अगर कोई शख्स अपनी भूख मिटाने के लिए रोटी चोरी करे तो चोर के हाथ काटने के बजाए बादशाह के हाथ काटे जाएं।’
जब सोशल मीडिया पर कोई चीज वायरल हो तो उस पर नजर पड़नी लाजिम है। दिल्ली दंगों के बाद हुक्मरानों के पल्ला झाड़ और टूटी रीढ़ की हड्डी को बेइलाज छोड़ उस पर चली लाठियों के लिए मरहम ढूंढ़ती पुलिस के बरअक्स जज फ्रैंक कैप्रियो के अदालती फैसलों के वीडियो वाट्सऐप समूहों और सोशल मीडिया पर तैर रहे हों तो सोचिए कि लोग उम्मीद की किरण कहां खोजते हैं। तो चलिए, दर्जा ना-उम्मीद के इस दौर में कैप्रियो के एक फैसले को साझा कर हम भी अपने आस-पास वैसा फरिश्ता पाने की आह भर लें।

अमेरिका के रोह्ड आइलैंड प्रांत के म्युनिसिपल जज फ्रैंक कैप्रियो की अदालती कार्यवाही टेलीविजन कार्यक्रम की कड़ी के रूप में यूट्यूब पर लाखों दर्शक बटोर चुकी है। कैप्रियो जब अपराधी पर आरोप तय करते हैं तो अपराध का दायरा एक इंसान से वृहत्तर होकर पूरे समाज तक फैल जाता है। बच्चे के खाना चुराने के आरोप में जब जज खुद भी हर्जाना भरते हैं तो वह किस्सा पूरी दुनिया में मानवीयता के अपने मसालों के साथ फैल जाता है। एक बच्चा दुकान से खाना चुराते हुए पकड़ा जाता है और सुरक्षा गार्ड से बचने की कोशिश में दुकान में टूट-फूट भी होती है। कैप्रियो की अदालत में जब बच्चा पेश हुआ तो उन्होंने चोरी की वजह पूछी। लड़के ने स्वीकार किया कि उसने रोटी और पनीर का टुकड़ा चुराया था। जज ने जानना चाहा कि दुकान से खरीदा क्यों नहीं। लड़के ने बताया कि घर में केवल उसकी बीमार मां हैं जो बेरोजगार हैं, उसने उन्हीं के लिए खाना चुराया था।

लड़के ने कहा कि वह कार साफ करने का काम करता था, लेकिन मां की देखभाल के लिए छुट्टी ली तो उसे काम से निकाल दिया गया। सबसे मदद मांगने के बाद भी नाउम्मीदी हाथ लगी तो उसने खाना चुराया। कैप्रियो का फैसला था-इस अपराध के लिए हम सब जिम्मेदार हैं। मेरे सहित यहां मौजूद हर शख्स दस डॉलर का भुगतान किए बिना कोर्ट से बाहर नहीं जा सकता, इसके अलावा मैं स्टोर और प्रशासन पर हजार डॉलर का जुर्माना लगाता हूं कि इन्होंने एक भूखे बच्चे से अमानवीय व्यवहार किया और इसे पुलिस के हवाले कर दिया। अगर 24 घंटे में जुर्माना नहीं जमा हुआ तो कोर्ट को वह दुकान सील करने का आदेश देना होगा’। जज ने फैसला सुनाते ही अपने हिस्से के दस डॉलर का जुर्माना मेज पर रख दिया।

कैप्रियो का उदाहरण इसलिए कि दिल्ली पुलिस ने उत्तर प्रदेश पुलिस से प्रेरणा लेकर इस बात के लिए कदम उठाए हैं कि वह दंगे में हुए नुकसान की भरपाई दंगाइयों से करेगी। वैसे, दिल्ली पुलिस को एक तमंचा लहराते युवक को पकड़ने में जितने दिन लगे उससे तो सवाल उठता है कि वह सभी दंगाइयों की पहचान कब तक करेगी। जज कैप्रियो बच्चे के खाना चुराने के लिए सभी संस्थाओं को दोषी ठहराते हैं तो उसके बरअक्स दिल्ली पुलिस ने अखबार में यह खबर भी पढ़ी होगी कि जब उत्तर पूर्वी दिल्ली में जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में प्रदर्शनकारियों ने कई घंटे तक रास्ता जाम कर रखा था तो उस वक्त पुलिस के आला अधिकारी पूर्वी दिल्ली के न्यू अशोक नगर में एक हास्य कवि सम्मेलन में शिरकत कर रहे थे। यह तब, जबकि केंद्र के कानून के खिलाफ लोगों का जुटान बढ़ रहा था और इसकी प्रतिक्रिया में भाजपा नेता ने सीएए के पक्ष में प्रदर्शन शुरू कर दिया। पुलिस ने इसकी गंभीरता को समझने में देर कर दी।

न्यायाधीश कैप्रियो के प्रसंग में दिल्ली पुलिस से सवाल यह है कि इस हिंसा के जिम्मेदार क्या वे चंद दंगाई हैं जो अचानक उभर आए और जिन पर देश की राजधानी की पुलिस काबू नहीं पा सकी। यह वह समय था जब अमेरिका के राष्ट्रपति दिल्ली की राजकीय यात्रा पर थे तो देश की खुफिया सेवाओं की नाकामी की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है। अमेरिका के राष्टÑपति की यात्रा के पहले भी न तो आइबी और न कोई अन्य एजंसियां यह आगाह कर पार्इं कि उत्तर पूर्वी दिल्ली के हालात इतने गंभीर हैं कि वह कभी भी जल सकती है। अगर आगाह किया भी तो वे कौन लोग हैं जिन्होंने इसे अनसुना करना बेहतर समझा। दिल्ली में हिंसा शुरू हो भी गई तो उस पर काबू पाने में पुलिस को इतनी देर क्यों लगी?

अभी तक हम यौन उत्पीड़न के मामलों में देखते थे कि पीड़िता पर ही ऊंगली उठ जाती है कि कपड़े ऐसा क्यों तो घर से निकलने का वक्त वैसा क्यों? पिछले काफी समय से दंगों के मामलों में भी यही देख रहे कि सब कुछ जल जाने के बाद पुलिस और प्रशासन मानो ये सवाल कर रहा हो कि बता तेरा सामान क्यों जला, तेरे ही अजीजों का कत्ल क्यों हुआ। उत्तर प्रदेश से संवाद गूंजा था कि हम टूटी लाठियों का हर्जाना उसी से वसूलेंगे जिसकी पीठ पर टूटी थी। रीढ़ की हड्डी टूटी या बची सवाल यह नहीं होगा, लाठी से पूछा जाएगा कि तुम्हें चोट तो नहीं लग गई। यह वैसा समय है जब पत्रकारिता के चौखटे में बात पूरी नहीं हो पाती और हम अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यम तलाशते हैं। अब पीड़ित ही वह पंचिंग बैग हो गया है जिस पर कभी इंटरनेट की संवेदनाओं के तो प्रशासनिक सवालों के घूंसे पड़ने लगते हैं।

दिल्ली दंगे की एक पीड़ित महिला कह रही थी कि दंगाइयों से डर कर भागते वक्त पता नहीं क्या सूझा कि बेटी की स्कूल की वर्दी उठा ली। एक छोटी बच्ची अपने जले घर से पेंसिल, शार्पनर और वो नोट्स ढूंढ़ रही है जो उसके बड़े भाई ने परीक्षा की तैयारी के लिए लिखवाए थे। जिन घरों में मौत का मातम और दंगे का खौफ पसरा था वो कैमरे के फ्लैश से चुंधियाती आंखों से पूछ रहे थे कि बताइए हम परीक्षा देने कैसे जाएं। जले हुए स्कूलों के बीच राख हुई किताबों के दृश्य देख लग रहा कि हम किस कबीलाई संस्कृति में पहुंच गए। नेताओं के नफरती बोलों की आग जो स्कूलों तक को राख कर गई उसका जिम्मेदार कौन होगा। जिन बच्चों ने अपनों का कत्ल होते और अपने स्कूल को जलते देखा है वे कैसा मन लेकर बड़े होंगे। घर जलने और आग शांत होने के बाद प्रशासन शिक्षक-अभिभावक बैठक कर रहा है और पुलिसवाले परीक्षा केंद्रों के बाहर फूल दे रहे हैं। लेकिन दंगा पीड़ितों के उन आरोपों की सुनवाई कौन करेगा कि कई बार पुलिस नियंत्रण कक्ष को फोन किया लेकिन मदद नहीं मिली। इन सबके बीच एक पुलिस आयुक्त की ससम्मान विदाई हो गई और दूसरे वाले सब नियंत्रण में है का संदेश देते हुए उस कुर्सी पर काबिज हो गए जिस पर बहुत से सवाल उठे हैं।

उत्तर प्रदेश में हिंसा और दिल्ली दंगों के बाद एक रवायत जोर पकड़ रही कि जिम्मेदार कौन ये सवाल उठाने वाला ही पूरे मंजर का गुनहगार करार दिया जाएगा। वो जमाना कोई और था जब शासक मजलूमों के जख्म पर मरहम लगाने की अदाकारी भी कर दिया करते थे। जजों के चोगे में किसी फरिश्ते का अक्स दिखता था। दंगाइयों से वसूली के एलान और जज कैप्रियो के गुनाह के सभी भागीदारों की जिम्मेदारी तय करने के किस्सों के बीच फानी जोधपुरी के शब्दों में यही आह निकलती है-
‘कोई मुअम्मा कभी इस तरह भी हो मौला
सवाल मेरी तरफ हो जवाब उसकी तरफ
यूं अपना नामा-ए-आमाल कर लिया तक्सीम
गुनाह मेरी तरफ हैं सवाब उसकी तरफ।’