पारंपरिक रूप से केंद्रीय बजट को आम बजट कहा जाता था। भावार्थ यही कि आम लोगों का बजट। लेकिन, 2024 के बजट में जो एक चीज विलुप्त कर दी गई वह यही आम है। इस बार के बजट से आम आदमी गायब है। बजट के पहले ही आर्थिक सर्वे में भारत के केंद्रीय बैंक से कह दिया गया कि वह महंगाई पर गौर करना बंद करे। अभी तक जो आम जनता केंद्रीय बैंक के नीतिगत दर, महंगाई पर मरहम के शब्दों का इंतजार करती थी, अब उससे भी महरूम हो गई। सरकार का महंगाई से निपटने का नायाब तरीका यह है कि चुनाव से लेकर बजट भाषण तक में उसका जिक्र ही नहीं किया जाए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बजट को साठ फीसद तक कम कर दिया गया जिसकी वसूली विश्वविद्यालय विद्यार्थियों से ही करेंगे। जीएसटी के बाद बढ़ी महंगाई में उलझा मध्य-वर्ग आने वाले समय में शैक्षणिक कर्ज में उलझने की कूबत कहां से लाएगा या इससे पूरी तरह दूर कर दिया जाएगा, इस पर शायद ही मुख्यधारा में विमर्श हो। आम बजट 2024 में बेजिक्र महंगाई और सत्ता के द्वारा उपेक्षित मध्य-वर्ग पर बेबाक बोल।
आम…भारतीय समाज और राजनीति का अब तक का सबसे खास और सशक्त शब्द। किसी चीज को न्यायोचित ठहराना है तो उसे आम जिंदगी से जोड़िए। किसी फैसले को लोकप्रिय बताना है तो उसे आम लोगों से जोड़िए। आम आदमी भारत की राजनीति को वह खास मोड़ देता रहा है जिसके कारण उसे जनता जनार्दन कहा गया।
मध्य-वर्ग राजनीतिक शक्ति के तौर पर अनुपयोगी करार दिया जा रहा है
यह ‘आम’ शब्द भारतीय राजनीति में सबसे सशक्त हुआ करता था। इसी को नजर में रख सरकारें अपनी नीतियां बनाती थीं। यह आम आदमी जलने से बचाने के लिए सत्ता की रोटी पलटने का अभिमान रखता है। लेकिन, हालिया राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तनों में सबसे अहम यह है कि अब उसने आम को खास नहीं रहने दिया है। न ज्यादा अमीर और न ज्यादा गरीब वाला यह मध्य-वर्ग राजनीतिक शक्ति के तौर पर अनुपयोगी करार दिया जा रहा है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है 2024 का आम बजट।
स्तंभकार ने आदतन बजट को ‘आम बजट’ लिख दिया, क्योंकि अभी तक बजट की सादृश्यता आम नागरिकों के साथ ही होती थी। केंद्रीय बजट को आम फहम भाषा में आम बजट ही कहा जाता था। माह-ए-फरवरी का मतलब ही होता था आम बजट का मौसम। न ज्यादा सर्दी और न ज्यादा गर्मी वाली फरवरी में सरकार आम बजट लेकर आती थी और सुर्खियां बनती थीं कि बजट में क्या खास है आम लोगों के लिए।
आम आदमी का पसंदीदा स्तंभ क्या सस्ता, क्या महंगा खत्म हो चुका है
पिछले एक दशक में बहुत कुछ बदलने के साथ देश के बजट का चरित्र भी बदल रहा है। धीरे-धीरे बदल रहे बजट में 2024 में यह पुख्ता हुआ कि बजट में अगर कोई नहीं दिख रहा है तो वह है आम आदमी। आम आदमी का पसंदीदा स्तंभ क्या सस्ता, क्या महंगा खत्म हो चुका है। पहले माह-ए-फरवरी का इंतजार (इस बार चुनाव के कारण पूर्ण बजट जुलाई में पेश हुआ) किसी वसंतोत्सव या वैलेंटाइट डे नहीं, बजट के लिए होता था। आम इंसान इस उम्मीद से बजट भाषण सुनने बैठता था कि अगली एक तारीख के बाद बटुए में थोड़ी बचत होगी या नहीं?
सस्ता और महंगा के प्रत्यक्ष गणित को खत्म करते हुए अप्रत्यक्ष कर जीएसटी ला दिया गया। जीएसटी किसी बजट भाषण का मोहताज नहीं है। यह सरकार के कोषागार को कैसे समृद्ध कर सकता है इसे समझने के लिए आप किसी होटल में शाही पनीर मंगवाएं। अब पनीर, काजू, तेल, मसाले सब पर पहले से ही कर दिया जा चुका है। उस गैस चूल्हे के लिए भी कर दिया जा चुका है जिस पर शाही पनीर बनता है। ये सब कर देने के बाद जब शाही पनीर की थाली आपके पास आएगी और आप बिल चुकाने जाएंगे तो आपको फिर से जीएसटी जैसा शाही कर चुकाना पड़ जाएगा।
इस सरकार ने जितना जीएसटी का गुणगान किया, उस पर ध्यान दिया वह अभूतपूर्व है। आर्थिक विशेषज्ञ भी शुरुआती दौर से आज तक जीएसटी के बेहतर परिणाम को लेकर वह सुबह कभी तो आएगी का आश्वासन देकर थक चुके हैं। देश की अर्थव्यवस्था में सरकार जीएसटी को नायक बना चुकी है, लेकिन आम जनता के नजरिए में यह सबसे बड़ा खलनायक है। जीएसटी के विमर्श में छोटे और मझोले कारोबारियों की परेशानियों को उसी तरह गायब कर दिया गया है जैसे बजट में से आम आदमी।
जीएसटी ने महंगाई को इतना आम बना दिया है कि सरकार चुनाव से लेकर बजट तक में इसका जिक्र करना छोड़ चुकी है। सरकार यह मान चुकी थी कि जनता ने महंगाई को इस कदर कबूल कर लिया है कि अब यह चुनावी मुद्दा बनने लायक भी नहीं है। इसलिए बजट भाषण में महंगाई शब्द विलुप्त हो चुका है। 2024 के बजट में यह सबसे कम जिक्रमंद और सबसे कम फिक्रमंद शब्द है।
महंगाई को लेकर सरकार इतनी बेफिक्र हो चुकी है कि उसने आरबीआइ को भी कह दिया कि उसे महंगाई की चिंता करने की जरूरत नहीं है। केंद्रीय बैंक को सरकार ने कहा कि उसे नीतिगत दर तय करने में खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर गौर करना बंद कर देना चाहिए। पिछले दिनों महंगाई दर कम होने के बावजूद आरबीआइ ने बढ़ी हुई खाद्य महंगाई का हवाला देते हुए नीतिगत दर में कटौती से परहेज किया। केंद्रीय बैंक हर दो महीने पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक महंगाई के आधार पर नीतिगत दर तय करता है जिसमें भोजन, ईंधन, विनिर्मित सामान और चुनिंदा सेवाएं शामिल हैं। 2024 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया कि खाद्य पदार्थों को छोड़ कर महंगाई का लक्ष्य तय करने पर विचार करना चाहिए।
आम आदमी के बजट का एक बड़ा हिस्सा खाद्य पदार्थों से तय होता है। महंगाई से जुड़ी चिंताओं के कारण ही केंद्रीय बैंक ने फरवरी 2023 से नीतिगत दर में बदलाव नहीं किया है। लेकिन, अब आरबीआइ को निर्देश है कि वह खाद्य पदार्थों की महंगाई से आंखें मूंद ले। आर्थिक सर्वेक्षण में इस रुख के बाद केंद्र सरकार ने 2024 के पूर्णकालिक बजट में महंगाई से मुंह फेर लिया।
जिस तरह सामाजिक, राजनीतिक व अन्य मुद्दों पर आम जनता का भरोसा सुप्रीम कोर्ट पर होता है, उसी तरह आम जनता आरबीआइ के नीतिगत दरों का इंतजार करती थी। महंगाई को लेकर देश के सबसे बड़े बैंक की चिंता के बाद हालात सुधरने की आस भी बंधती थी। लेकिन, आम लोगों की अर्थव्यस्था के लिए फिक्रमंद संस्था को इस तरह की फिक्र न करने की सलाह देकर अर्थव्यवस्था में किसी भी तरह की महंगाई के लिए जनता के पास कबूल है कहने के अलावा और कोई राह भी नहीं छोड़ी जाएगी। आम आदमी का सबसे बड़ा सपना ‘मकान’ पर इस तरह का संपत्ति कर लगा दिया गया है कि वह इसे लेकर कालाबाजारी के ही चक्रव्यूह में फंसा दिया जाएगा।
चुनाव के मैदान में भाजपा सरकार के नेता दावा करते रहे कि महंगाई कोई मुद्दा ही नहीं है। लेकिन चुनाव नतीजों में भाजपा सरकार के राजग सरकार में रूपांतरित होने के बाद लगा था कि सरकार सबक लेगी। सरकार का सबक यह है कि महंगाई कम और ज्यादा के मुश्किल मुद्दे से उलझने से अच्छा है कि महंगाई को मुद्दा ही नहीं रहने दिया जाए। वैसे भी घटते रोजगार के अवसरों ने जिस तरह से मध्य-वर्ग को सिकोड़ा है आने वाले समय में वह और कमजोर होता जाएगा। रोजगार के नाम पर ‘इंटर्नवीर’ से किस तरह का माहौल पैदा होगा यह डर उद्योग-जगत के विशेषज्ञ जता चुके हैं।
आर्थिक सर्वे में सरकार ने कह दिया है कि हमारे देश के विश्वविद्यालयों से डिग्री लेकर निकलने वाला हर दूसरा नौजवान किसी काम का नहीं होता। शायद इसलिए सरकार हर साल शिक्षा के बजट में कटौती कर रही है। 2024 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बजट में 60 फीसद तक की कटौती कर दी गई। यूजीसी की इस कटौती की भरपाई विश्वविद्यालय आम आदमी की जेब से करेंगे। विश्वविद्यालय या तो हेफा (हायर एजुकेशन फाइनांसिंग एजंसी) से कर्ज लेंगे और फिर इसकी अदायगी के लिए विभिन्न पाठ्यक्रमों का शुल्क कई गुणा तक बढ़ा दिया जाएगा। साठ फीसद की बड़ी कटौती को पाटने का पुल आम जनता की जेब ही होगी जिसके लिए आने वाले समय में उच्च शिक्षा इतनी महंगी होगी कि आम कालेजों में पढ़ने के लिए भी शिक्षा कर्ज लेना होगा।
महंगाई को खाने की थाली तक ही सिकोड़ कर शिक्षा जैसे मुद्दे को भी उसके दायरे से बाहर कर दिया गया है। आम आदमी के लिए शिक्षा और उच्च शिक्षा जैसी वृहद व्यवस्था को ‘कौशल विकास’ तक सीमित किया जा रहा है। शिक्षा और रोजगार के मुद्दे को कौशल तक के विकास ने आम आदमी को इतना शक्तिहीन कर दिया गया है कि उसके पास सत्ता के सामने किसी तरह की राजनीतिक शक्ति बनने का कौशल ही खत्म हो जाएगा।
अर्थव्यवस्था से आम आदमी को गायब करने का संदेश यही है कि उसका कोई राजनीतिक भविष्य नहीं देखा जा रहा है। अर्थव्यवस्था की दिशा राजनीति को मध्य-मुक्त करने की है।