चुनाव के मैदान में स्त्री के उतरते ही उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती ‘शुचिता’ की आती है। शुचिता को दोनों खेमे अपनी-अपनी सुविधा से जगह दे देते हैं। बजरिए कंगना रनौत भारतीय राजनीति से लेकर स्वतंत्र बौद्धिक वर्ग ने जिस तरह स्त्रीद्वेषी नजरिया अपनाया वह यह बताने के लिए काफी है कि आज भी स्वघोषित बौद्धिक तबका स्त्रियों को किस सामंती नजरिए से देखता है। जिन रचनाकारों के स्त्रीवादी नजरिए के लेखन से पुस्तकालयों की अलमारियां भरी हुई हैं, चंद पंक्ति की सोशल मीडिया पर की गई उनकी त्वरित टिप्पणी उनका असली चेहरा सामने ला देती है। कंगना रनौत भी पीड़ित दिखने के साथ ही पीड़ा देने वालों की भाषा बोलती नजर आने लगती हैं। राजनीति में खड़ी एक स्त्री से राजनीति में आने की इच्छुक स्त्री शुचिता की मांग करती है। फिर वक्त का पहिया घूमता है, और अब दोनों एक ही नाव पर खड़ी दिखती हैं, जिनसे शुचिता की मांग की जाने लगती है। चुनाव मैदान में खड़ी स्त्री चाहे जिस भी पक्ष की हो, उसे लेकर जबान खोलते ही अपने सामंती यथार्थ को सामने रख देने वाले समाज पर बेबाक बोल

खुली जबान तो
जर्फ उन का हो गया जाहिर
हजार भेद छुपा रक्खे थे खमोशी में
-अनवर सदीद

दुनिया के और लोकतांत्रिक देशों की तरह ही भारत में भी आम चुनाव के समय सत्ता से लेकर जनता तक का असली चेहरा सामने आता है। एक आदर्श के रूप में हम क्या बनना चाहते हैं और एक सच के रूप में हम क्या हैं? हमारा नया सच है-कंगना रनौत। अभी-अभी तो चुनावी बांड के जिन्न से आम लोग चकाचौंध थे कि कारोबारी कंपनियों के चिराग को घिसते ही आवाज आ जाती थी-हुक्म करो मेरे आका, मेरे मुनाफे से कितने गुणा ज्यादा पैसे चाहिए। रेवड़ी और लाभार्थी वाली जनता ठगी सी महसूस कर रही थी कि गरीब जनता के प्रतिनिधि दलों के पास इतना पैसा है जितनी गिनती उनकी गणित की किताब नहीं सिखा पाई।

चुनावी बांड के बाद स्त्रीद्वेषी विवाद खड़ा हो गया

चुनावी बांड के आर्थिक सच के बाद आता है हमारा सामाजिक और राजनीतिक सच, बजरिए कंगना रनौत। वहीं सत्ता पक्ष की मानसिकता बताने के लिए उसके उस चुनाव प्रचार का वीडियो काफी है जिसमें एक दुल्हन के सामने विपक्ष के सारे नेताओं को दूल्हा बना दिया गया है। युवा से लेकर बुजुर्ग नेताओं को दुल्हन की ‘इज्जत’ का दावेदार बताया जा रहा है। लोकतांत्रिक सत्ता को ‘दुल्हन’ और ‘इज्जत’ का रूप देकर दूल्हा रूपी विपक्ष के नेताओं को क्या साबित किया जा रहा है, यह यहां लिखने की जरूरत नहीं है। इस चुनावी प्रचार का समर्थन करने वाले सुप्रिया श्रीनेत पर सवाल उठा रहे हैं तो श्रीनेत के समर्थक इनकी भाषा पर सवाल उठा रहे हैं। हमारे पास एक अफसोसजनक सुविधा है। हम दोनों पक्ष की भाषा को एक खेमे में रख सकते हैं-स्त्रीद्वेषी।

राजनीति में पितृसत्ता को समझने का अहम अध्याय है कंगना

बात कंगना रनौत से। रनौत हिमाचल प्रदेश के मंडी नामक जगह से सिर्फ भाजपा की उम्मीदवार नहीं हैं, बल्कि देश की राजनीति में पितृसत्ता को समझने का अहम अध्याय हैं। कंगना रनौत की भूमिका तब से शुरू होती है जब उन्होंने बालीवुड में भाई-भतीजावाद के मुद्दे को मुखरता से उठाया था और इस दुस्साहस का जोखिम भी भोगा। सिनेमा उद्योग में पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाकू महिला की भूमिका करने के लिए किसी अभिनेत्री को महज अदाकारी आनी चाहिए, इसके बाद उसे हर तरह के पुरस्कार से लेकर उद्योग में एक सुरक्षित जगह भी मिल जाती है। लेकिन, मुश्किल तब आती है जब स्त्री अदाकारी से बाहर निकल कर सिनेमा उद्योग के रवैए पर सवाल उठाने लगती है। असल जिंदगी में नायकत्व का यह खमियाजा इतना खतरनाक होता है कि सिनेमा में उसके लिए अदाकारी के रास्ते बंद कर दिए जाते हैं।

कंगना रनौत जान चुकी हैं कि अब राजनीति का मैदान ही सही

सिनेमा उद्योग जैसे पितृसत्ता के गढ़ में हिम्मत दिखाने के बाद कंगना रनौत जान चुकी थीं कि अब उनके लिए राजनीति का मैदान ही सही है। राजनीति के मैदान में सबसे जरूरी है बोलना, अपनी धमक दिखाना। स्त्री की आवाज के प्रति कान में रूई डाल रखे समाज के लिए सबसे पहला काम होता है किसी तरह का विस्फोट करना। कंगना ने अपनी रुचि के हिसाब से राजनीतिक लाइन चुनी और विस्फोट करना शुरू कर दिया। लेकिन महज जीवविज्ञान के तहत स्त्री का शरीर पाने के बावजूद कोई महिला सामाजिक और राजनीतिक रूप से स्त्रीवादी नहीं हो जाती है सो उनका भी स्वर सामंती होने लगा।

पितृसत्ता को अपनी आवाज सुनाने के लिए कंगना ने भी पितृसत्ता की भाषा और व्याकरण को चुना। अपने पाले में वे ‘शुचिता’ को लेकर आईं। एक राजनीतिक धारा की पार्टी की भाषा बोलने के कारण उन्हें लगा कि शुचिता पर लेकर उन पर पलटवार नहीं होगा, क्योंकि इसे खास पार्टी के खेमे का माना जाता है। उस वक्त उन्होंने उर्मिला मातोंडकर के लिए जिस तरह की बातें कही थीं आज वह प्रतिध्वनि बन कर तब उनका पीछा कर रही हैं जब उन्हें अपने लिए खुद वैसे ही स्त्रीविरोधी बयानों से गुजरना पड़ रहा है। जब लोग कंगना को लेकर विपक्ष को घेर रहे हैं तो उर्मिला मातोंडकर वाले बयान के बचाव में उन्हें बयान देना पड़ रहा है।

आज वे कह रही हैं-मुझे बताओ, क्या ‘साफ्ट पोर्न’ या ‘पोर्न स्टार’ आपत्तिजनक शब्द हैं? नहीं! वे आपत्तिजनक शब्द नहीं हैं। ये सिर्फ एक ऐसा शब्द है जो सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं है। भारत में ‘पोर्न स्टार्स’ को कितना सम्मान मिलता है, सनी लियोन से पूछिए। दुनिया में कहीं और ऐसा मामला नहीं है।’ कंगना अपने पुराने बयान के बचाव में आज जो कह रही हैं तो उन्हें जान लेना चाहिए कि भारत में सनी लियोन के लिए राजनीति कभी उतनी आसान नहीं होगी। भारत से लेकर पूरी दुनिया का सच यह है कि राजनीतिक जीवन में स्त्री के एक कदम आगे बढ़ाते ही शुचिता के रखवाले उसके दूसरे कदम खींचने लगते हैं। इस शुचिता की एक खेमे से दूसरी खेमे में आवाजाही उतनी ही आसान है जितना राजनीतिक दलों का अंतरात्मा की आवाज पर दूसरे दल में चले जाना।

कंगना रनौत ने अपने लिए एक राजनीतिक विचारधारा चुनी, जैसे कोई एक पुरुष चुनता है। लेकिन, महिलाओं के लिए यह उतना आसान नहीं है। खास कर कुछ खास क्षेत्र की महिलाओं के लिए तो बिलकुल आसान नहीं है।

आज कंगना को लेकर विपक्ष के प्रगतिशील पत्रकार से लेकर तथाकथित प्रबुद्ध वर्ग तक ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, वह हमारे पूरे समाज को कठघरे में रखता है। लग रहा है कि हम आज भी महिलाओं को पुराने जमाने की तरह रखना चाहते हैं। यानी अगर किसी ने मिट्टी के बर्तन बनाने का काम शुरू किया है तो फिर उसकी आगे की पीढ़ियों के पास भी मिट्टी के बर्तन बनाने का ही विकल्प होना चाहिए। अगर किसी अभिनेत्री ने एक बार कोई खास भूमिका की है तो फिर असल जिंदगी में बार-बार उसके उस किरदार को सामने ला दिया जाएगा।

राजनीति में स्त्री विरोधी मानसिकता को हर समय की उन स्त्रियों ने झेला है जिन्होंने सिनेमा के बाद राजनीति में आने का विकल्प चुना है। एनटी रामाराव दक्षिण भारतीय सिनेमा के पितृ-पुरुष थे, लेकिन उन्हें दक्षिण भारत की राजनीति का पितामह बनने में कोई परेशानी नहीं आई। लेकिन, तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के लिए यह राह उतनी आसान नहीं थी। दक्षिण भारत की राजनीति में सिनेमा और टीवी चैनल राजनीतिक प्रचार का अहम हिस्सा रहे हैं। चुनाव के समय देखा जाता था कि प्रदिद्वंद्वी टीवी चैनल चुनाव के आसपास उन्हीं फिल्मों को दिखाना शुरू कर देते थे, जिनमें उनकी नाचने-गाने वाली भूमिका होती थी। जयललिता को सिनेमाई छवि से मुक्ति पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी।

कंगना का राजनीतिक भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वे मंडी लोकसभा क्षेत्र में राजनीतिक मुद्दों को साध पाती हैं या नहीं? जिन स्थानीय लोगों से वे स्थानीय तौर-तरीकों से मिल-जुल रही हैं उनके लिए यह मायने नहीं रखता कि कंगना ने फिल्मों में किस तरह की भूमिका निभाई थी। चिंता देश के उस बौद्धिक तबके की है जो चुनावी कमान अपने हाथ में रखने का दावा करता है और एक राजनीतिक उम्मीदवार पर वार करने के लिए अबौद्धिक भाषा का इस्तेमाल करता है। सोशल मीडिया ने मोटी किताबें लिखने वाले उन बौद्धिकों की पोल खोल कर रख दी है जो त्वरित प्रतिक्रिया में सामंती भाषा का इस्तेमाल कर बैठते हैं, और बता देते हैं, हमारी असली समझ तो इतनी सी है जो एक स्त्री को सिनेमा के परदे से निभाई उसकी खास भूमिका से बाहर निकलने नहीं देगी। चुनावी मैदान में बौद्धिकों-अबौद्धिकों की ‘शुचिता’ बता रही कि भारतीय राजनीति में महिलाओं के लिए सहजता के संदर्भ में बौद्धिकता अभी दूर है। सोशल मीडिया का शुक्रिया, हमारे बौद्धिकों का ‘त्वरित चेहरा’ दिखाने के लिए।