लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनआंदोलनों की खास जगह रही है। लेकिन काफी समय से देखा जा रहा है कि सरकारें लोकतंत्र की इस बुनियाद को लेकर असहिष्णु हो चुकी हैं। दिल्ली में नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन के दौरान गोली मारो और हम दो दिन में रास्ता खाली करवा सकते हैं जैसे बयान दिए गए तो किसान आंदोलन को लेकर हरियाणा के मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री तक ने जैसे को तैसा और दो मिनट नहीं लगेंगे से मामला निपटाने की बात कही। राजनेताओं का भड़काऊ भाषण देना अब सामान्य बात हो चुकी है। किसान आंदोलन ने लंबे समय से सरकार को मुश्किल चुनौती दे रखी है। अभी तक दोनों में से कोई भी पक्ष अपनी शर्तों से जरा भी इधर-उधर होने को तैयार नहीं दिख रहा था। लखीमपुर में एक नजीर दिखी कि अपना-अपना नुकसान होते देख योगी सरकार और टिकैत बहुत जल्दी वार्ता के मंच पर आए। किसान आंदोलन के लखीमपुर मोड़ पर बेबाक बोल

मुझे बंदगी का सबक मत पढ़ाओ
कहां झुकना है मेरा सर जानता है

जकी तारिक बाराबंकवी

‘हम भी किसान हैं आप भी किसान हैं, यहां आंदोलन क्यों नहीं फैल गया…। पीठ पीछे काम करने वाले ऐसे दस-पंद्रह लोग यहां पर शोर मचाते हैं तो यहां पूरे देश में फैल जाना चाहिए था आंदोलन। अगर कृषि कानून खराब होते, क्यों नहीं फैला, दस-ग्यारह महीने हो गए। ऐसे लोगों को कहना चाहता हूं कि सुधर जाओ, नहीं तो सामना करो आकर हम आपको सुधार देंगे दो मिनट नहीं लगेगा। मैं केवल मंत्री नहीं हूं या केवल सांसद या विधायक नहीं हूं। जो लोग हैं विधायक या मंत्री बनने से पहले मेरे बारे में जानते होंगे कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं। जिस दिन मैंने उस चुनौती को स्वीकार करके काम कर लिया उस दिन पलिया नहीं लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा यह याद रखना।’

कोरोना महामारी से पस्त होने के बाद हुए मंत्रिमंडल फेरबदल में केंद्र सरकार ने बिना वजह बताए कई वरिष्ठ मंत्रियों को पद से हटा कर अजय मिश्रा टेनी जैसे लोगों को सरकार का हिस्सा बनाया तो सभी चौंक रहे थे। उस वक्त लोग सिर्फ जातिगत समीकरण देख रहे थे, लेकिन मंत्री की यह विशेषता बाद में पता चली कि वो आंदोलनकारी किसानों को दो मिनट में सुधार सकते हैं, और वे मंत्री या विधायक बनने के पहले क्या थे, यह भी मालूम हुआ।

अपनी राह में खड़े आंदोलनकारी किसानों को जब अपनी कार से निकाल कर अंगूठा दिखाते हैं, तो वे प्रदर्शन के सांवैधानिक अधिकार को ही ठेंगा दिखाते आगे बढ़ जाते हैं। लखीमपुर खीरी में क्रूर हिंसा के बाद मंत्री जी के शर्मनाक बयान हर किसी के फोन में गूंज रहे हैं। फिलहाल तो उन पर किसी तरह की कोई कार्रवाई होती नहीं दिख रही, तो लगता है कि मंत्रियों के मुंह से इस तरह के बयान को अब नया सामान्य मान लिया गया है।

इसके पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री ‘अपने किसानों’ को तैयार कर जैसे को तैसा वाला बयान देकर अहंकार के चरम का प्रदर्शन कर चुके हैं। उन पर हिंसा भड़काने वाली भाषा बोलने के आरोप लग रहे हैं। जब किसी कार्टून या किसी व्यंग्य पर भी लोगों की गिरफ्तारियां हो रही हैं तब अजय मिश्रा और खट्टर जैसे नेताओं के अलोकतांत्रिक बयान पर कोई कार्रवाई नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण है। जो उत्तर प्रदेश सरकार अपने यहां अपराधियों के खौफ खाने का प्रचार कर रही थी उससे सुप्रीम कोर्ट ने लखीमपुर खीरी मामले में पूछा है कि आप क्या संदेश दे रहे हैं? क्या सूबे में अन्य आरोपी, जिनके खिलाफ हत्या के तहत मामला दर्ज किया जाता है, उनके साथ भी ऐसा ही व्यवहार होता है?

खट्टर किसान आंदोलन को लेकर पूरी तरह नाकाम साबित हो चुके हैं लेकिन हरियाणा में उनकी कुर्सी को कोई खतरा नहीं पहुंचा। इसकी वजह शायद यह भी हो सकती है कि भाजपा ने हरियाणा को हारा हुआ मान लिया है तो फिर वह वहां के मुख्यमंत्री को उत्तराखंड और गुजरात के मुख्यमंत्रियों की तरह क्यों बदलेगी। जिस हरियाणा से भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने की उम्मीद नहीं दिख रही वो खट्टर को ही झेले।

अहम सवाल है आंदोलनों को लेकर राजग सरकार के अहंकारी व असंवेदनशील व्यवहार का। बरसों बाद किसानों की अगुआई में ऐसा आंदोलन शुरू हुआ जिसने सरकार को लंबे समय से परेशान कर रखा है। इस आंदोलन को लगातार बदनाम करते हुए खारिज करने की कोशिश हुई। खट्टर से लेकर अजय मिश्रा तक के मामले में हम साफ देख सकते हैं कि आंदोलन का अपराधीकरण करने की रणनीति को ही अभी सबसे कारगर माना जा रहा है। इसके पहले दिल्ली में नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन को खत्म करने के लिए भी यही किया गया था।

कपिल मिश्रा इसी तरह के बयान दे रहे थे कि मैं दो दिन में रास्ता खाली करवा सकता हूं। अनुराग ठाकुर जनसभा में गोली मारो…के नारे लगवा रहे थे। इन सबका नतीजा था कि उत्तर पूर्वी दिल्ली का एक बड़ा हिस्सा दंगे की आग में झुलस गया। अब खट्टर से लेकर मिश्रा तक किसानों के प्रति ऐसा ही माहौल तैयार कर रहे हैं कि निकलो, दो मिनट में सुधार दो। यानी भीड़ को भड़का कर हिंसा करवा दो और आंदोलन को बदनाम करो।

आखिर सरकार के पास ऐसी क्या मजबूरी है कि वह आंदोलनकारियों से बातचीत नहीं कर पा रही है। सरकार के नुमाइंदों ने हमेशा यही रुख दिखाया कि हम इस मसले पर किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे, जो करना है कर लो। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार चुनावी मौसम में मामला बिगड़ता देख तुरंत टिकैत का सहारा लेकर बातचीत की मेज पर बैठ गई। उन्हें यह बात अच्छी तरह पता है कि यहां मामला शांत नहीं हुआ तो आगे बड़ा राजनीतिक नुकसान हो सकता है। फिलहाल भाजपा और योगी जी उत्तर प्रदेश को जीता हुआ ही मान रहे हैं। यानी राजनीतिक नुकसान न हो इसके लिए आप तुरंत संवाद की मेज पर आ सकते हैं। गाजीपुर सीमा पर जिसका पानी बंद कर दिया, इंटरनेट का कनेक्शन खत्म कर दिया उसी टिकैत को लखीमपुर खीरी बुला कर सरकार ने किसानों से संवाद सेतु बनाया।

तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं को हिरासत में लेकर, घर में नजरबंद करके और हवाई अड्डे से लेकर हर जगह पुलिस बल बिठा कर विपक्ष के हर चेहरे को पहले लखीमपुर जाने से रोका गया। लेकिन इस मामले का राजनीतिकरण न हो इसलिए टिकैत को मुक्तिदाता बना दिया। जब अभी आप टिकैत से संवाद और समझौता कर सकते हैं तो फिर यह संवाद पूरे किसान आंदोलन को लेकर क्यों नहीं हो सकता है। मतलब यह आपकी सरकार के लिए नाक का नहीं सिर्फ राजनीतिक नफा-नुकसान का सवाल है।

किसान आंदोलन को लेकर अभी तक आपकी रणनीति खालिस्तानी, आतंकवादी बता इसके अपराधीकरण करने की है। आप अभी तक सोच रहे हैं कि यह आंदोलन एक दिन अपने-आप दम तोड़ देगा, महत्त्वहीन साबित कर दिया जाएगा। लेकिन उत्तर प्रदेश में आप आनन-फानन में टिकैत को मध्यस्थ बना डालते हैं।

लखीमपुर की लकीर पर यही सवाल टिकैत से भी है कि आप तुरंत समाधान पर समझौते के लिए कैसे तैयार हो गए। संयुक्त किसान मोर्चा जो अभी तक अपने एक बिंदु से भी टस-मस होने को राजी नहीं हो रहा है लखीमपुर में सरकार के पक्ष में ही झुका दिख रहा है। उत्तर प्रदेश के पुलिस मुखिया की प्रेस कांफ्रेंस में टिकैत की भूमिका उत्तर प्रदेश सरकार के प्रमुख सलाहकार जैसी दिख रही थी। किसानों की मांग तो आरोपियों की गिरफ्तारी के पहले मृतकों के अंतिम संस्कार करने की भी नहीं थी। क्या इसकी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश में टिकैत का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है।

लखीमपुर खीरी के अध्याय से यह तो सबक मिल ही गया है कि किसान आंदोलन कहीं भी जीवित हो सकता है और किसान मर कर भी सत्ता को मात दे सकता है। लेकिन अब यह भी सोचने का वक्त है कि जान-माल का यह नुकसान कितना और आगे बढ़ेगा। गलती चाहे जिस पक्ष की भी हो इसके पहले भी किसान आंदोलन में लोगों की जान गई है। जब लखीमपुर में सत्ता और किसानों के नेता टिकैत इतनी जल्दी संवाद और समझौते पर उतर सकते हैं तो अन्य जगहों पर यह सूत्र क्यों नहीं अपनाया जा सकता है?

सत्ता पक्ष और किसान नेता दोनों अब तक हुए नुकसान का आकलन कर लखीमपुर में हुए संवाद और समझौते की नजीर को आगे बढ़ाएं। इतनी मौतों के बाद तो दोनों पक्षों को समझौते के लिए सिर झुका ही लेना चाहिए।