प्रशांत किशोर जैसे चुनावी योजनाकार भारत की राजनीति को छवि प्रबंधन और व्यक्तिवाद तक ही सीमित रखने की कोशिश में जुटे हैं। इसी वक्त अपने एक साल से ज्यादा लंबे समय तक चले किसान आंदोलन ने साबित किया कि सामूहिकता के स्वर में नीतिगत मुद्दे पर टिके रह कर प्रचंड बहुमत वाली सरकार को झुकाया जा सकता है। कानून वापसी पर केंद्र सरकार की दरियादिल बनने की कोशिश को भी किसानों ने नाकाम कर इसे हक की लड़ाई का हासिल ही साबित किया। दिल्ली की सीमा से किसानों का पड़ाव भले ही उठ रहा हो, लेकिन यह भी सच है कि आगे खेती और किसानी के संकटों को कई पड़ावों से गुजरना होगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गुत्थी अभी मुश्किल ही है और लखीमपुर कांड के आरोपी के पिता गृह मंत्रालय में अपने पद पर बने हुए हैं। दिल्ली की सीमा से पूरे देश को प्रभावित करने वाले इस आंदोलन पर बेबाक बोल

यूं ही हमेशा उलझती रही है
जुल्म से खल्क
न उन की रस्म नई है
न अपनी रीत नई
यूं ही हमेशा खिलाए हैं
हम ने आग में फूल
न उन की हार नई है
न अपनी जीत नई

  • फैज अहमद फैज

कानून वापसी, मुकदमा वापसी, बिजली कानून पर किसानों के साथ चर्चा, पराली जलाना अपराध के दायरे से बाहर। ये हासिल है 378 दिन चले किसान आंदोलन का। जिस आंदोलन को दो राज्यों (हरियाणा, पंजाब) और बाद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश भर का मामला बता कर खारिज करने की कोशिश की गई थी उसकी गूंज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिहाना से लेकर मियां खलीफा तक सुनाई दी। आजादी के बाद हुए जनांदोलनों में यह अपना अलग अध्याय बना गया। किसान आंदोलन हमारे देश की संसदीय राजनीति को लोकतांत्रिक पाठ्यक्रम का सार दे गया है। आने वाली नस्लें इसकी मिसालें पढ़ेंगी। यह किसी राजनीतिक मंच का शुरू किया हुआ आंदोलन नहीं था। जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा खड़ा किया गया आंदोलन था।

पिछले कुछ समय में हमारे देश ने कई तरह के आंदोलन देखे और हर आंदोलन को दूसरी आजादी और अण्णा जैसे आंदोलनकारी को दूसरा गांधी साबित करने की हड़बड़ी थी। जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से शुरू हुआ आंदोलन दिल्ली में सत्ता की ताजपोशी के साथ खत्म हो गया था। कंगना रणौत ने जब कहा कि देश को 2014 के बाद आजादी मिली है तो बेशक उनकी मूर्खता पर हंसा गया। लेकिन इस देश ने इसके पहले हंसी-हंसी में उन लोगों को ‘दूसरी आजादी’ लाने वाला और ‘दूसरा गांधी’ मान लिया जिनका मकसद एक व्यक्ति विशेष के खिलाफ प्रचार कर खुद सत्ता हासिल करना था।

दूसरी आजादी और दूसरे गांधी वाले आज देखें कि किसी आंदोलन का गरिमामय अंत कैसे होता है। किसी भी आंदोलन-प्रदर्शन की सफलता इस बात में देखी जाती है कि जीत में हासिल क्या हुआ। किसान आंदोलन को जिस तरह की नीतिगत सफलता मिली, यह न तो अण्णा हजारे के पास थी और न अरविंद केजरीवाल के पास। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए न तो कोई नीति बनी और न ही ठोस जनलोकपाल कानून बन पाया। बस सत्ता मिली और आंदोलन खत्म हो गया।

मजे की बात है कि इसके बाद आम आदमी पार्टी अपनी सत्ता के इलाके में आंदोलन-विरोधी रुख अपनाने लगी। उसके विरोध का मकसद एक मौजूदा सरकार को हटा कर दूसरी सरकार को लाना था जिसमें उसे पूरी सफलता मिली। अगर ऐसा न होता तो भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के आंदोलनकारी उन सभी आरोपियों के खिलाफ अदालत में मजबूती से लड़ते, जिनके खिलाफ जनता की अदालत के साथ कानूनी अदालत में मामले दर्ज करवाए गए थे। लेकिन सत्ता मिलते ही वे आंदोलनवीर से माफीवीर बन गए।

आज के दौर में आम आदमी पार्टी राजनीतिक विकल्प के मूल सवाल से हट चुकी है। आंदोलन वाली पार्टी को दिल्ली की सीमा पर समाप्त हो चले किसान आंदोलन में कोई रुचि नहीं थी। एक ऐसा ऐतिहासिक आंदोलन, जिसने हाल के समय की सबसे शक्तिशाली केंद्र की सत्ता को झुकने के लिए मजबूर किया।

एक साल से ज्यादा समय चला किसान आंदोलन किसी तरह के राजनीतिक विकल्प लाने का दावा नहीं कर रहा था। किसान आंदोलन ने अपने मंच से सिर्फ नीतिगत सवाल खड़े किए। इसके उलट आम आदमी पार्टी सिर्फ जनअसंतोष का फायदा उठाने के लिए खड़ी हुई थी। जनअसंतोष से नीति को अलग कर नीयत और चेहरे का सवाल बना दिया। नीति को व्यक्तिवाद में तब्दील कर राजनीतिक अवसरवाद में बदलने को ही राजनीतिक विकल्प का नाम दिया जा रहा है।

किसान आंदोलन में सभी संगठन इसलिए इकट्ठा नहीं हुए कि भाजपा को हटा कर कांग्रेस को सत्ता में लाना है। या किसी राज्य में किसी व्यक्ति विशेष को सत्ता दिलानी है। किसान आंदोलन के मंच से सिर्फ जनविरोधी नीति को जननीति में बदलने की मांग की जा रही थी। इसी कारण इतने बड़े और मजबूत आंदोलन को कोई राजनीतिक दल अपनी ओर नहीं झुका पाया।

किसान आंदोलन का हासिल यह भी है कि उसने राजनीतिक विकल्प की अवसरवादी राजनीति को समझा दिया। जिसे हम राजनीति कह रहे हैं उसका सीधा-सीधा मतलब हो गया है सत्ता की राजनीति। संसदीय राजनीति में जो विकल्प आएगा, वह नीतिगत सवाल पर न हो तो अवसरवादिता होगी।

इस आंदोलन ने 2014 की उस प्रचंड बहुमत वाली सरकार को अवसाद में डाल दिया जो अभी अपने हर कदम को इतिहास में दर्ज करवाने पर तुली हुई थी। पहले तो उसने यही दिखाने की कोशिश की कि यह कुछ किसानों का मामला है जो कुछ दिनों बाद अपने घर लौट जाएंगे। आंदोलन के अपनी मौत मर जाने का इंतजार कर रही सत्ता को पहली बार लगा कि कहीं उसकी लोकप्रियता का अंत न हो जाए। नि:संस्देह यह लोकप्रियता उत्तर प्रदेश के संदर्भ में और जरूरी हो गई थी। कानून वापसी के बाद किसानों ने सरकार की उस कोशिश को भी धता बता दिया कि यह उसकी दरियादिली मानी जाए। दरियादिली का प्रचार चाहे कितना किया गया हो किसान अपनी मांगों को अपने हक का चेहरा देकर ही वापस लौटे।

2014 के बाद और किसान आंदोलन के पहले भारतीय राजनीति में वह दौर भी आया जब जनसंचार साधनों ने यह धारणा बना दी कि यहां सारी लड़ाई सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के बीच की है। देश की संसदीय राजनीति से जनता को लगभग बाहर ही कर दिया गया था। चुनावी प्रचार में जननीति के बजाए एक-दूसरे के चेहरे पर कीचड़ उछालने की रणनीति बना दी गई थी। कोई स्कूली बच्चों की तरह प्रतिद्वंद्वी नेता का नाम बिगाड़ रहा था तो कोई एक-दूसरे का पहनावा चालीसा गा रहा था। वहीं दूसरी तरफ किसान नेता बिल्कुल संसदीय भाषा में जननीतियों पर बात कर रहे थे। किसान राजनीति का एक हासिल यह भी है कि उसने भारतीय राजनीति को पार्टी बनाम पार्टी से सत्ता बनाम जनता की ओर लाने की राह दिखाई।

कृषि कानूनों की वापसी को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भूमिका का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं। इस समय भारतीय राजनीति में संघ के जितना बड़ा अखिल भारतीय विस्तार किसी और संगठन का नहीं है। संघ से जुड़े जमीनी कार्यकर्ता सरकार को लगातार आगाह कर रहे थे कि किसान आंदोलन के अपनी मौत मरने का इंतजार करना अपने अंत को दावत देना सरीखा है। किसान आंदोलन के चलते रहने का मतलब था केंद्र और उससे जुड़ी अन्य सत्ता का नुकसान ही नुकसान।

अगर अपने आनुषांगिक संगठन की रिपोर्ट के बाद ही भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने यह कदम उठाया है तो भारतीय राजनीति के लिए यह भी सुखद है। नहीं तो प्रशांत किशोर सरीखे बाजारू चुनावी रणनीतिकार भारतीय लोकतंत्र के स्वयंभू भाग्य-विधाता बन बैठे हैं। वो जिस अहंकार से इसे मुख्यमंत्री तो उसे प्रधानमंत्री बनाने का एलान करते हैं, कांग्रेस से पटरी नहीं बैठने पर उसके अंत की बात करते हैं, उनके बाजार को भी किसानों ने जोर का झटका दिया है।

कोई भी जीत अपने साथ चुनौतियां लेकर आती हैं। इस जीत के साथ सत्ता और जनता दोनों को चुनौती मिली है। कृषि का संकट वैश्विक संकट है। यह किसी देश विशेष के अधिकार में नहीं रह गया है। किसान आंदोलन ने व्यक्तिवादी होती भारतीय राजनीति को एक नई दिशा जरूर दी है। यह आंदोलन अंत तक नीयत नहीं बल्कि नीति के मुद्दे पर अड़ा रहा, इसलिए इस नीतिगत जीत को ऐतिहासिक कहा जा सकता है।