शिवसेना के नेता संजय राउत ने ट्वीट किया, ‘महाराष्ट्र में विरोधी पक्ष ही नहीं रहेगा, यह दावा करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को विरोधी दल का नेता चुने जाने पर हार्दिक बधाई’। कर्नाटक के बाद हरियाणा व महाराष्ट्र, चुनाव बाद के गठबंधन पर भारतीय राजनीति का नया अध्याय लिख रहे हैं। एक समय हालात यह थे कि कांग्रेस के सामने अपने वजूद को बचाने के लिए समाजवादी से लेकर हिंदूवादी दल साथ आए थे। आज वही कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर अपनी राष्ट्रीय पहचान वापस लेने की कोशिश में है तो शिवसेना ने धर्मनिरपेक्ष साझा कार्यक्रम पर दस्तखत किए हैं। कुछ चुनावों के बाद विपक्षहीनता का नारा देने वालों का मुंह जनता ने एक बार फिर बंद कर दिया है। तीन दलों की साझा सरकार और उनके साझे कार्यक्रम पर बेबाक बोल।
कोई विचारधारा नहीं है। कितने दिन चलेगी यह सरकार? महाराष्ट्र में शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की ‘महाविकास आघाड़ी’ की साझा सरकार ने शपथ ले ली है। पिछले कुछ दिनों से चले ‘महा-नाटक’ ने ‘कर-नाटक’ को भी पीछे छोड़ दिया। संविधान से लेकर विधान तक पर सवाल उठे। अब मेरी नैतिकता, तेरी नैतिकता से कमजोर कैसे के बीच राजनीतिक टिप्पणीकारों के लिए यक्ष प्रश्न कि इस सरकार का भविष्य क्या होगा?
2014 के आम चुनावों के नतीजे की भविष्यवाणी तो एक छोटा बच्चा भी कर सकता था कि यूपीए सरकार जाएगी। लेकिन उसके बाद के चुनाव संपूर्ण भारतीय राजनीतिशास्त्र में अपना अलग-अलग अध्याय लिख रहे हैं। किसी राजनीतिक पंडित ने तुरत-फुरत गठबंधन सरकारों के अंत की घोषणा कर दी तो किसी ने कहा कि भारत दो-दलीय चुनाव व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है तो किसी ने क्षेत्रीय क्षत्रपों को श्रद्धांजलि दे दी। लेकिन महज हरियाणा से महाराष्टÑ तक आते-आते विपक्ष मुक्त भारत की घोषणा करने वाले टिप्पणीकार शायद अब अपना पिछला लिखा पढ़ना नहीं चाहेंगे। वैसे भी राजनीतिक टिप्पणियों की उम्र बहुत छोटी होती है। लेकिन एक टिप्पणी अजर-अमर है कि राजनीति में संभावनाओं का कोई अंत नहीं।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों पर पेशवा बनाम मराठा और पहचान की राजनीति से लेकर अन्य तरह के विमर्श हुए। सारे विमर्शों का केंद्र राजनीतिक दल हैं, उन्हें वोट देने वाली जनता नहीं। भाजपा, शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस के कुल वोटों को देखेंगे तो बात समझ में आएगी। लेकिन सबसे पहले हम भी बात कर लें नैतिकता की। नैतिकता को लेकर भाजपा और शिवसेना आमने-सामने हैं और राकांपा व कांग्रेस कठघरे में। वैसे राकांपा और अजित पवार के साथ विचारधारा के मेल को बताने के लिए देवेंद्र फडणवीस के पुराने ट्वीट ही काफी हैं। बिहार में सरकार बनाने का इतिहास भूल भाजपा के नेता बड़ी मासूमियत से पूछ रहे हैं कि लड़े तो हम साथ-साथ मगर सरकार इन लोगों ने कैसे बना ली। तो याद कीजिए, बिहार विधानसभा में तेजस्वी यादव का चीखता हुआ भाषण जिसमें वे नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी को साथ बैठ कर मुस्कुराते हुए देख कर कहते हैं कि चाचा ने भतीजे की कुर्सी छीन ली। भाजपा के हिस्से की नैतिकता का जवाब तो तेजस्वी के भाषण के रूप में सदन के पटल पर दर्ज है ही। भाजपा का कांग्रेस पर आरोप है कि मुख्यमंत्री पद का लालच दे गठबंधन बनाना खरीद-फरोख्त है। वह यह इल्जाम जरूर लगा सकती थी, अगर रातों-रात अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद का लालच देकर नियम-कायदों को ताक पर रख सुबह आम जनता के चैतन्य होने से पहले सरकार न बना लेती।
यह तो तय है कि शपथ लेने वाली सरकार में कोई विचारधारा नहीं है। लेकिन यहां विचारधारा से ज्यादा अहम है वजूद की लड़ाई। एक तरफ भाजपा का अखिल भारतीय हिंदूवाद है तो दूसरी तरफ कांग्रेस के विरोध में पैदा हुए तमाम छोटे दल। खुद कांग्रेस की हालत क्षेत्रीय दल जैसी हो गई है जो अस्तित्व खत्म होने के कगार पर पहुंच गई थी। अब जब वजूद होगा तभी तो विचारधारा को आगे कर सकेंगे। तीन दलों की साझा सरकार की स्थिरता का जो सवाल है वह इस वजूद की रक्षा से तय होगा। वजूद की चिंता थी इसलिए तीन दलों ने धैर्य से इतने दिन विचार-विमर्श कर गठबंधन का एलान किया। मुख्यमंत्री से लेकर उपमुख्यमंत्री और अन्य विभागीय पदों पर पहले ही मंथन कर लिया। फिलहाल तो यह सरकार चलाना तीनों पार्टियों की जरूरत है। शिवसेना और राष्टÑवादी कांग्रेस पार्टी का आधार क्षेत्रीय है तो कांग्रेस का राष्ट्रीय। महाराष्ट्र में कांग्रेस को क्षेत्रीय नहीं राष्ट्रीय लाभ उठाना है। यहां जब तक कांग्रेस के राष्ट्रीय चरित्र पर खतरा नहीं उठेगा तब तक टकराव रुका रहेगा।
आज जिसे अवसरवादिता कहा जा रहा है, वह वजूद को बचाने के लिए ही है। एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा अपना रूप विकराल कर चुकी है। हिंदुत्व की विचारधारा ने तमाम छोटी पहचानों को खत्म कर दिया है। अब यह इतनी बड़ी पार्टी है कि राजनीतिक चंदों का 95 फीसद उसके पास और बाकी सबके पास पांच फीसद। यह आर्थिक आंकड़ा अन्य दलों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक नजरियों पर बहुत भारी पड़ रहा है।
भारतीय राजनीति में एक ऐसा वक्त आया था जब समाजवादी से लेकर हिंदूवादी दल कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हुए थे क्योंकि तब तक कांग्रेस ऐसी बरगद बन चुकी थी जो किसी और पौधे को पनपने नहीं दे रही थी। अब भाजपा के बरगद वाले कद के रूप में वही स्थिति सामने है और इतिहास अलग रूप में खुद को दुहरा रहा है कि कांग्रेस अपना वजूद बचाने के लिए क्षेत्रीय दलों के साथ खड़ी है। शरद पवार की सरकार को इंदिरा गांधी की अगुआई में केंद्र सरकार ने बर्खास्त कर दिया था और आज सोनिया गांधी कांग्रेस के वजूद को बचाने के लिए शरद पवार की शर्तों को मान रही हैं।
2014 के बाद मध्यप्रदेश से लेकर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्टÑ में सबसे अहम सवाल खेती-किसानी को लेकर रहे। लेकिन राजनीतिक विमर्शों में यही सवाल हाशिए पर हैं। अब राकांपा से लेकर शिवसेना को इस बात की समझ आ रही है। अजित पवार ने भाजपा के साथ सरकार बनाने की अपनी हड़बड़ी को लेकर किसानों के हितों का हवाला दिया था कि किसान संकट में हैं इसलिए सरकार बनाना जरूरी था तो शरद पवार ने भी दिल्ली दरबार में अपनी बैठक को किसानों के लिए उठाया गया कदम बताया। इन तीनों दलों के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में इस बार सबसे अहम किसान ही हैं।
साझा कार्यक्रम जनता को आकर्षित करने के लिए ही बनाया जाएगा और उसकी मांग पर ही बात होगी। महाराष्टÑ में राकांपा की बुनियाद ही किसान हैं। चाहे वो हरियाणा हो या महाराष्टÑ, कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश इन सारे राज्यों में खेती-किसानी का संकट सबसे बड़ा था। जो इनके लिए लड़ा उसे सीधा लाभ हुआ। दूसरी तरफ मुंबई का नगर निगम है जिसका बजट देश के कुछ राज्यों के कुल बजट से ज्यादा है। देश की औद्योगिक राजधानी में शिवसेना निगमों में अपने वर्चस्व का फायदा देख रही है और राष्टÑीय स्तर पर भी अपना कद बढ़ाना चाह रही है।
2014 के बाद एक सबक यह भी देखा गया है कि सरकार बहुत मजबूत होती है तो जनता कमजोर होती है। मनमाने आर्थिक फैसलों की नाकामयाबी के बाद केंद्रीय मंत्री जिस तरह सिनेमा के टिकटों की बिक्री और ओला-उबर के जरिए सरकार के फैसलों को सही ठहराते हैं और हंगामा बरपने पर हौले से माफी भी मांग लेते हैं तो उसके बाद जनता के मन में एक बार तो जरूर आता होगा कि इनमें इतना अहंकार कहां से आया? भारत जैसे आर्थिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक विविधता वाले देश में गठबंधन सरकारों की अहमियत समझ आ रही है जिसका एक मीठा फल मनरेगा है। वैचारिक स्तर पर धुर विरोधी कांग्रेस और वामदल जब साथ मिले थे तो कमजोर तबके की जनता के लिए एक मजबूत फैसला हुआ था। आज महाराष्टÑ के साझा कार्यक्रम में किसानी और झुग्गी-बस्ती है। महाराष्टÑ में अब नजर इसी साझा कार्यक्रम पर रहेगी।
हिंदुत्व की पहचान वाली शिवसेना ने उस साझा कार्यक्रम पर दस्तखत किए हैं जिसमें अल्पसंख्यकों को मजबूत करने और धर्मनिरपेक्षता को बचाने की बात है। सरकार चलने की भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती लेकिन ये चेतावनी जरूर दी जा सकती है कि खेती-किसानी के वादों को अमल में लाकर ही ये दल अपने वजूद को मजबूत कर सकते हैं। लोकतंत्र किसी खास विचारधारा का रंग नहीं बल्कि जनता के ख्वाबों का असबाब है। भारतीय जनता ने हर अहंकार का जवाब साझा सरकार के रूप में ही दिया है। सत्ता के अहंकारी संकल्प के आगे जनता ने एक बार फिर विकल्प रख दिया है।