्ता इस वापसी को ही सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्धता बता रहे हैं। शायद विज्ञापन तैयार करवाते समय गलती से कांग्रेस-काल वाली प्रतिबद्धता के पृष्ठ खुले रह गए होंगे क्योंकि राजग सरकार के मंत्रियों-प्रवक्ताओं के लिए कांग्रेस की नीतियों पर अघोषित अनुसंधान करना अनिवार्य है। लेकिन, सरकार कांग्रेस की नीति पर कांग्रेस की ही मुखालफत से परेशान हो उठे, एकदम से पलट जाए तो उसकी स्थिति को क्या कहा जाएगा?

हिंदी फिल्मों के अदालती दृश्य में घिसा-पिटा जुमला है, ‘आपकी दलील में दम है, लेकिन कानून सबूत मांगता है’। कुछ ऐसा ही राजनीति के साथ भी होता है। कोई राजनीतिक दल या राजनेता खुद के लिए कितना भी दावा कर ले कि वह मजबूत है, विपक्ष कितना भी आरोप लगा ले कि वह कमजोर है, लेकिन बिना सबूत तो बात बनती ही नहीं है।

पिछली जून में लोकसभा के नतीजों के बाद कहा गया कि भाजपा सरकार कमजोर होकर लौटी है। पहला सबूत तो उसका ‘राजग सरकार’ हो जाना था। सरकार के समर्थक इसे मानने को तैयार नहीं थे। मगर, सरकार के तीसरे महीने में ही कमजोरी के निशान दिखाने की जो रफ्तार है उसे देख कर नहीं लगता कि कभी यह सरकार और उसके प्रवक्ता ‘गारंटी कार्ड’ लेकर घूमा करते थे। तब मजबूत थे इसलिए हर चीज की गारंटी देते थे।
अब तो केंद्र की राजग सरकार रोज अपने कमजोर होने के नए-नए सबूत पेश कर रही है। वक्फ विधेयक पर विपक्ष के सवाल उठाते ही संयुक्त संसदीय समिति का पुनर्जन्म हो गया। सनद रहे, इससे पहले हर दूसरे विवादित विधेयक पर विपक्ष की यह मांग होती थी। लेकिन, तब केंद्र सरकार के अहंकार से लगता था कि संयुक्त संसदीय समिति इतिहास का हिस्सा है।

अगर विपक्ष पूरी ताकत के साथ होता है तो सरकार के फैसलों को प्रभावित करता है। पिछले दस सालों से विपक्ष के पास ऐसी ताकत नहीं थी। अब स्थिति यह है कि गठबंधन सरकार के घटक दल ही विपक्ष होने का माद्दा रखते हैं। बीते लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा के नेता चुनावी भाषणों में जनता को गठबंधन सरकार के नाम से ऐसे डराते थे जैसे किसी फिल्म में मां कहती थी, सो जा बेटा नहीं तो गब्बर आ जाएगा। लेकिन, ऐसी डरावनी बातों से डरने के बजाय जनता ने सरकार को ही कह दिया सुधर जाइए नहीं तो गठबंधन आ जाएगा। और गठबंधन आ भी गया।

वक्फ बोर्ड विधेयक पर गठबंधन के ज्यादातर घटक दलों को आपत्ति नहीं थी। कुछ दल मुसलिम पक्ष से बातचीत चाह रहे थे। लेकिन, विपक्ष के वार से परेशान सरकार ने इसे संयुक्त संसदीय समिति में भेज दिया। मलाईदार तबके को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। शायद इस पर मतदान होता तो सरकार के पक्ष की जीत होती। इस मसले पर सरकार के घटक दल ही विपक्ष बन गए। कल तक खुद को ‘हनुमान’ कहने वाले सबसे पहले अपने कंधे से मजबूती की भक्ति का बोझ हटा कर कमजोर कड़ी की मुखालफत में आगे रहे।

प्रसारण विधेयक पर भी कदम पीछे हटाने से राजग सरकार की कमजोरी का सबूत प्रसारित हुआ। लेकिन, विलंबित प्रवेश प्रक्रिया पर जिस तरह से सरकार पलटी, वह तो ऐसा लगा जैसे उसने खुद ही उस कागज पर मुहर लगाई जिस पर लिखा था-यह सरकार कमजोर है। दशकों से चल रही प्रक्रिया पर भी कदम वापस कर सरकार ने इसे सुधार के लिए भेज दिया तो सवाल उठता है कि अब कितना सुधरिएगा? नई-नवेली राजग सरकार की हालत की भविष्यवाणी करते हुए ही एक शीतल पेय की कंपनी का विज्ञापन था-डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है। सवाल है कि सरकार कमजोर क्यों दिख रही है और उसे डर किससे लग रहा है?

दो पारी तक राजग सरकार को हर मसले पर एकतरफा ‘गारंटी’ देने की आदत थी। विपक्ष के विरोध को तवज्जो नहीं देने की यह आदत अब भारी पड़ रही है, क्योंकि हर मुद्दे पर विपक्ष हमलावर हो जा रहा है। विपक्ष जनता को बताने जाए कि फलां फैसला कितना गलत है, उससे पहले सरकार खुद ही अपनी ‘गलती’ समझ कर उससे कदम पीछे खींच लेती है। मानो तय कर रखा है कि अभी भी विपक्ष के वजूद को नहीं मानेंगे, खुद ही विपक्ष से भी बड़े वाले विपक्ष बन जाएंगे।

तीसरी पारी में केंद्र सरकार इसलिए कमजोर हुई है क्योंकि जनता मजबूत हुई है। यह साबित हो चुका है कि इस देश में एक ही गारंटी चलती है-जनता की। जनता जब तक चाहेगी तब तक सरकार के रहने की गारंटी है। किसको कमजोर करना है, किसे मजबूत करना है, किसे दो साल की गारंटी तो किसे पांच साल की गारंटी के साथ सत्ता में भेजना है यह सब जनता ही तय करती है। जनता ने राहुल गांधी को पांच साल की विस्तारित गारंटी के साथ सदन में भेजा है। अगर उन्होंने भी अच्छा काम नहीं किया तो जनता के पास उनके लिए चालीस का आंकड़ा पहले से है।

किसी सत्ता का लगातार दो बार तक आना बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन, सत्ता के इस दोहराव में जनता की भूमिका को नगण्य मान लिया गया। लगा, एक खास दल, विचारधारा के आगे जनता नतमस्तक है। राजनीति में किसी चीज का फातिहा जितनी जल्दी पढ़ लिया जाता है, सच यह है कि राजनीति में कुछ भी अंतिम नहीं होता है। यहां तो जनचेतना के अंत की ही घोषणा कर दी गई थी और राजनीतिक दल ही जनता को गारंटी देने लगे थे। राजनीतिक शब्दावली से घोषणा और वादों की नम्रता ‘गारंटी’ के अहंकार में बदल गई। आप चाहें तो राजनीतिक सत्य को भुला कर घोषणापत्र को गारंटी बोलें, लेकिन आपकी गारंटी तो जनता ही तय करेगी। जनता तय करेगी कि शब्दमाला में ‘ग’ से गारंटी के सामने आपका चित्र होगा या ‘क’ से कमजोर के सामने।

याद रहे कि ‘गारंटी’ का प्रमाणपत्र निर्माता की तरफ से दिया जाता है। नेता उस जनता को गारंटी देने का भ्रम पाल बैठे जो उनकी निर्माता है। आपने हर बात के लिए इतनी बार ‘गारंटी’ शब्द का इस्तेमाल किया कि खीझी हुई जनता ने आपकी सत्ता पर लिख दिया-नाजुक उत्पाद है, जरा ध्यान से इस्तेमाल करें।