कहते हैं कि फिल्में समाज का आईना होती हैं। फिलहाल इसी आईने की वजह से ‘चमकीला’ देख कर समाज को अपनी कथित शुचिता की चमक कम महसूस होती लग रही है। लेकिन, सच और सिनेमा का सामना होता ही रहता है। मकबूल हास्य कलाकार महमूद फिल्म निर्माता व निर्देशक भी थे, जिन्होंने फिल्म बनाई थी ‘सबसे बड़ा रुपैया’। नए आजाद देश का सच वही पुराना सा होने लगा था, न बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया। इसके बावजूद राजनीति से लेकर समाज में सिद्धांत और आदर्श के लिए थोड़ी सी जगह आरक्षित थी। विचारधारा में आदर्श के इसी आरक्षण की वजह से कभी किशोर कुमार ने संजय गांधी के प्रचार कार्यक्रम के लिए गाना गाने से इनकार कर दिया था। आपातकाल के हर जुल्म को बर्दाश्त किया था। आज आजादी के 75 साल तक आते-आते हर तरह के आरक्षण के मांगों के बीच बस आदर्श हर परिसीमन से बाहर है। सिद्धांत की दुहाई देने वालों ने धन के हवनकुंड में आदर्श को स्वाहा बोल दिया है। सबसे बड़ा रुपैया से लेकर, सबके लिए सबसे बड़ा रुपैया तक के इस सफर पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।

किस ने वफा के नाम पे धोका दिया मुझे किस से कहूं कि मेरा गुनहगार कौन है-नजीब अहमद

‘मेरे पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं है, चाहे वह आंध्र प्रदेश हो या तमिलनाडु…। 2024 के लोकसभा चुनाव के शुरुआती समय में देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोकसभा चुनाव न लड़ने के लिए तर्क दिया कि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं है। निर्मला सीतारमण को दक्षिण के राज्य की लोकसभा सीट से टिकट की पेशकश की गई थी।

देश की वित्त मंत्री पैसों की कमी को लेकर चुनाव लड़ने से मना कर रही हैं इस बात पर कोई विमर्श भी नहीं छिड़ा। शायद लोगों को असली वजह पता थी कि दक्षिण में हालत उतने भी अच्छे नहीं हैं कि उत्तर के दावों की तरह उम्मीदवार के नाम पर कोई ‘बिजली का खंभा’ भी जीत जाए।

चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं होने की बात को लोगों ने चुटकुला समझ कर हजम कर लिया था, क्योंकि तब तक सत्ताधारी पार्टी को मिला बेशुमार चुनावी चंदा दुनिया की नजर में आ चुका था। एक विडंबना यह भी थी कि देश की वित्त मंत्री के पति ही चुनावी बांड को अब तक का सबसे बड़ा घोटाला बता रहे थे।

थोड़ा पीछे मुड़ कर सवाल यह है कि पैसे बिना चुनाव नहीं लड़ सकने वाली वित्त मंत्री की बात पर कोई परेशान क्यों नहीं हुआ? इस सवाल की वजह यह है कि भ्रष्टाचार या काला धन अभी भी बड़ा मुद्दा है। लेकिन, चुनाव में अकूत धन के खर्च को सामान्य भी मान लिया गया है। इस बहस में पड़ने से पहले ही आम आदमी इसे यह कह कर खारिज कर देगा कि भारतीय चुनाव तो पैसों का खेल है ही। भारतीय चुनाव में जितने पैसे खर्च होते हैं, जिस तरह के अमीर उम्मीदवार सामने आते हैं सिर्फ उसे देखते हुए ही भारत को अमीरों का देश घोषित कर दिया जा सकता है।

चुनावी खर्च में इसी अमीरी के बीच 2024 के अपने ‘संकल्प पत्र’ में देश की सत्ताधारी पार्टी एलान करती है कि अगले पांच साल तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जाता रहेगा। इसी वक्त मतदान शुरू होने के चार दिन पहले चुनाव आयोग का आंकड़ा सामने आया कि उसने 4650 करोड़ रुपए जब्त किए हैं।

आयोग के आंकड़ों की मानें तो लोकसभा चुनाव के पिछले 75 साल के इतिहास में अब तक सबसे ज्यादा पैसे जब्त किए गए हैं। यह जब्ती 2019 के मुकाबले 34 फीसद अधिक है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सबसे ज्यादा 236.07 करोड़ की तो उत्तर प्रदेश में 145.77 करोड़ की जब्ती हुई। 2000 करोड़ के नशीले पदार्थ भी जब्त हुए।

जिन पैसों की जब्ती हुई उन पैसों की भी चिंता किसी को नहीं है। खर्च होना और जब्त होना बराबर सी बात है। ‘काले धन’ की इतनी अमीरी उस देश के चुनाव में है जहां 80 करोड़ को मुफ्त राशन ‘संकल्प’ की बात है।‘सेंटर फार मीडिया स्टडीज’ ने अपने अध्ययन में 2019 के चुनाव को अब तक का सबसे खर्चीला चुनाव बताया था। इसमें सत्ताधारी दल भाजपा ने सबसे ज्यादा 27500 करोड़ रुपए खर्च किए।

ध्यान दिया जाए कि चुनावी बांड योजना शुरू होने के बाद यह पहला चुनाव था। इस चुनाव में लगभग 55 से 60 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे। यही हाल 2014 के चुनाव का था, जिसमें चुनावी उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 23.8 लाख रुपए थी, जो उस वर्ष भारत के प्रति व्यक्ति आय से लगभग 27 गुना अधिक थी। अध्ययन में यह भी सामने आया कि राजनीतिक दल अमीर उम्मीदवारों को तरजीह देते हैं। सत्ताधारी पार्टी के पाले में विपक्षी पार्टी की तुलना में बीस गुणा उम्मीदवार ज्यादा अमीर थे।

एक तरफ तो एक देश, एक चुनाव को लेकर तर्क दिया जा रहा है कि बार-बार चुनाव होने से पैसे खर्च होते हैं और देश की संपत्ति को नुकसान होता है। दूसरी तरफ हर उस दरवाजे को दरियादिली से खोल दिया जाता है जहां से चुनाव के मैदान में पैसों की बारिश हो। चुनावी बांड पर अभी बहस जारी है। पहले नियम था कि कोई कंपनी अपने मुनाफे का साढ़े सात फीसद तक राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती है। फिर नियम बन गया कि कोई कंपनी अपने मुनाफे का सौ फीसद तक राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती है।

कोई कंपनी अपने मुनाफे का सौ फीसद चंदा कैसे दे सकती है? कंपनी के मुनाफे से उसकी आधारभूत संरचना, कर्मचारियों की तनख्वाह व अन्य हित जुड़े रहते हैं। बाजार और व्यापार की धुरी ही मुनाफा है। अपना सौ फीसद मुनाफा देने के बाद किसी कंपनी का अस्तित्व ही शून्य हो जाएगा। क्या इस आधार पर शक की गुंजाइश बनती है कि कुछ कंपनियों के जन्म का कारण ही राजनीतिक चंदा था? यह बहस अभी और दूर तक जाएगी इसमें कोई शक नहीं है।

आम तौर पर चुनाव आयोग चुनाव खर्च की सीमा प्रति उम्मीदवार के हिसाब से तय करता है। लेकिन, अब ज्यादातर राजनीतिक दलों का चुनाव प्रचार केंद्रीय हो गया है। पार्टी के आला चेहरे का रोड शो, रेडियो, टीवी विज्ञापन केंद्रीय खर्च में आता है। भाजपा से लेकर तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के चुनाव प्रचार के तरीके को देखेंगे तो यहां पूरा जोर केंद्रीय चेहरे पर होता है। स्थानीय उम्मीदवार अब ज्यादा मायने नहीं रखता। चुनाव प्रचार को केंद्रीय रूप दिए जाने के कारण ही चुनावी चंदे का सबसे ज्यादा हिस्सा केंद्र से लेकर राज्य के सत्ताधारी दलों को मिला। इन दलों के पास केंद्रीय चेहरा है और ये इसी सवाल के साथ चुनावी मैदान में उतरते हैं कि हम नहीं तो कौन?

पहले आम चुनावों में राजनीतिक दलों के लिए सबसे बड़ा डर होता था-व्यवस्था विरोधी माहौल। फिलहाल दावा किया जा रहा है कि यह शब्द भारतीय चुनाव के शब्दकोश से ही बाहर कर दिया है। क्या ऐसे दावे की वजह केंद्रीय चेहरों पर चुनाव लड़ने का चलन है? चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में बताया जा रहा है कि बेरोजगारी, महंगाई तो सबसे बड़ा मुद्दा है, लेकिन विश्लेषक इसके साथ जोड़ दे रहे हैं कि व्यवस्था विरोधी माहौल कोई मुद्दा नहीं है। विश्लेषकों की मानें तो जनता ने बेरोजगारी व महंगाई के लिए व्यवस्था को जिम्मेदार मानना छोड़ दिया है। वह केंद्रीय चेहरे के छाते तले किसी को भी वोट देने के लिए तैयार है।

2019 में भी बात व्यवस्था विरोधी माहौल की आई थी। उस वक्त ऐन चुनाव के पहले कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री बदल दिए गए थे। इस बार भी ऐसी नजीर देखी गई। ऐन चुनाव के पहले क्या मुख्यमंत्री बिना जनता के भय के बदल दिए गए? सत्ता किसी भी काल, किसी भी सोच की हो वह अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है। लेकिन, जब चुनाव विश्लेषण में जनसंचार के साधन व्यवस्था-विरोध शब्द को ही खारिज करने लगें तो जनता के चेतने का समय है।

व्यवस्था को तो ‘जंगल’ भी खारिज नहीं करता है फिर यह तो जनतंत्र है। चुनाव या तो व्यवस्था को रहने देने के लिए, या बदल देने के लिए होते हैं, व्यवस्था-विहीन होने के लिए नहीं। पहले चरण के मतदान तक व्यवस्था व विरोध को ही खारिज कर देंगे तो चार जून तक किस पर बात करेंगे? जरा हौले-हौले चलिए, छह चरण बाकी है।