किसान आंदोलन पर दिए बयान के कारण भाजपा ने कंगना का निस्तारण कर दिया। क्या कंगना का निस्तारण सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि उनका बयान समावेशी सोच का नहीं था? राजनीति में किसके बयान का निस्तारण होगा और किसका प्रसारण, इसका एक ही सूत्र है, जनाधार। किसान आंदोलन को आतंकवादियों से जोड़ कर हरियाणा में भाजपा को बड़ा नुकसान पहुंचाने वाले खट्टर अभी केंद्र में समायोजित हैं। अगर कंगना ने ऐसा ही बयान किसी खास समुदाय के खिलाफ दिया होता तो हो सकता है उसका ध्रुवीकरण किया जाता। जब कंगना किसान आंदोलन पर बयान के लिए खारिज हो रही थीं उसी समय असम में हिमंत बिस्व सरमा एक खास समुदाय का नाम लेकर एलान कर रहे थे कि मैं पक्षपात करूंगा। सदन में पक्षपात नहीं करने की शपथ को ताक पर रख कर भी सरमा अपने जनाधार के बूते ऐसा एलान करते हैं। सियासी परखनली में जांच कर हिमंत का बयान निस्तारण नहीं प्रसारण के लिए भेज दिया जाता है। राजनीति में कौन निस्तारित होगा और कौन प्रसारित, इसकी परख करता बेबाक बोल

‘किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में दिया गया बयान पार्टी का मत नहीं है। पार्टी के नीतिगत विषयों पर बोलने के लिए कंगना रनौत को न तो अनुमति है और न ही वे बयान देने के लिए अधिकृत हैं…।’ भाजपा को कंगना रनौत के लिए यह फरमान जारी करना पड़ गया। अमेठी में चर्चित लोकप्रिय चेहरे के खारिज होने के बाद यह दूसरे चेहरे पर संकट आ गया। चर्चित और राजनीति के बीच का यह संकट न तो पहली बार आया है और न आखिरी ही साबित होगा।

एक शब्द है राजनीतिकरण। इसके संदर्भ में मुख्य बिंदु हैं, आपकी राजनीतिक संस्कृति क्या है, वर्गीय पृष्ठभूमि क्या है, राजनीतिक पद आपको किस तरह के संघर्ष के बाद मिलता है? फिल्मी दुनिया में सफलता की पहली शर्त आपका चर्चा में बने रहना होता है। आपकी प्रतिभा ही इसमें है कि आपकी किस बात पर कितनी बड़ी चर्चा हो जाए। जितना ज्यादा विवाद, उतनी ज्यादा दृश्यता यानी मनोरंजन उद्योग के लिए मुफीद।

चर्चित व्यक्ति के पास कोई राजनीतिक मूल्य भी हो यह निश्चित नहीं है। चर्चित चेहरे को राजनीति में लाने का काम हमेशा से मुख्यधारा के दल करते रहे हैं। भाजपा, कांग्रेस, सपा से लेकर दक्षिण भारत के दलों के पास यह तुरुप का पत्ता रहा है कि फलां चर्चित चेहरे को फलां जगह खड़ा कर देंगे तो इस पर ज्यादा राजनीतिक श्रम नहीं करना पड़ेगा। लेकिन, कभी-कभी एक बार की ली गई यह सुविधा आगे पार्टी को अतिरिक्त राजनीतिक श्रम करने के लिए मजबूर कर देती है।

अभी अमेठी का किस्सा तो ताजा ही है। स्मृति ईरानी आम घरों में चर्चित चेहरा थीं। अपनी इस लोकप्रियता के कारण उन्हें राजनीति में प्रवेश मिला और उन्होंने उग्र बयान देने शुरू किए। उनकी इस खूबी का फायदा उठाते हुए उन्हें अमेठी से टिकट मिला और उन्होंने राहुल गांधी को हरा दिया। इस ऐतिहासिक घटना के बाद भी स्मृति इतिहास नहीं रच पाईं। वे अपना राजनीतिकरण नहीं कर पाईं। खास लक्षित उग्र बयान ही उनके राजनीतिक मूल्य रह गए। उन्होंने उस राजनीतिक संस्कृति में खुद को नहीं ढाला जो उनका जनाधार बनाती। जनता उन्हें अपनी दोस्त नहीं सिर्फ राहुल गांधी की दुश्मन के तौर पर देखने लगी।

कंगना रनौत ने फिल्मी दुनिया में अपने संघर्ष से पहचान बनाई थी। वे भाजपा या किसी अन्य विचारधारा का चेहरा नहीं थीं। उन्होंने मुखर अभिनेत्री की अपनी पहचान गढ़ी। भारत जैसे देश में स्त्रियों का मुखर होना भी एक मूल्य है। यहां बड़े तबके ने इसकी कद्र की। कंगना का प्रशिक्षण ही विवाद और चर्चा बनाए रखने का था। उनके इस प्रशिक्षण का मंडी सीट पर भाजपा को फायदा भी मिला। लेकिन, कंगना अपनी मुखरता को राजनीतिक जनाधार में नहीं बदल पाईं। उनकी ग्लैमर की दुनिया वाली अराजनीतिक मुखरता भाजपा के लिए खतरे की घंटी बजा गई। भाजपा ने इस संभावित नुकसान की पहचान कर कंगना रनौत को आगे इस तरह के बयान देने से ही प्रतिबंधित कर दिया।

राजनीति में सबसे अहम है समावेशी सोच। ‘पार्टी लाइन’ सबसे पहले यही सिखाती है कि राजनीति में आने के बाद आपका दायरा वृहत हो जाता है। स्व-केंद्रित राजनेता पार्टी के लिए सबसे बड़ा बोझ होते हैं। समावेशी सोच का मतलब यह है कि कोई भी मुद्दा इकहरा नहीं होता है। इसलिए किसी विषय पर आप एकांगी बात नहीं कर सकते हैं। भारत के सभी राज्य एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं तो बहुत तरह से भिन्न भी हैं। जुड़ाव तो नियम है लेकिन जरूरी है भिन्नता को समझना और उस हिसाब से राजनीतिक रणनीति बनाना।

अगर आपकी राजनीतिक समझ मजबूत नहीं है तो किसी भी लोकप्रिय आंदोलन का क्या महत्त्व होता है, यह समझ ही नहीं पाएंगे। यहां संदर्भ आता है किसान आंदोलन का। किसान आंदोलन कोई एक-दो दिन पुराना मुद्दा नहीं है। यह आजादी के पहले और उसके बाद की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है जो हमारी अर्थव्यवस्था के ढांचे को संबोधित करता है। इक्कीसवीं सदी का यह ऐसा आंदोलन साबित हुआ जिसने एक बड़े तबके के युवाओं से लेकर महिलाओं तक का राजनीतिकरण किया।

किसान आंदोलन के पहले युवाओं का राजनीतिकरण दो विपरीत ध्रुवों वाले आंदोलन ने किया। पहला जेपी आंदोलन और दूसरा राम मंदिर आंदोलन। दोनों आंदोलनों से युवा जुड़े और देश की राजनीतिक धारा को उलट-पुलट किया।

राजनीतिक आंदोलन सामूहिक चेतना का निर्माण करते हैं। किसी भी राजनीतिक विचारधारा के लिए सड़क पर आंदोलन करना आसान नहीं होता है। आप इसे एकांगी दृष्टिकोण से देखेंगे, आंदोलनकारियों को लज्जित करने की कोशिश करेंगे तो इस अराजनीतिक रवैए का खमियाजा भुगतना पड़ेगा। अगर आपकी समझ सिर्फ इतनी है कि किसान आंदोलन दूर-दराज के खेतों का मामला है और हवाईअड्डे के अंदर तक उसकी धमक नहीं होगी तो आप सिर्फ विवादित ही रह जाएंगी राजनीतिक नहीं हो पाएंगी।
आज के समय में भाजपा की राजनीतिक रणनीति यही है कि किसान आंदोलन से निकली भावना को किसी तरह की चोट नहीं पहुंचानी है। आंदोलनकारियों की गरिमा को बरकरार रखते हुए आगे की राजनीति करनी है।

सिद्धांतकारी विश्लेषण के बाद व्यावहारिक राजनीति पर आते हैं। भाजपा में इस तरह का कोई पहला बयान नहीं दिया गया है। साक्षी महाराज, खट्टर, हिमंत बिस्व सरमा से लेकर गिरिराज सिंह जैसे नेताओं की लंबी सूची है। लेकिन, नकारात्मक बयान देने के बाद पार्टी हर नेता का निस्तारण नहीं कर देती है। विवादित बयान के बाद का भविष्य नेता के जनाधार पर निर्भर करता है।

किसान आंदोलनकारियों को आतंकवादी तक कह देनेवाले नेता के कारण भाजपा को हरियाणा में बड़ा नुकसान झेलना पड़ा। लेकिन उनके जनाधार के कारण पार्टी ने विसर्जन के बजाय केंद्र में उनका अभिनंदन किया। अजय मिश्रा टेनी को इस बार जनता ने जो भी सबक सिखाया, लेकिन उन्हें लेकर भी भाजपा आंखें मूंदे हुई थी। बृजभूषण शरण सिंह के जनाधार का यह जलवा है कि एक बार ‘टाडा’ के तहत जेल गए थे तो पार्टी ने उनकी पत्नी को टिकट दिया। इस बार गंभीर आरोपों को देखते हुए उनके बेटे को टिकट दे दिया, लेकिन उनका निस्तारण नहीं किया।

कंगना रनौत का राजनीतिकरण नहीं हुआ है इसलिए उन्होंने स्थिति की नजाकत समझे बिना गलत समय पर किसान आंदोलन के खिलाफ बयान दे दिया। भाजपा अभी-अभी लोकसभा चुनाव में कमजोर हुई है। जल्दी ही उसे चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में उतरना है, जिसमें किसानों के नजरिए से सबसे अहम हरियाणा है।

किसान आंदोलन के मुद्दे पर पहली बार प्रचंड बहुमत वाली भाजपा सरकार को कदम खींच कर कृषि कानून वापस लेने पड़े थे। किसान आंदोलन के कारण लंबे समय तक उत्तर प्रदेश, हरियाणा की सीमा से दिल्ली आने वाले लोगों को परेशानी हुई। लोगों ने परेशान होना मंजूर किया लेकिन आंदोलन के खिलाफ नहीं हुए। आज भी हरियाणा से सटी सिंघु सीमा पूरी तरह नहीं खुली है। जनता को परेशानी हो रही है, लेकिन वह किसानों के साथ है।

एक सच यह भी है कि कंगना रनौत ने ऐसा कोई बयान किसी खास समुदाय के खिलाफ देकर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की होती तो शायद अभी वे निस्तारण नहीं अभिनंदन वाले नेताओं की कतार में होतीं। या उनके पास कोई जनाधार होता तो पार्टी ऐसी विद्युत की गति से निस्तारित करने का सोच भी नहीं पाती।

कंगना और उनके जैसे नेता जो अपनी निजी लोकप्रियता के आधार पर किसी पार्टी में आते हैं उनके लिए यह सबक है कि बिना राजनीतिक जनाधार के वे निस्तारण संभावित खतरे के क्षेत्र में ही रहेंगे।