आजाद भारत और भ्रष्टाचार दोनों हमउम्र ही हैं। ऊपरी आय के महिमामंडन वाले देश में थोड़ा-थोड़ा भ्रष्टाचार हर तबके ने अपने हिसाब से कबूल किया। लेकिन, जब निचले से लेकर मझले तबके के स्कूल, अस्पताल, सड़क भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए तो जनता इसके खिलाफ आंदोलित हुई। आंदोलन का लक्ष्य लोकपाल बताया गया था। लेकिन, इससे भ्रष्टाचार खत्म होने का सपना पूरा नहीं हो पाया। लोकपाल से टपकी राजनीति चुनावी बांड पर जाकर अटक गई है। पारदर्शिता तो इतनी आई कि जनता को यह जानने का हक नहीं कि सरकार किसके पैसे से बन रही है। भूतपूर्व आंदोलनकारी कह रहे कि चुनाव में तो पैसे लगते ही हैं, हमारा पैसा भ्रष्टाचार और तुम्हारा पैसा चुनावी बांड। अगर आप विपक्षी खेमे के हैं तो आरोप लगते ही अदालत में अर्जी देते फिरेंगे और सत्ता पक्ष से हैं तो हर आरोप को फर्जी बता देंगे। अब तो लोगों को लग रहा कि उनके आंदोलन का अगुआ ‘चार्ल्स पोंजी’ जैसे ठग का शिष्य रहा होगा जो चुनाव सुधार के नाम पर चुनाव बांड पकड़ा गया। लोकतंत्र को हासिल इस ‘बांड जी स्कीम’ पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर जांच से पहले एजंसी बंदे से खुद पूछे बता तेरी पार्टी क्या है’
अल्लामा इकबाल आज अगर शेर लिख रहे होते तो उनकी निगाह में बुलंदी का पैमाना कुछ ऐसा ही होता। सफलता एक ऐसा शब्द है जिसकी परिभाषा हर दौर में अलग होती है। आज वैसा दौर है जहां सफल वही है जो भ्रष्टाचार की परिभाषा अपने तरीके से गढ़ सके। सत्ता पक्ष में जगह पाने की काबिलियत है तो आरोपों की फाइल ठंडे बस्ते में डलवा कर राज्य का उपमुख्यमंत्री बन जाइए। अब आप दूसरों के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने के लिए अधिकृत हैं और आप के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने वाला ही भ्रष्टाचारी घोषित कर दिया जाएगा।
सत्ता पक्ष पर किसी तरह का सवाल उठा दिया तो उस व्यक्ति का फोन भी जांच एजंसी भ्रष्टाचार की दुहाई देते हुए जब्त कर सकती है जिसने कभी आपको आवास कर्ज की पेशकश देने के लिए फोन किया हो। हां, अगर आप किसी भी तरह सत्ता पक्ष से जुड़े हैं तो आपके खिलाफ कैसे भी वीडियो वायरल हो जाएं उसे तुरंत-फुरंत में फर्जी करार दिया जाएगा। हो सकता है कथित ‘फर्जी’ वीडियो की बात करने वाले ही जांच के दायरे में आ जाएं।
इतिहास की किताबों में खोजने जाएं तो आजाद भारत और भ्रष्टाचार दोनों हमउम्र ही मिलेंगे। इतिहास के पन्ने तो कोई भी पलट सकता है। केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने पिछले दिनों एक्स पर पोस्ट लिख कर कहा, ‘20 अक्तूबर से 21 नवंबर 1962, स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक काले और अपमानजनक अध्याय के रूप में हमेशा अंकित रहेगा।’ केंद्रीय मंत्री का निशाना नेहरू और तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके मेनन थे।
बजरिए राजीव चंद्रशेखर हमें भी याद आ गया कि आजाद भारत में शुरुआत में ही उस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार के आरोप लग गए थे जो देश में प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नंबर की हैसियत रखता था। लेकिन वह शायद शुरुआती दौर था इसलिए नेहरू के कथित वारिस को लोक-लाज में इस्तीफा देना पड़ा था।
आजाद भारत में ज्यों-ज्यों सत्ता पुरानी होती गई भ्रष्टाचार को लेकर लोग आरामदायक स्थिति में आते गए। भ्रष्टाचार इतनी बड़ी हकीकत बन चुका था कि राजीव गांधी को बोलना पड़ा-केंद्र एक रुपया भेजता है तो लोगों को 15 पैसे मिलते हैं। हालांकि, तब एक रुपए में 85 पैसे के भ्रष्टाचार की स्वीकारोक्ति थी। उसके बाद भ्रष्ट आचार हमारी जीवन पद्धति का हिस्सा बन गया।
भ्रष्टाचार का ‘भ’ घर से शुरू होता था। हाई स्कूल में जाने के बाद पैसे देकर नकली जन्मतिथि प्रमाणपत्र बनाए जाते थे ताकि ज्यादा दिनों तक सरकारी नौकरी पाने की योग्यता बनी रहे और ज्यादा दिनों तक नौकरी की जा सके। महंगे अंग्रेजी स्कूलों और शिक्षा में अच्छी स्थिति वाले चुनिंदा राज्यों को छोड़ दें तो हिंदी पट्टी का बड़ा इलाका नकल माफिया के सुपुर्द था। भ्रष्टाचार की बदौलत विद्यार्थी स्कूल के ‘टापर’ बनने लगे। उत्तर प्रदेश की यह हालत हो गई थी कि सत्ता पाने के लिए नकल अध्यादेश को हटाने की घोषणा की गई थी। और, इस कदम को तुरुप का पत्ता माना गया था।
जहां इंसान की जिंदगी का पहला सत्य जन्मतिथि में भ्रष्टाचार करने में अभिभावक कुछ बुरा नहीं समझते थे, वहां भ्रष्टाचार के जरिए नंबर और नौकरी पाने को भी आम स्वीकृति थी। शादी के लिए वर की एक ही योग्यता थी, सरकारी नौकरी क्योंकि वहां पूनम की चांद की तरह ऊपरी आय लड़की वाले योग्यता के तौर पर ही देखते थे।
धीरे-धीरे हमारे पर्व-त्योहार भी पूजा और प्रसाद से निकल कर ‘तोहफे’ के भ्रष्टाचार में आ गए। फिर चाहे वह उत्तर भारत की दिवाली हो या महाराष्ट्र का गणेशोत्सव, दक्षिण का ओणम, पोंगल। हर बड़ा त्योहार तोहफों का विस्तार करता गया। मिठाई, फल-मेवे वाली संस्कृति कीमती गहनों, गाड़ियों और जमीन-जायदाद तक पहुंच गई।
इन सबका नतीजा यह हुआ है कि भारत में अब दो वर्ग हो गए हैं। पहला वर्ग वह जो भ्रष्टाचार करता है, दूसरा वर्ग वह जो भ्रष्टाचार का शिकार है। तीसरा वर्ग इन दोनों में से एक के बीच की पेंडुलम की स्थिति में होता है, यानी जिसे भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिला है। उसकी ईमानदारी उस पहले मौके तक की दूरी है जहां तक पहुंच नहीं बन पाई है। यानी, ईमानदारी बस एक मजबूरी है, मौका मिलने तक की।
धीरे-धीरे भ्रष्टाचार का घड़ा इतना भर गया कि आम लोगों के लिए जिंदगी मुश्किल हो गई। उनके अस्पताल के बिस्तर, आपरेशन की मशीनें, बच्चों के स्कूल की इमारत और सड़कें सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने लगे। आम लोगों ने बच्चों की जन्मतिथि में भ्रष्टाचार किया तो सत्ताधारियों ने स्कूल की इमारत ही गायब कर दी। यानी उन लोगों को फर्क पड़ने लगा जो ‘सरकारी’ पर निर्भर थे तो सरकार के भ्रष्टाचार पर चर्चा शुरू हो गई।
जनता के भ्रष्टाचार के जख्म पर मरहम लगाने के लिए वो तीसरा पेंडुलम वर्ग आया व देशभक्ति गीतों के साथ लोकपाल के आंदोलन का नारा लगाया। इसे कथित दूसरी आजादी का नाम दिया गया। स्कूल, अस्पताल, सड़क व अन्य बुनियादी सुविधाओं से वंचित जनता ने लोकपाल के नाम पर उम्मीदों के नए पंख लगाए। भ्रष्टाचार ऐसा नासूर बन गया था कि लोकपाल की मांग ने एक जनांदोलन का रूप ले लिया। भ्रष्टाचार को व्यक्तिगत से निकाल कर संस्थागत देखा गया। देश ने एक अनोखा दौर देखा जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग एकजुट थे, आक्रोशित व आंदोलित थे।
आंदोलन सफल हुआ, लेकिन उसकी अगुआई वाला पेंडुलम वर्ग अब भ्रष्टाचार की पैरोकारी वाले वर्ग में शामिल था। उस वर्ग के दो पूर्व मंत्री और एक सांसद अभी जेल में हैं। मुख्यमंत्री जी भी कब ‘सशरीर’ गिरफ्तार होकर जेल पहुंच जाएं वक्त की बात है। अब इनकी भी यही भाषा है कि चुनाव में तो पैसे लगते ही हैं। पैसे तो लेने ही पड़ेंगे। हमारा पैसा भ्रष्टाचार, तुम्हारा पैसा चुनावी बांड? पैसे की जरूरत हमें भी है।
जनता ने पारदर्शिता के लिए आंदोलन खड़ा कर सत्तर साल वाले जिस शासन को उखाड़ फेंका उसका हासिल क्या था? पंजाब चुनाव के लिए दिल्ली में शराब की बारिश। उसका हासिल लोकपाल नहीं चुनावी बांड है। चुनावी बांड पूंजीपति और सत्ता के बीच वैसा बंधन है जिसकी जानकारी जनता को नहीं हो सकती है। अदालत खुद ही इस पर माथापच्ची कर रही है कि इसके बारे में जनता को जानकारी क्यों नहीं हो सकती है?
सरकार जनता के फोन में घुस कर आपातकालीन ‘अलर्ट’ का अभ्यास कर सकती है, वो यह जान सकती है कि जनता ने ‘अल्प्रेक्स’ की दवा ली या अक्षय तृतीया पर कितना सोना खरीदा। कई कंपनियों पर आरोप है कि वो जनता का वैसा डाटा बेच रही हैं जो सरकार ने सुरक्षा के नाम पर इकट्ठे किए हैं। लेकिन, जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि सरकार किसके पैसे से बन रही है। चुनावी बांड इतना अहम है कि उसके लिए जनता के ‘सूचना के अधिकार’ को छीन लिया गया। लोकपाल की पारदर्शिता की मांग कर रही जनता को पकड़ा दिया गया ‘गुप्त’ चुनावी बांड।
आज फिर से ऐसा लग रहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है, आंदोलन नहीं है। सत्ता पक्ष तो कभी मानता ही नहीं कि उसकी तरफ से भ्रष्टाचार होता है। चुनावी समय आते ही जांच एजंसियों की विपक्ष को लेकर सक्रियता को भी एक स्वीकार्यता सी मिल रही है। अब तो केंद्रीय सत्ता की उस धुलाई मशीन पर भी सवाल उठने बंद हो गए हैं जहां जाते ही विपक्षी नेता के सारे दाग धुल जाते हैं।
भ्रष्टाचार से लेकर संसदीय आचार संहिता का बोझ ढोते विपक्ष पर जनता की नजर है। क्या कुछ ऐसा जड़ में जमा हो रहा है जो ऊपर सत्ता के लगे फूल और फल में नहीं दिख रहा? मांगा लोकपाल और मिला चुनावी बांड पर जनता बहसतलब होगी? वक्त के जवाब के इंतजार में हम भी।