कथित बाबाओं के समर्थकों का शुरू किया हुआ फसाद हो या जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान फैली अराजकता। बाबाओं के डेरों से श्रद्धालुओं के रूप में निकलते दंगाई और मारे गए लोगों का आंकड़ा। कारों की खरीद-बिक्री में सुस्ती और कई तरह के कारखानों में मंदी के बाद हरियाणा के एनसीआर से जुड़े कई शहरों में बेरोजगारी का आलम। हरियाणा में इन स्थानीय मुद्दों की कहीं गूंज नहीं है। नवनिर्मित जननायक जनता पार्टी के नेता दुष्यंत चौटाला जब इन पर बात करने की कोशिश करते हैं तो उनके सामने अनुच्छेद 370 और कश्मीर का मसला उछाल दिया जाता है। वहीं महाराष्ट्र में वीर सावरकर से लेकर तीन तलाक और 370 जैसे मजबूत राजनीतिक फैसले के मुद्दे छाए हुए हैं। दोनों राज्यों में विधानसभा चुनावों में केंद्रीय मुद्दे हावी हैं। आखिर स्थानीय मुद्दों की गूंज क्यों नहीं सुनाई दे रही?

स्थानीय मुद्दे जैसे कि बिजली, पानी, सड़क, सूखा-बाढ़, कानून व प्रशासन आम जिंदगी से जुड़े हुए होते हैं। किसानों का सवाल, आदिवासियों का सवाल और इन सबसे जुड़ा रोजी-रोटी का सवाल। लोकतंत्र में नाकामियों को उभार कर उस पर सवाल-जवाब करना विपक्ष का काम होता है। सत्ता पक्ष यह नहीं कहेगा कि देखो, हमारे शासन में एक कथित बाबा के समर्थकों के फैलाए दंगे में इतने लोग मारे गए तो आरक्षण जैसे मुद्दे पर एक खास वर्ग ने पूरे राज्य की मशीनरी को बंधक बना डाला था, और हमारी सत्ता मूकदर्शक बनी रही। हर सत्ता यह जानती है कि सामूहिक याद की उम्र बहुत छोटी होती है। जनता के सामने सत्ता के खिलाफ उन यादों का पिटारा खोलने वाला विपक्ष ही जब मैदान से गायब हो तो वह करे भी तो क्या?

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने देश पर लंबे समय तक शासन तो किया लेकिन वह 2014 के बाद से अब तक विपक्ष की भूमिका निभाना नहीं सीख पाई है। 2014 के बाद शुरुआती समय तक तो कांग्रेसी नेतृत्व यही मानकर चलता रहा कि आने वाले चुनावों में जनता उसे महज इसलिए चुन लेगी क्योंकि वह वर्तमान सरकार से खुश नहीं है। उसने अपनी वापसी के लिए जनता से जुड़ने की कोशिश ही नहीं की। मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसे उस किसान आंदोलन का फायदा मिला जो जनवादी आंदोलनों से जुड़े संगठनों ने शुरू किया था। इन दोनों राज्यों में मुख्यमंत्री चुनने के लिए केंद्रीय नेतृत्व को जो आंतरिक युद्ध लड़ना पड़ा उससे साफ जाहिर है कि पार्टी को जनता के बीच की पैठ का ख्याल ही नहीं है।

हरियाणा हो या महाराष्ट्र, दोनों राज्यों में सत्ता पक्ष के नेता दावा कर रहे कि वे विपक्ष को किसी गिनती में ही नहीं रख रहे। महाराष्ट्र में भाजपा को किसी की फिक्र है तो भी वह शिवसेना जैसे सहयोगी दलों की। विपक्ष के नेता तो अपने इस्तीफों और दूसरी पार्टी में शामिल होने के कारण सुर्खियां बन रहे हैं। कांग्रेस के नेता प्रेस सम्मेलन करते हैं तो यह बताने के लिए कि उन्होंने तो बस चार उम्मीदवार के नाम दिए थे और पार्टी ने उनमें से एक को भी टिकट नहीं दिया तो फिर क्या फायदा ऐसी पार्टी में रहने का।

हरियाणा में लोकसभा चुनावों में जिस अशोक तंवर ने कांग्रेस के लिए लिए सबसे ज्यादा मेहनत की ऐन विधानसभा चुनावों के दौरान वो जननायक जनता पार्टी की पत्रकार वार्ता में दुष्यंत चौटाला के साथ हताश और निराश बैठे थे। जिन तंवर को भाजपा सरकार के खिलाफ हमलावर होना था वो दिल्ली में अपनी ही पार्टी के मुख्यालय के बाहर समर्थकों के साथ प्रदर्शन कर रहे थे। हरियाणा से लेकर केंद्र की राजनीति में कांग्रेस के कद्दावर नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला भी इन दिनों प्रभाव के स्तर पर पर्दे के पीछे ही दिख रहे हैं। अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद परिवार से बाहर दूसरा अध्यक्ष नहीं मिलना भी पार्टी की सीमा बता रहा।

केंद्र सरकार ने अपने खतरे उठा कर मजबूत राजनीतिक फैसले किए और अब वह राज्यों में इसका फायदा उठा रही है। लेकिन कांग्रेस के नेता इन मजबूत फैसलों पर इतने कमजोर हैं कि अनुच्छेद 370 पर हुड्डा का रुख अलग तो गुलाम नबी आजाद का रुख अलग रहता है। यही हाल जीएसटी से लेकर तीन तलाक तक के फैसलों पर रहा। कांग्रेस नेताओं के सुर अलग-अलग रहे। कांग्रेस जब इस पर रुख ही नहीं तय कर पा रही है तो मुद्दा कैसे बना पाएगी।

हरियाणा, महाराष्ट्र के बाद दिल्ली में आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने युद्ध स्तर पर अपनी तैयारी शुरू कर दी है लेकिन कांग्रेस नेतृत्व दिल्ली में एक अदद प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं दे सका है। इसके पहले भी बुजुर्ग शीला दीक्षित को प्रदेश की कमान सौंपी गई। लेकिन कांग्रेसी नेता ही कहने लगे कि उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए। अब शीला दीक्षित के बेटे पत्र लिख कर कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता को उनकी मौत का जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष की दौड़ में कीर्ति आजाद का नाम भी सामने आया है।

आजाद को पूर्वांचल के वोटों की खातिर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी के बरक्स लाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन दिल्ली की जनता के बीच तिवारी और आजाद के जमीनी आधार में जमीन और आसमान का अंतर है। तिवारी पिछले कई सालों से दिल्ली के लोगों के बीच अथक मेहनत कर रहे हैं। कीर्ति आजाद का नाम सामने आने के बाद कांग्रेस में वरिष्ठता की जंग भी छिड़ गई है। देखते हैं कि कांग्रेस अपने अंदरूनी कलह से निपट कर विधानसभा चुनाव में कब कूदती है।

हरियाणा और महाराष्ट्र के उलट दिल्ली में स्थानीय मुद्दे हावी हैं। अरविंद केजरीवाल की सरकार के मुफ्त बिजली-पानी और मेट्रो-बसों में सफर के खिलाफ आंकड़े जुटाए जा रहे हैं, पलटवार किया जा रहा है। दिल्ली में जबकि चुनाव थोड़े दूर हैं स्थानीय मुद्दों पर घमासान इसलिए मचा है क्योंकि यहां विपक्ष में भाजपा है। भाजपा अभी केंद्र से लेकर ज्यादातर जगहों की सत्ता में है, इसलिए उसके नेताओं और कार्यकर्ताओं में जीत की भूख है। जब विपक्ष में जीत की भूख होगी तभी वह सत्ता पक्ष के खिलाफ हमलावर होगा। अन्य राज्यों में विपक्ष जीत की उम्मीद खो चुका है। ऐसे माहौल में सत्ता पक्ष के नेता दावा कर रहे हैं कि भाजपा चुनाव जीतने और अन्य दल अपनी हैसियत बचाने के लिए मैदान में हैं। जनता के मुद्दों को उठाने के लिए सड़कों पर आंदोलन करना होता है। कांग्रेस के संगठन का ढांचा ढह चुका है और वह चंद नेताओं और उनके समर्थकों की पार्टी बनकर रह गई है। विकल्प का चेहरा बनने की राह में भी वह बेसाख हो चुकी है।

कांग्रेस और अन्य दलों के जनता से दूर होने का नतीजा है कि हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में विपक्ष की भूमिका भी पक्ष ही निभा रहा है। एजंडा भी वही तय कर रहा है और दोषी भी वही तय कर रहा है। विपक्ष की काहिली का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि इन चुनावों में सत्ता पक्ष के द्वारा उसे ही सजा देने की बात हो रही है। स्थानीय असफलता, विधायकों और सांसदों की नाकामी को सत्ता पक्ष पीछे धकेलने का ही काम करेगा। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अपने बीच वृहत्तर एकता ही नहीं बना पा रहे तो वे जनता के बीच कैसे स्वीकृत होंगे? देखना है, विपक्ष इस मरणासन्न अवस्था में कब तक रहता है।