‘उनके लिए हम मैदान-ए-जंग हैं
फतह हो या शिकस्त रौंदे हम ही जाएंगे’
पंजाब से उठे किसान आंदोलन ने हाल के दिनों की राजनीति का आधार तैयार किया। उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की लाख कोशिशों के बाद भी राजनीतिक दलों को बुनियादी मुद्दों पर आना पड़ा। उत्तराखंड में खेती-किसानी पर बहस हुई। लेकिन पंजाब जैसे संवेदनशील सीमाई राज्य को राजनीतिक दलों ने खालिस्तान और आतंकवाद से जोड़ दिया। किसानों के मुद्दे पंजाब में ही बहस से पूरी तरह बाहर कर दिए गए। जिस अलगाववादी विचारधारा ने इंदिरा गांधी, बेअंत सिंह से लेकर सैकड़ों आम लोगों की शहादत ली उसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण फिर से जिंदा किया जा रहा है। पक्ष और विपक्ष के बीच पंजाब में जिम्मेदार राजनीति के इस खाली-स्थान पर बात करता बेबाक बोल।
‘जब सौ-सौ मील तक बच्चा भ्रष्टाचार करता है तो मां कहती है कि बेटा सो जा नहीं तो केजरीवाल आ जाएगा।’ खुद को भ्रष्टाचारियों की मुखालफत करने वाला आतंकवादी कह कर शेखी बघारते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने अपनी छवि गब्बर सिंह की तरह पेश की। हिंदी पट्टी में गब्बर सिंह का खौफ मनोरंजन का हिस्सा बन चुका है। लेकिन पंजाब के नक्शे पर एक ऐसा खौफ है जो वही समझ सकता है, जिसने उसे भोगा है। वह खौफ है-खालिस्तान।
पंजाब में ऐसी बहुत सी बूढ़ी आंखें हैं जिन्होंने अपनी जवान संतान की लाश देखी है। ऐसे बहुत से बच्चे हैं जिन्होंने पिता के नाम पर सिर्फ उनकी तस्वीर देखी है। ऐसी बहुत सी औरतें हैं जो जीवनसाथी का साथ पाने की उम्र आने के बाद ही अकेली हो गर्इं। ऐसे बहुत से परिवार हैं जो आज अपने घर की दीवारों के बीच इस शब्द की किसी भी तरह की मौजूदगी से कांप उठते हैं।
विभाजन के बाद भारत का जो आधुनिक इतिहास रहा है उसमें सबसे ज्यादा विस्थापन, खून, आंसू, अलगाव पंजाब के हिस्से आया है। पंजाब जिस खौफनाक मंजर से गुजरा है उसकी पीड़ा को फिल्मी संवाद के मजाक में उड़ा देना इतना आसान कैसे हो सकता है? देश में सत्ता पक्ष भी है और विपक्ष भी, लेकिन इन दोनों के बीच एक खाली-स्थान दिख रहा है, जिम्मेदारी के पक्ष का। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की राजनीति पंजाब में प्रवेश करते ही सत्ता से लेकर विपक्ष ने जैसी गैरजिम्मेदारी दिखाई है उससे हर वो तबका डरा हुआ है जिसने वाकई डर को जिया है, उससे उबरा है और अब भी बहुत हद तक उसमें धंसा हुआ है।
पंजाब ने देश की गैरजिम्मेदार राजनीति का परखनली परीक्षण कर दिया है। राजनेताओं को कम से कम उन जगहों पर तो अपनी इस तरह की राजनीति से बाज आना चाहिए, जहां की सीमा दूसरे देशों से लगती हैं। पंजाब, राजस्थान, बंगाल हमारे सीमाई राज्य हैं और सीमा पार की राजनीति इन पर बहुत हद तक प्रभाव डालती है। इन जगहों पर आपको अपने अति-राष्ट्रवाद के पाठ से परहेज करना चाहिए।
आपको याद नहीं है तो चलिए हम भी बात करते हैं उस डर की। याद दिलाते हैं खालिस्तानी उग्रवादियों के उभार के दिनों की। देश की जनता के पास कोई इंदिरा गांधी वापस नहीं आएंगी, किसी बेअंत सिंह और जनरल अरुण श्रीधर वैद्य को हम फिर नहीं पा सकते हैं। खालिस्तान ने ये नाम खाली किए हैं हमारे देश के नक्शे से।
इंदिरा गांधी, बेअंत सिंह तो वे नाम हैं जो इतिहास के पन्नों पर बड़े अक्षरों में रहते हैं। छोटे अक्षरों में लिखे जाने वाले नाम किसी का बेटा था तो कोई देश के पूर्वी हिस्से से आया कामगार। कोई विश्वविद्यालय का युवा था तो कोई फसल उगाने वाला किसान। इनके खाली-स्थान के बाद जिन लोगों की जिंदगियां बदलीं उनके बीच तो आप उम्मीद की कोई रोशनी पहुंचा नहीं सकते हैं। लेकिन आप उसे दोबारा डर और तनाव के हालात में भेजने से जरा भी नहीं हिचकेंगे, यह तब साबित हो जाता है, जब आप ऐन चुनाव के समय खालिस्तान की पृष्ठभूमि से जुड़े व्यक्ति के पास चले जाते हैं।
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं और उनकी महत्वाकांक्षा पर राष्ट्रीय नेता बनने का दबाव है। इस समय उन्हें अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी कि वे किसके साथ हैं। वे केवल यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं कि मेरा एक कार्यकर्ता था, जिस वजह से मैं वहां चला गया। एक जनप्रतिनिधि के नाते उन पर यह जिम्मेदारी आयद है, जिसे ठीक से निभाना ही होगा।
अरविंद केजरीवाल ने जो किया उस पर तो सवाल है ही, लेकिन उन पर पलटवार करने वालों की भाषा और भी चिंताजनक है। देश के जो अव्वल नंबर के राजनेता हैं वे भी उसी पर हमला कर रहे हैं और दूसरे नंबर के राजनेता भी उसी पर हल्ला बोल हैं। देश की सुरक्षा एजंसियों के अगुआ ही अपनी सभाओं में बार-बार खालिस्तान का नाम उछालेंगे तो फिर किसी और से क्या उम्मीद रह जाती है।
किसी भी चीज का विरोध करने के दो तरीके हो सकते हैं। पहला तो किसी पर सवाल उठाना कि देखो ये खालिस्तानी है, ये आतंकवाद को जिंदा कर रहा है। दूसरा तरीका हो सकता है कि आप खुद ही अपनी जुबान से खालिस्तान के नाम का जाप करना बंद कर दें। आप चुप रह कर इसकी उपेक्षा भी कर सकते हैं। तीसरा यह है कि राजनीति में नैतिकता की ऐसी जमीन तैयार की जाए, जिस पर खड़ा होकर कोई भी इस खौफनाक शब्द को जिंदा करने का अनैतिक काम न करे।
केजरीवाल साहब से हमारी गुजारिश है कि पंजाब में आप उन लोगों के घर जाइए जो खालिस्तानी उग्रवादियों के हाथों शहीद हुए। आप मजात के उन 33 मजदूरों के घर जरूर जाइए जिन्हें जिंदा जला दिया गया था। वे मजदूर रोजगार की तलाश में पंजाब आए थे। अभी बिहार में चुनाव नहीं हैं, फिर भी आप वहां उनके घरों में जाकर पूछिए कि क्या आज तक उनके परिवारों की जिंदगी सामान्य हो पाई है? उनके घरों में दोनों वक्त का चूल्हा आराम से जल रहा है?
अरविंद केजरीवाल जी, आप लालड़ू में उन लोगों के घर जाइए जिन्हें बस से उतार कर मार दिया गया था। उनका पंजाब की राजनीति से कोई ताल्लुक नहीं था। वे जहां से भी बस में बैठे थे उनकी मंजिल अपने घर-परिवार तक पहुंचना ही थी। अगर मरे हुए लोग बोल सकते तो वे बताते खालिस्तान क्या है।
आज के दौर में केजरीवाल हों या देश के कोई और नेता, उनसे तो तवक्को भी नहीं की जा सकती कि अगर देश में इस तरह की खतरनाक मुहिम उठी तो वे उसे दबाने का माद्दा भी रखते हैं। यह तब भी दबाया गया था उनके द्वारा जो खुद आतंकवादियों के बम का शिकार हुए। आतंकवाद के खिलाफ बेअंत सिंह की इच्छाशक्ति आधुनिक पंजाब का संवेदनशील इतिहास है। बेअंत सिंह और केपीएस गिल की बेमिसाल जोड़ी। एक के पास राजनीतिक इच्छाशक्ति थी तो दूसरे के पास उस इच्छाशक्ति को जमीन पर उतारने की प्रशासनिक महारत।
अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया चल रही है उनमें, पंजाब ही वो इलाका है जिसने साझा वैचारिक आधार तैयार किया। वही आधार प्रदेश जब चुनाव में पहुंचा तो मूल मुद्दे गायब हैं। उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड में किसान आंदोलन बहस में है। लेकिन, पंजाब के मुद्दों से किसान गायब हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिश के बावजूद उत्तर प्रदेश से किसान खारिज नहीं हो सके। किसानों को मुद्दे से हटाने के लिए ओवैसी की गाड़ी पर चली गोली से भी माहौल बदलने की कोशिश होती है। इन सबके बावजूद एक आंदोलन कैसे आवश्यक मुद्दों को खड़ा रखने में कामयाब होता है, उसका नमूना उत्तर प्रदेश है।
दूसरा उदाहरण पंजाब है जो किसान आंदोलन का केंद्र रहने के बावजूद खालिस्तान और कथित भ्रष्टाचार की बहस में उलझा दिया गया है। याद करें, 2014 का समय जब इन्हीं मुद्दों के बल पर कांग्रेस को पूरे देश से खारिज किया गया था। दिल्ली में लोकपाल की कोई लकीर नहीं खींची गई है और अब केजरीवाल पंजाब में मूल मुद्दे को गायब कर भ्रष्टाचार के खिलाफ आतंकवादी बन रहे हैं, खालिस्तान का जाप कर रहे हैं।
चुनावों का समय देश की जनता के लिए वाकई में अच्छे दिन देखने का समय होता है। कम से कम चुनावों का यह सुख तो मत छीनिए। राष्ट्रीय नेता बनने के नाम पर, एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के खाते में लाने के लिए आप ऐसी ओछी राजनीति करेंगे तो हमें नहीं चाहिए ऐसे कथित राष्ट्रीय नेता जिनके लिए राष्ट्र महज चुनावी सीटों का आंकड़ा भर है। अगर आप शाब्दिक अर्थों में राष्ट्रीय नहीं हो सकते हैं तो हम आपके फार्मूले से मोहल्ला मुख्यमंत्री ही चुन लेंगे और जनतांत्रिक तकाजों को निभा जाएंगे। राजनीतिक दलों ने पंजाब में खालिस्तान-पाकिस्तान का जो मोहल्ला चुना है वह हमें अलगाववादी राजनीति की उस तंग गली में पहुंचा देगा जहां की भगदड़ में हमारा लोकतंत्र कुचला जाएगा।