सड़क पर प्रदर्शन करते किसानों के बाद अब नौकरी की मांग को लेकर लाठी खाते युवा। चुनावों का असर ऐसा होता है कि बाजार और तेल की कीमतों का रिश्ता बताने वाले पैरवीकार मतदान तक चुप्पी साधने में ही अपनी भलाई समझते हैं। चुनावों का ही असर है कि प्रदर्शनों पर आंख मूंदने वाली सरकार के रेल मंत्री समझौते की भाषा बोलते हुए मीडिया के सामने आए। बाजार की झंडाबरदार सरकारें चुनाव आते ही बिजली, पानी मुफ्त-मुफ्त का एलान शुरू कर देती हैं। आरोप है कि उत्तर प्रदेश व पंजाब के विधानसभा चुनाव न होते तो कि सानों को खेती कानूनों की वापसी के लिए 2024 तक दिल्ली की सीमा पर बैठना पड़ता। राज्यों के विधानसभा चुनावों के समय अलग-अलग झुकने से बेहतर एक देश, एक चुनाव का नारा जनतंत्र की मजबूती के नाम पर दिया जा रहा है। इन तस्वीरों को साझे रूप से रख आने वाले समय की तस्वीर समझने की कोशिश करता बेबाक बोल

गम अगरचे जां-गुसिल है
प कहां बचें कि दिल है
गम-ए-इश्क गर न होता
गम-ए-रोजगार होता
-मिर्जा गालिब

इस स्तंभ में हम तीन दृश्यों के जरिए बात करते हैं-
पहले दृश्य में अदालत में अर्जी आती है चुनावों में राजनीतिक दलों की मुफ्त-मुफ्त वाली घोषणाओं के खिलाफ। अदालत में दाखिल याचिका में कहा गया कि ये मुफ्त-मुफ्त के एलान हमारे लोकतंत्र को कमजोर करते हैं। अदालत ने सवाल पूछा कि इस याचिका में सिर्फ दो राजनीतिक दलों के नाम क्यों हैं, जबकि चुनाव में मुफ्त सुविधाओं का एलान सभी दल करते हैं।

गणतंत्र को लेकर इन्हीं चिंताओं के बीच 26 जनवरी को प्रयागराज से वैसे दृश्य आने शुरू हो जाते हैं, जैसे कभी जेएनयू और जामिया से आए थे। उत्तर प्रदेश की पुलिस तंग गलियों के छात्रावास में रह रहे विद्यार्थियों के कमरों के दरवाजे लाठियों से तोड़ रही थी।

छात्रावासों से निकाल कर युवाओं को पीटा जा रहा था। पुलिस अधिकारी कैमरे पर बोल रहे थे कि प्रदर्शन करने वाले एक-एक युवाओं की पहचान हो चुकी है और उन पर सख्त कार्रवाई की जाएगी। रेलवे बोर्ड ने तो एलान ही कर दिया था कि जो युवा प्रदर्शन में शामिल हैं उनकी पहचान की जाएगी।

हिंसा और अपराध के नायकत्व के महिमामंडन से लबरेज अर्जुन अल्लू की ‘पुष्पा’ देख कर मर्दानगी वाले मीम शेयर कर चुका युवा पत्रकारों के कैमरे के सामने फूट-फूट कर रो रहा है। वह बिलखते हुए कह रहा है कि तीन साल से परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, नौकरी कब मिलेगी। हमारे पास जमीन नहीं है कि खेती या कारोबार करें। हम नौकरी की कोशिश करने के अलावा और क्या कर सकते हैं।

बिहार में कुछ छात्रों ने छब्बीस जनवरी को रेल रोक कर उसके सामने राष्ट्रगान गाना शुरू कर दिया। कोई आग लगा रहा था तो कोई जली आग के सामने रो रहा था, सबकी हताशा एक ही है-नौकरी। ठीक इसके एक साल पहले की छब्बीस जनवरी का दृश्य याद करें। सरकार किसानों से संवाद करने को तैयार नहीं थी।

किसानों ने सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए ट्रैक्टर परेड निकाली जो हिंसा और आपत्तिजनक दृश्यों के ‘कोलाज’ में बदल गया। उसके बाद भी सरकार संवाद के लिए आगे नहीं बढ़ी। हां, साल के अंत में केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को वापस ले लिया। तब, कहा गया कि अगर उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव नहीं होते तो सरकार हर्गिज इस कानून को वापस नहीं लेती।

उस हालत में शायद किसानों को 2024 तक दिल्ली की सीमा पर बैठना पड़ सकता था। इसके साथ ही किसान आंदोलन की अभी तक जीत सिर्फ इतनी है कि सरकार ने अपने लाए कानून वापस लिए हैं। खेती और किसानी के सवाल आज भी वहीं खड़े हैं जहां से शुरू हुए थे।

तीसरे दृश्य के तहत केंद्र सरकार फिर से एक देश, एक चुनाव का नारा लगाती है। मजबूत लोकतंत्र के लिए एक साथ चुनाव की अहमियत बताई जाती है।

अदालत में राजनीतिक दलों की मुफ्त घोषणाओं के खिलाफ याचिका, नौजवानों का नौकरी के लिए प्रदर्शन और उनकी पिटाई, खेती-किसानी के मुद्दे का ठहर जाना और एक देश, एक चुनाव का नारा। हम इन दृश्यों को एक साथ मिलाएं तो हमें वैसी तस्वीर दिखाई देगी जिसकी आधुनिक कला कह कर खिल्ली उड़ाई जाती है कि कुछ समझ में नहीं आया। या फिर इसे बेसिर-पैर की आधुनिक कविता कह दिया जाएगा।

यह सब इसलिए किया जाएगा कि सरकार से लेकर बाजार तक आर्थिक मोर्चे पर ठहरे हुए से महसूस कर रहे हैं। बार-बार चुनाव आ जाने के कारण सरकारों को अपने सुधारवादी एजंडे को आगे बढ़ाने में दिक्कत हो जाती है।

सरकार अनुच्छेद-370 के खात्मे जैसा मुश्किल राजनीतिक फैसला करने में कामयाब हुई। लेकिन, कृषि कानून जैसे आर्थिक मसले पर उसे कदम वापसी के लिए मजबूर होना पड़ा। अर्थव्यवस्था सुधार को लेकर बाजार को इस सरकार से जितनी उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हो पा रही है।

सरकार को वोट इसी जनता से लेना है, इन्हीं के समर्थन से सरकार बननी है। बाजार और तेल के रिश्ते को वैध बनाने की सारी कोशिश उप-चुनाव के नतीजों के बाद धराशायी हो गई। अब बाजार व तेल के पास उत्तर प्रदेश के नतीजों का इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसका एक संभावित विकल्प देखा जा रहा है एक देश, एक चुनाव में।

उधर, नए रेलमंत्री भौचक हैं। अफसरी से मंत्रालय तक का सफर तो पसंदगी से तय हो गया। पर, मंत्रालय से जनमंत्रालय का सफर उतना भी आसान नहीं क्योंकि वहां तक किसी एक की पसंद से पहुंचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है अश्विनी वैष्णव जी। वैष्णव सहित कई मंत्रियों को कुर्सी दूसरे अन्य मंत्रियों को दी गई सजा के तौर पर मिली थी।

उनके पूर्ववर्तियों को तो सजा देने के पहले अपराध भी नहीं बताया गया था। अपराध तब तय होता जब आप समस्या की पहचान कर उसका हल तलाशने की क्षमता रखते। येन-केन प्रकारेण चुनाव जीत लेने भर से आप जनतंत्र को मजबूत करने वाली शक्ति नहीं बन सकते हैं। आप सिर्फ इतिहास बदलने के ख्वाहिशमंद हैं, उससे सबक लेकर आगे बढ़ने के नहीं। आज आपके झंडाबरदार भी आपसे निराश हैं।

बीसवीं सदी का अंतिम समय हमारे जेहन में ताजा है। वो युवा ही था जो अपनी सफेद पोशाक के कंधों पर उदारवाद का बिल्ला लगा कर आगे बढ़ा था। उन्हें लग रहा था कि उनकी मुक्ति की राह उदारीकरण के राजमार्ग से गुजरेगी।

महीने की तनख्वाह सालाना पैकेज में तब्दील हो चुकी थी। निजीकरण से बनते एक नए देश की सेना वही युवा थे जो दस से पांच की नौकरी को हिकारत की नजरों से देख रहे थे। इस सेना ने मध्य वर्ग का रंग-रोगन कर बाजार को चमका दिया। ईएमआइ वाली पीढ़ी खुशी-खुशी निजीकरण की सीढ़ी पर चढ़ने लगी।

इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक खत्म होते ही युवाओं की वो सेना आज पस्त हो चुकी है। सारे आंकड़े बता रहे हैं कि संपत्ति और विकास बहुत सीमित लोगों तक सिमट चुके हैं। बाजार के आसमान से उतरा युवा सड़क पर लाठी खा रहा है।

रेलवे सबसे ज्यादा नौकरी सृजित करने वाला बोर्ड था। उसने भी तीन साल से परीक्षा को लटका कर रखा। इतने इंतजार के बाद परीक्षा हुई भी तो उस में गड़बड़ी के आरोप हैं। हम क्या करें, इनके इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।

आज पूरे देश की जनता गहरे संकट के दौर से गुजर रही है। बीसवीं सदी सपने देखने की सदी थी। लेकिन शुरुआती दौर में तो इक्कीसवीं सदी सपने तोड़ने वाली कड़ी बन रही है। इस संकटकालीन दौर में मुक्ति का रास्ता कहां से निकलेगा इसी पर गहरा सवाल है।

क्या लोकतंत्र हमें इस संकट से निकालेगा? या फिर लोकलुभावन वादों के जरिए एक देश एक चुनाव की ओर बढ़ कर लोकतंत्र को बांध दिया जाएगा? हर जगह ‘एक देश’ वाले नारों के बीच में जो अनेक सवाल निकल रहे हैं, फिलहाल उसका जवाब इस स्तंभकार के पास भी नहीं है।