आ जाओ अपने मुख से मुखौटा उतार कर
बहरूपियों के साथ समय खो रहे हो क्यूं
-सादिक

एक विश्वप्रसिद्ध उक्ति सत्ता और शासितों के संबंध की सटीक व्याख्या करती है। राजा को कहा गया कि प्रजा नाराज है। राजा ने कहा कि प्रजा का ध्यान भटका दो। दुनिया भर की सत्ताओं की तरह भारतीय राजनीति में भी यह रामबाण है। हाल ही में महुआ मोइत्रा के मामले पर नजर डालें तो सरकारी ‘लाग इन, पासवर्ड’ दूसरों को देने का आरोप था। इस तकनीकी पक्ष पर बहस होने के बजाय सांसद के निजी जीवन की खुर्दबीन शुरू हो गई। ‘लुई विट्टन’ का बैग और सिगार पीती स्त्री। भारत की राजनीति में अमीरी को अपराध समझ कर गरीबी का मुखौटा ओढ़ा जाता है। अति अमीर बीवी, बच्चों के निर्मोही रिश्तेदार नेता जी अपनी गरीबी बेचते नजर आते हैं। महुआ मोइत्रा से उठे विवाद के मद्देनजर असली अमीरी और नकली गरीबी का भेद खोलता प्रस्‍तुत है बेबाक बोल।

अस्वीकरण-यह लेख महुआ मोइत्रा की पक्षकारिता के लिए नहीं है। यह हस्तक्षेप भारतीय राजनीति की उस प्रवृत्ति के खिलाफ है जिसमें केंद्रीय मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए उन लोगों की निजी जिंदगी पर लक्षित हमला किया जाए, जो सवाल उठाते हैं।

सरकारी ‘लाग इन, पासवर्ड’ दूसरों को देने की ‘सजा’ में महुआ मोइत्रा की शशि थरूर के साथ जाम टकराती, सिगार पीती फोटो वायरल कर दी जाए, और, शशि थरूर की यह टिप्पणी छुपा दी जाए कि निम्न स्तर की राजनीति के तहत एक जन्मदिन समारोह को गुप्त बैठक की तरह दिखाया गया, जिसमें उनकी बहन भी शामिल थी। शशि थरूर का यह बयान भी वायरल वीरों के लिए किसी काम का नहीं कि महुआ उनसे दस-बीस साल छोटी हैं, और वे उन्हें बच्ची की तरह देखते हैं।

थरूर को इस तरह की सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि भारतीय राजनीति को उस निचले स्तर पर ला दिया गया है जहां सत्ता से पूछे गए हर सवाल के जवाब में निजता का ‘वस्त्रहरण’ किया जाए। आप पूछेंगे कि सड़क पर गड्ढे क्यों है तो बात आपके ‘वाट्सएप चैट’ की होने लगेगी। महुआ पर अनियमितता का जो आरोप लगा, वह पीछे चला गया और हर कोई उनसे निजी खुन्नस निकालता दिखा। राजनीति में किसी को उठाने और गिराने की इस नई प्रवृत्ति का जिस तरह से वंदन हो रहा, वह नारी शक्ति के लिए तो नर्क के द्वार ही खोल रहा है।

महुआ मोइत्रा पहले भी संसद में सवाल उठाने के लिए जानी जाती थीं। उनके सवालों को इसलिए जनता के खिलाफ बताया जाने लगा क्योंकि वे कड़े तेवर, बौद्धिक हाव-भाव और अच्छी अंग्रेजी में पूछे जाते थे। इसके पहले महुआ मोइत्रा पर आरोप लगा कि साथी सांसद जब गरीबी की बात कर रहे थे तो महुआ कैमरे से अपना कीमती बैग छुपा रही थीं। कहा गया कि गरीबों के हक की बात करने वाले लोग ऐसा शाही जीवन जीते हैं। महुआ को घेरने के लिए आज भी उस विदेशी कंपनी के नाम का इस्तेमाल कर लिया जाता है। महुआ का राजनीतिक मूल्यांकन इस लेख का विषय नहीं। विषय है, राजनीति के सार्वजनिक मंच पर निजता को लेकर वार करना। अमीरी को अभिशाप बताना।

भारतीय राजनीतिकों के लिए गरीबी का मुखौटा अनिवार्य सा बना दिया गया है। विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने के बाद यशवंत सिन्हा ने कहा था, ‘मैंने अपनी गरीबी बेची नहीं’। भारतीय राजनीति में ऐसे बहुत से लोग हैं जो सामान्य पृष्ठभूमि से सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे। उनमें से बहुतों के लिए यह संघर्ष वैसी सामान्य प्रक्रिया थी, जिससे देश के करोड़ों लोग गुजरते हैं। उन्होंने इस संघर्ष को मुकुट की तरह और पीड़ा को मुखौटे की तरह चेहरे पर नहीं पहना।

राजनीति में स्त्री-पक्ष की बात करें तो महिलाओं को दोहरा मुखौटा पहनना पड़ता है। भारतीय समाज चाहे कितने ही वर्गों में बंटा रहे, लेकिन उसे स्त्री के मामले में एक ही वर्ग चाहिए होता है। सब कुछ खोया हुआ वर्ग। पुरुष राजनेता अपने साथ कोई भी छवि लेकर आए, लेकिन इंदिरा गांधी से लेकर आज की नेता तक, हम स्त्री की बस पारंपरिक छवि ही देखना चाहते हैं। उसे खास परिधानों में ही ढका हुआ देखना चाहते हैं। भारतीय राजनीति में वही महिलाएं कामयाब हैं जो टीवी पर ज्वालामुखी सी बहू बन कर सास की धज्जियां उड़ा दे, बड़े पर्दे पर तरणताल के वस्त्र पहन कर नहा ले, फिर राजनीति में आ कर सिर पर दुपट्टा ओढ़ कर सती सावित्री का वेश धर ले।

संसद में ‘सवाल के लिए धन’ का आरोप लगा। बात इसी मुद्दे पर केंद्रित होनी थी। लेकिन, बीच बहस में आ गया राजनेता का निजी जीवन। उसका उठना-बैठना, पहनना-ओढ़ना सामाजिक और राजनीतिक ‘आचार संहिता’ के दायरे में आ गया। कोई महिला आधुनिक जीवनशैली जिए या पारंपरिक यह उसकी निजी पसंद होनी चाहिए। लेकिन, राजनीति में आने के पहले और राजनीति में आने के बाद जो छवियांतर होता है, वह एक पाखंडी समाज का ही प्रतीक है। महिलाओं की पहचान चाहे जो हो, संसद में आते ही उन्हें परंपरा का प्रतिनिधि बनने की अघोषित, अलिखित आचार संहिता पकड़ा दी जाती है।

बात करें तृणमूल सांसद पर लगे आरोप और उनके निष्कासन के सिफारिश की। महुआ का मामला तो सामने आ गया। बहस इस तकनीकी पक्ष पर होनी चाहिए। यह किसे पता कि और कितने सांसद किस-किस को अपना ‘लाग इन पासवर्ड’ देते हैं। जाहिर सी बात है कि यह सुविधा है तो किसी एक ने ही इस्तेमाल नहीं की होगी। जहां चुनाव क्षेत्रों में सांसदों की गुमशुदगी तक के पोस्टर लग जाते हैं तो हम अंदाजा लगा सकते हैं कि बहुत से सांसद ‘लाग इन पासवर्ड’ हस्तांतरण का फायदा उठाते होंगे। अभी तो ऐसा लग रहा कि जो पकड़ा गया, वही चोर।

डिजिटल, डिजिटल के राग में इसकी सुरक्षा के सवाल पर सारी एजंसियां यही कहती हैं-सब चंगा। शीर्ष पदों के मंत्रियों तक के बारे में सबको पता है कि वे अपना सोशल मीडिया खाता खुद नहीं चलाते। लेकिन कोई भी खबर, अधिसूचना मंत्री जी के उस सोशल मीडिया खाते से जारी की जाती है जिसे वे खुद नहीं चलाते। सोशल मीडिया पर दिए बयान को आधिकारिक माना जाता है। तो क्या शीर्ष व आधिकारिक स्तर पर इस तरह की कोई चिंता जताई गई कि सभी सांसदों के लाग इन की जांच की जाए, ताकि ‘देश की सुरक्षा’ पर किसी तरह की आंच न आए।

जहां तक ‘लुई विट्टन’ के पर्स की बात है तो अमीरी का जीवन अभिशाप कैसे हो गया? मुख्यधारा के दो दलों से लेकर जनता तक ने शाही परिवारों को सिर-आंखों पर बिठाया है। महारानी, महाराजा जैसे उपनामों से नेता जाने जाते हैं। अपवादों को छोड़ दें तो राजनेताओं की अमीरी छलकती ही रहती है। नेता जिस खादी का वस्त्र पहनते हैं वह अब एक ‘ब्रांड’ हो चुका है।

कभी गरीबों की खादी आज ‘ब्रांड’ वाले बाजार के हवाले है। कोई अगर ‘हवाई चप्पल’ वाला है तो वह किसी अपरिहार्य कारण से विमान का किराया तो वहन कर सकता है। लेकिन, किसी की आय नेताजी की तरह असीमित नहीं है तो वह हवाईअड्डे के शोरूम में टंगा खादी का कुर्ता नहीं खरीद सकता है। खादी को ‘ब्रांड’ बनाया ही इसलिए गया ताकि गरीब तबका उससे दूर होकर सबसिडी जैसी गरीबी वाली बातें करना बंद कर दे और यह अमीरों की पहली पसंद बन जाए, सोशल मीडिया पर हैशटैग ‘एथनिक/नेचुरल/देसी’ के साथ।

कुछ दिनों पहले ‘एप्पल’ के सीईओ माधुरी दीक्षित के साथ मुंबई में बड़ा-पाव क्यों खा रहे थे? हम किस भारत को सच मानेंगे? वह दिल्ली जहां ‘एप्पल’ का स्टोर खुलते ही अमीर उपभोक्ता टिड्डी दल की तरह टूट पड़े या वह दिल्ली जहां ‘जी-20’ के पहले झुग्गियों पर परदा डाल दिया जाता है। दोनों दिल्ली देश की हकीकत है। वैसे ही ‘लुई विट्टन’ वाले नेता भी हकीकत हैं। कीमती पर्स में भी गरीबों से जुड़े सवाल रखे जा सकते हैं।

महुआ मोइत्रा का मामला भारतीय राजनीति के बारे में साफ-साफ कह रहा है। अमीरी असली है। नेताजी के घरों को देखो, उनके बच्चों के हाथ के फोन देखो, बच्चों की गाड़ियां देखो, विदेशों में बच्चों की पढ़ाई देखो, आलीशान होटलों में शादियां देखो। ‘गरीब’ नेताजी के बीवी-बच्चे इतने अमीर हैं तो क्या? उनसे नेताजी का क्या रिश्ता? नेताजी संसद में साइकिल से आते हैं, सालों भर एक जैसा कुर्ता पहनते हैं।

वे अपने परिवार से बेदखल हैं, निर्मोही हैं। ‘गूगल इमेज सर्च’ कभी-कभी उनके कुर्ते और जूते की लाखों की कीमत बता देता है तो क्या, वे चुनावी जमीन पर बेचते तो गरीबी हैं। वादा तो अस्सी करोड़ को मुफ्त राशन का है। एक विश्वप्रसिद्ध उक्ति है-राजा से कहा गया प्रजा नाराज है। राजा ने कहा, प्रजा का ध्यान भटकाओ। यह दुनिया के हर उस कोने पर आजमाया जाता है, जहां प्रजा नाराज दिखती है। वहां उसे कुछ और दिखाया जाता है।