चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफू क्या है
-मिर्जा गालिब

कोरोना की पहली लहर में सड़क पर पैदल निकले मजदूर, यात्रियों को लेकर भटकती रेलगाड़ियों के बाद दूसरी लहर में इलाज करवाने अस्पताल पहुंचा मध्य-वर्ग भी ढीली जेब और खाली पेट की हालत में पहुंच गया। गरीब वर्ग तो इलाज करवाने अस्पताल भी नहीं पहुंच सका और मौत कबूल कर ली। कुछ घरों में कोई कमाने वाला भी नहीं रहा। जनता के इस हाल के बाद भी सरकार ने महामारी से मौत पर मुआवजा देने से इनकार कर दिया। आपदा में मुआवजा जनता का हक है और सरकार इससे मुंह नहीं मोड़ सकती। जनता के वोट से जनता के कोष की मालिक बनी सरकार के असंवेदनशील रवैए पर बेबाक बोल

‘आपका कर्तव्य है कि आप राहत के न्यूनतम पैमाने बताएं। ऐसा कुछ भी रेकार्ड में दर्ज नहीं है जिससे पता चले कि कोविड पीड़ितों के लिए आपने ऐसी राहत या मुआवजे का कोई दिशानिर्देश जारी किया हो। आप अपना वैधानिक कर्तव्य निभाने में विफल रहे हैं।’ कोविड से मौत की संख्या चार लाख छूने के पहले सुप्रीम कोर्ट ने जनता को राहत देने से सरकार के इनकार पर यह फटकार लगाई। जिस राहत को देने के लिए सरकार को खुद ही कदम उठाना था उसके लिए देश का नागरिक अदालत में पहुंचा और नागरिक बनाम भारत सरकार की तकरीर में फिर यह बात सामने आई कि कोरोना को लेकर सत्ता कितनी असंवेदनशील रही। कोरोना की पहली लहर में पूरी दुनिया ने भारत की सड़कों पर पैदल चलते मजदूरों को देखा, रेल की पटरियों पर मजदूरों की लाश के बगल में रोटियों का दृश्य हम सब भुला नहीं पाए हैं। भटकती हुई रेल और उसमें मरते हुए यात्रियों की पुकार अभी भी कानों में गूंज रही है। यह सब तो पहली लहर की ही कहानी थी।

कोरोना से हुई मौत पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला देते हुए कहा कि जान गंवाने वाले लोगों के परिजन मुआवजा पाने के हकदार हैं। कोरोना को आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत आपदा घोषित किया गया है। अधिनियम के तहत मुआवजा देना सरकार की जिम्मेदारी है और वो इससे मना नहीं कर सकती है। इसके पहले केंद्र सरकार ने अदालत में दिए हलफनामे में कहा था कि कोरोना प्राकृतिक आपदा की श्रेणी में नहीं आता और इसके मुआवजे से उस पर भारी आर्थिक बोझ पड़ेगा।

कोरोना की पहली लहर में तबाही का चरम पहुंचने के बाद भी सरकार और अदालत में नोक-झोंक चल रही थी। सरकार के वकील उन लोगों को गिद्ध की संज्ञा दे रहे थे जो सड़कों पर चलते मजदूरों की तस्वीरें लेकर वीडियो बना रहे थे। हर नकारात्मक बात को विपक्ष की साजिश करार दिया जा रहा था। इन सबके बीच कमजोर तबके के लोगों की मदद के लिए कुछ योजनाएं बनीं। खाद्यान्न सुरक्षा के तहत ही गरीब तबकों को मदद मिली। कुछ नकद हस्तांतरण योजनाएं भी शुरू की गईं। पहली लहर में तो गरीब तबके के पास खोने के लिए कुछ नहीं रहा, लेकिन दूसरी लहर के बाद सबसे बुरी हालत उस मध्य वर्ग की हुई जिसके पास न तो राशन कार्ड है न वो किसी तरह की जनकल्याणकारी योजना का हिस्सा है। पहली लहर में रोजगार की मंदी के बाद दूसरी लहर में मध्य वर्ग के पास जान बचाने की आफत आ पहुंची।

मध्य-वर्ग की मदद के लिए सरकार के पास कोई पैकेज, कोई ठोस योजना नहीं थी। पहली लहर के समय जो भी राहत की बात हुई वह ईएमआइ और विभिन्न तरह के बैंक कर्जों को लेकर हुई कि कुछ दिनों तक इसका या उसका ब्याज नहीं दीजिए। लेकिन बाद में उसका भी भुगतान करना पड़ा जो लोगों के लिए और बड़ा आर्थिक बोझ बन गया। बैंक कर्ज पर अपना जीवन स्तर बढ़ा चुके लोगों के लिए कोई योजना उस रूप में नहीं आई कि उन्हें जमीनी मदद मिल सकती। इनसे जूझते हुए ही कोरोना की दूसरी लहर और घातक व व्यापक रूप में आ गई।

कोरोना की दूसरी लहर ने मध्य वर्ग की सेहत के खर्च पर जबरदस्त दबाव डाला। वहीं गरीब तबका तो अस्पताल तक भी नहीं पहुंच सका। नदियों के किनारे दफनाई गई लाशों ने उस बहुत बड़े सच से पर्दा उठा दिया जिस पर हम आंखें मूंदे थे। गरीब वर्ग के लोगों ने चुपचाप उस मौत को कबूल कर लिया जो सरकारी नाकामी की देन थी। लेकिन मध्य-वर्ग ने अपनी जिंदगी के लिए अंत तक जद्दोजहद की। वो अस्पताल गया और वहां इतना खर्च हुआ कि आर्थिक रूप से टूट गया। बहुत घरों में लाखों खर्च करने के बाद भी एकमात्र कमाने वाले का जीवन नहीं बच सका।

अब सवाल है कि इन सबमें राज्य की क्या भूमिका है? जिस घर में माता-पिता चले गए उनके अनाथ बच्चों का क्या होगा। दिल्ली, कर्नाटक, बिहार की सरकारों ने मुख्यमंत्री राहत कोष के जरिए मदद की प्रक्रिया शुरू भी की। राज्य सरकारों ने अपनी तरफ से छोटे पैकेज दिए। लेकिन देश के नीति नियंताओं ने इन कदमों को भी यह कहते हुए हतोत्साहित किया कि ये व्यावहारिक नहीं हैं। तर्क था कि इससे पहले ही बदहाल हुई अर्थव्यवस्था का और बुरा हाल होगा। उन्हें खौफ है कि एक बार इस पिटारे को खोलने का मतलब है अनिश्चितकाल तक के लिए इससे जूझना। एक बार इसे शुरू करने के बाद रोकना संभव नहीं होगा।

मुआवजे पर सरकार के इनकार की बड़ी वजह है इस महामारी को लेकर अनिश्चितता। यह आगे कब और कैसा रूप धरेगी कोई नहीं जानता। जितने लोगों की अभी तक मौत हुई है उसे अंत नहीं माना जा सकता है। अब सरकार के सामने दो रास्ते हो सकते हैं। या तो वह जनता के लिए रियायती स्वास्थ्य ढांचा जल्द से जल्द खड़ा करे। गांव के प्राथमिक केंद्र से लेकर, जिला केंद्र से होते हुए राज्य स्तर तक बड़े अस्पताल बनाने की कड़ी पर काम करना होगा, तभी इतनी बड़ी महामारी से मुकाबला किया जा सकता है। लेकिन नब्बे के दशक से ही सरकारों की नीति निजीकरण की है तो वो इस पर इतने बड़े निवेश के लिए तैयार नहीं होगी। यही वजह है कि सरकार ने स्वास्थ्य सेवा के विकल्प में निवेश की दिशा में जाने के बजाए बीमा आधारित व्यवस्था खड़ी की। गरीब तबके के लिए आयुष्मान योजना और मध्य वर्ग बाजार आधारित बीमा से अपने लिए खुद इंतजाम करे।

कोरोना में आयुष्मान योजना ने दक्षिण भारत में थोड़ी राहत दी लेकिन उत्तर भारत में नाकाम रही। वहीं उपभोक्ता वर्ग का खिताब पाए मध्य-वर्ग के लिए एक तरफ तो कमाई के मौके घटे और स्वास्थ्य संबंधी चिंता का बेइंतहा खर्च उसकी जेब पर आ गया। सरकार अपनी उदारवादी नीति से पीछे हटना नहीं चाहती है लेकिन जनता की इस चिंता पर संवाद सबसे जरूरी है। महामारी का मुकाबला बिना सरकारी निवेश को बढ़ाए हुए नहीं किया जा सकता है। मानवीयता के आधार पर अदालत सरकार से कह रही है कि वह अपनी जनकल्याणकारी भूमिका के कर्तव्य का पालन करे। लेकिन सरकारों की दिशा तीन दशक पहले ही जनकल्याणकारी से हटकर उदारवादी नीति की ओर बढ़ चुकी है। कोरोना से मौत पर मुआवजे का संघर्ष उसी नीति का नतीजा है।

हमें नवउदारवाद नीति के अग्रदूतों अमेरिका और यूरोप के देशों की ओर देखना होगा। कोरोना के बाद वे अपने यहां जनकल्याणकारी योजना लेकर आए अपनी अर्थव्यवस्था बचाने के नाम पर। अमेरिका ने स्वास्थ्य संबंधी बड़े पैकेज दिए हैं, जनता को सीधे नकद हस्तांतरण हुआ है। लेकिन भारत सरकार इस तरह की राहत देने से इनकार कर रही है। घर के कमानेवाले के मरणोपरांत जो परिवार है, बच्चे हैं उनकी देखभाल के लिए, उनकी तात्कालिक राहत के लिए अगर राज्य सरकारों ने योजना लाने की भी कोशिश की तो उसे आर्थिक नीति के नाम पर हतोत्साहित कर दिया। इसलिए अंत में अदालत को दखल देना पड़ा है। अदालत ने रकम तय नहीं की है लेकिन इसे लेकर राहत कार्यक्रम तो लाना ही होगा। जनता की ढीली जेब और खाली पेट के साथ कोई अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं हो सकती है। सड़क पर मजदूर से लेकर, टीकाकरण तक में अदालत को दखल देना पड़ रहा है।

जब जनता में हाहाकार मचा है तो सरकार को खुद इस तरह का मुआवजा पैकेज लाना चाहिए था। कोई भी राजकोष देश के नागरिकों से बड़ा नहीं हो सकता। सरकारी खजाना भी उस जनता का है जिससे वोट मांग कर आप कुछ सालों के लिए उसके मालिक बन जाते हैं। इस तरह का मुआवजा नागरिकों का हक है और उसके लिए अगर अदालत में इनकार और फटकार की कार्रवाई हो तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और कुछ नहीं हो सकती है।