देश की राजधानी दिल्ली में ‘अर्ध राज्य’ के विधानसभा चुनाव के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों ने मुफ्त-मुफ्त का नारा दिया है। जो जनकल्याणकारी योजनाएं सरकार का न्यूनतम कर्त्तव्य होती थीं उसे ‘मुफ्त’ का जामा पहना कर जनतंत्र में जनता की साख कम की गई है। कुछ ही समय पहले की बात है जब ‘सबसिडी’ की मुखालफत सत्ता का मुख्य मार्ग बन गया था। ‘सबसिडी’ सामूहिक कल्याण की व्यवस्था थी तो जाहिर तौर पर इससे किसी राजनीतिक दल को निजी लाभ नहीं मिल सकता था। जनता को व्यक्तिगत लाभ देने के लिए ‘लाभार्थी’ को लाया गया। ढांचागत सुधार, श्रमिकों के सामूहिक हितों का ध्यान रखना जैसे कामों को सरकारों ने अपने कर्त्तव्य क्षेत्र से बाहर कर दिया। अब कल-कारखाने मंदिर का दर्जा प्राप्त नहीं रह गए तो उस पर निर्भर समुदाय को जिंदा रखने के लिए राशन और खाते में पैसे भेजने का ही विकल्प चुना गया ताकि हर खाताधारी निजी तौर पर अहसानमंद महसूस करे। आम बजट और दिल्ली विधानसभा चुनाव के बीच नागरिकों को सामुदायिकता से निजता की तरफ धकेलती राजनीति पर बेबाक बोल

दिल्ली में मतदान की तारीख आनेवाली है। इसी बीच देश का आम बजट भी आने वाला है। पिछले दशक में चुनाव से लेकर आम बजट तक के विमर्श में बुनियादी परिवर्तन हुआ है। पहले लोग बजट से उम्मीद करते थे कि क्या सस्ता, क्या महंगा होगा। उतनी ही उम्मीद रेल बजट से होती थी। आखिर हिंदुस्तान के परिवहन की रीढ़ रेल है तो आम नागरिकों के बजट में रेलयात्रा का भी खास बजट बन ही जाता है। रेल मंत्रालय शक्ति का प्रतीक बन गया था और खास कर गठबंधन की सरकारों में तो सबसे शक्तिशाली रेल मंत्रालय ही था। सबसे लोकप्रिय रेल मंत्री ही होता था। इसके जरिए खुद को वोट देनेवाली जनता का कर्ज उतारा जाता था नई रेलगाड़ियां अपने राज्य के नाम कर। लालू यादव, नीतीश कुमार से लेकर ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए रेल मंत्रालय पहली प्राथमिकता थी अपने राज्य में राजनीतिक रूप से मजबूत होने के लिए।

रेल, सरकार और जनता के इस प्रत्यक्ष संबंध को देखते हुए सबसे पहले अलग से रेल बजट की प्रथा को खत्म किया गया। इस कवायद के बाद रेल को निजीकरण की पटरियों पर लाया गया। अब किस रेल श्रेणी का कितना किराया बढ़ा, किस तरह की रेलों को ज्यादा पटरियों पर दौड़ाया गया सब कुछ आम बहस के बाहर है। आम आदमी का रेल से जुड़ा बजट उसका निजी हो गया। विशिष्ट ट्रेनों को हरी झंडी दिखाने के बरक्स साधारण ट्रेनों की बहस आम आदमी का निजी रोना हो चुका है। रेल का किराया राजनीतिक मुद्दा बनना बंद हो चुका है। कोरोना महामारी के समय कुछ दिनों के लिए रेल के पहिए रुके तो सरकार ने कई तरह की रियायतें भी रोक दीं।

ऐसा ही कुछ आम बजट के साथ हुआ। पैसा लगाने के हर क्षेत्र में सरकारी दखल कम करने की कोशिश की गई। सार्वजनिक क्षेत्रों को अर्थव्यवस्था का बोझ बताया गया। ऐसी योजना जिसमें काम के बदले मजदूरी दी जाती थी उसे पिछली सत्ता व अर्थव्यवस्था का ‘स्मारक’ ही बता दिया गया। इसके बाद परत दर परत कर व्यवस्था लागू की गई। पहले वेतन पर कर दें। फिर वही करदाता हर छोटी-बड़ी खरीद पर कर दें, सरकारी योजनाओं के लिए उपकर भी दें, चाहे शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य व्यवस्था की कमर टूट चुकी हो।

आम बजट के पहले हर वर्ग अपने लिए उम्मीद करता था। ‘वर्गीय उम्मीद’ की वजह यही होती थी कि अर्थव्यवस्था पर सरकार का नियंत्रण था। इस ढांचे को बदला गया और नई उदारवादी व्यवस्था में जनता को ढाला गया। ‘सबसिडी’ सामूहिक कल्याण की व्यवस्था थी जिसका वोट में स्थानांतरण नहीं हो पाता था। इसलिए व्यक्तिगत ‘लाभार्थी’ लाया गया। कंपनी को ‘सबसिडी’ सिलेंडर की कीमत कम करने के लिए मिलती थी। अब लोगों के खाते में नकद हस्तांतरण के जरिए एक-एक वोट पक्का हो जाता है।

सरकारी रियायत यानी ‘सबसिडी’ के खिलाफ विमर्श तैयार हो गया और देश के एक तबके की मानसिकता इसे ‘भीख’ के तौर पर देखने को तैयार भी हो गई। रेल टिकट पर हिसाब दिया जाने लगा कि इसमें कितना पैसा आपका है और कितना सरकार का। समर्थ तबके से रसोई गैस सबसिडी छोड़ने की अपील की गई और एक बड़े तबके ने आगे बढ़ कर ऐसा किया भी।

राज्य की रियायतों को खत्म करने का एक ही तर्क था राज्य के खर्चे कम करना। इसका असर यह हुआ कि अमीर और गरीब के बीच की खाई तेजी से बढ़ने लगी। मध्य-वर्ग के पास कोई सांगठनिक शक्ति नहीं बच गई जिसके द्वारा वह राज्य से अपने हित-अहित पर संवाद कर सके। मध्य-वर्ग इस मानसिकता में आ चुका था कि अपनी जेब देखो, अपना बैंक खाता देखो। बजट में ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ इतिहास की किताबों की बातें बनने की ओर है। स्कूल व स्वास्थ्य जैसे निजी क्षेत्र मध्य-वर्ग की वर्गीय खाई बढ़ा रहे हैं।

अब ढांचागत नीतियों में बदलाव करने की नीयत राजनीति नहीं दिखा रही है। हर सत्ता अपनी अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़े ही देती है। लेकिन आर्थिक रूप से बढ़ती खाई की हकीकत हर कोई समझ रहा था। इसलिए लोककल्याणकारी बजट से सत्ता ने लोकलुभावन नारों का रुख किया। सत्ता समझ गई थी कि अगर लोगों तक मुफ्त-मुफ्त के जरिए न्यूनतम भी नहीं पहुंचाया जाएगा तो एक बड़ा तबका भूखा रह जाएगा।

दक्षिण के राज्यों ने इस वर्गीय खाई को महसूस कर सबसे पहले अपने राज्यों में मुफ्त के जरिए राहत देने की कोशिश की। वहां के राजनीतिक दलों ने व्यवस्थागत परिवर्तन का लंबा रास्ता चुनने के बजाए लोगों को निजी रूप से लाभान्वित करने की तुरंता योजना शुरू की। जल्द ही हम देंगे मुफ्त-मुफ्त राजनेताओं के लिए अखिल भारतीय आंदोलन बन गया।

उदारवाद के शुरुआती दौर में जिस मध्य-वर्ग को निजी संस्थानों के ‘पैकेज’ के रूप में ‘यूरेका-यूरेका’ वाला क्षण मिला था आज उसे डर है कि पता नहीं कब वह ‘पांच किलो पैकेट’ के मुफ्त-मुफ्त वाली श्रेणी में आ जाए। जब कथित मध्य-वर्ग की महिलाओं के जरिए पूरा परिवार इसका इंतजार करने लगे कि कौन सी पार्टी खाते में कितना डालेगी तो इस वर्ग के आर्थिक रूप से ‘बध्य’ होने में कितना समय लगेगा?

पेंशन को खत्म करने का पूरा रास्ता तैयार किया गया। श्रम कानूनों का यह हाल है कि कोई कारोबारी अपने कर्मचारियों से सरेआम हफ्ते में 70 से 90 घंटे काम कराने की बात कर देता है और किसी की भावना आहत नहीं होती। वह भी तब जब ये कारोबारी बहुत से मामलों में हमारे नीति-निर्धारक हो जाते हैं। मध्य-वर्ग अब इसी से संतोष कर रहा कि नौकरी तो है, उसकी स्थितियों के बारे में बात करने की शक्ति उससे छीन ली गई है।

राजनीतिक दलों ने सत्ता मिलने के साथ अर्थव्यवस्था के साथ जो भी किया लेकिन आम लोगों के मन में यह बात बिठा दी गई कि दूर के सार्वजनिक क्षेत्र का ढोल सुहावना नहीं लग सकता है। फिलहाल तो लोकलुभावन नीतियां यानी नजदीक के ढोल की धुन पर सब थिरक रहे कि उधर सरकार बनी और इधर हमारी जेब में इतना पैसा आया। जो सत्ता, शासित से ‘सबसिडी’ छोड़ने की अपील कर रही थी उसे मौजूदा हालात की बखूबी समझ है। वह जानती है कि देश की जनता की होली-दिवाली मुफ्त सिलेंडर से ही मन जानी है।

सरकारों ने श्रमिक क्षेत्र की आमदनी बढ़ाने को सत्ता का काम मानना ही छोड़ दिया है। वह जनता को कह रही कि काम की बात छोड़ो और खाते में इतने पैसे और अनाज लो, हमें वोट दो। ‘कल-कारखाने’ वैसे भी अब मंदिर का दर्जा प्राप्त नहीं रह गए हैं तो कामगारों को मुफ्त वाले दर्जे में ही आ जाना बेहतर होगा।

दिल्ली देश की राष्ट्रीय राजधानी है और यहां मुख्यधारा के तीन प्रमुख दल आने वाले राष्ट्र के लिए मुफ्त-मुफ्त की तस्वीर खींच चुके हैं। बाकी दल भी इसी राह पर हैं। किसी के पास ढांचागत बदलाव की बात कर चुनाव में उतरने का राजनीतिक साहस और संयम नहीं है। राजनीतिक दल अर्थव्यवस्था की हालत समझ रहे हैं और इन्हें पता है कि अब मुफ्त-मुफ्त की घोषणाएं लोक लुभावन नहीं, लोक के बड़े तबके के लिए जिंदा रहने का सहारा हैं। रेवड़ियां बांटते वक्त इनकी आंखें खुली हैं। इन्हें अंदाजा है कि इन्होंने अपने पिछले समय में व्यवस्थागत बदलाव के लिए काम नहीं किया इसलिए आगे आने वाले समय में स्थिति के बहुत ठीक होने की उम्मीद नहीं दिख रही। दुखद यह है कि दस साल पहले मिले राजनीतिक सबक के बाद देश की जनता के बड़े तबके ने राजनीति को बदलाव का माध्यम मानना छोड़ दिया है। जनता राजनीतिक दलों के बारे में सोच रही कि ये अपने फायदे के लिए आ रहे हैं और जिससे जितना तात्कालिक मौद्रिक या अन्य तरह का फायदा मिल रहा है उसे सत्ता में ले आओ।