Politicians Padyatra And Impact On Public: अभी तक भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी शक्ति कांग्रेस ही रही है, जाहिर है, केजरीवाल भी उसी में हिस्सेदारी कर शक्तिमान हो रहे हैं। बिहार में ‘द प्लूरल्स पार्टी’ के जरिए पुष्पम प्रिया चौधरी ‘स्टार्टअप’ जैसी राजनीतिक कार्यप्रणाली ले ही आई हैं। सबकी मजबूती बन रहे राहुल गांधी अपनी छवि बदलने के लिए मैदान में उतर गए हैं तो साफ दिख रहा है कि अब छवि-प्रबंधन की यह लड़ाई बहुकोणीय होगी। राहुल गांधी की तदबीर से तकदीर और तकदीर से तस्वीर तक की यात्रा के मायने खोजता बेबाक बोल।
‘तेरी सहायता से जय तो मैं
अनायास पा जाऊंगा,
आने वाली मानवता को,
लेकिन क्या मुख दिखलाऊंगा?’
रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियां राजनीतिक रणनीतिकाकर प्रशांत किशोर ने ट्वीट की थीं। इन पंक्तियों का संदर्भ नीतीश कुमार और प्रशांत किशोर की हुई हालिया मुलाकात से निकाला जा रहा था। दावा किया जा रहा था कि नीतीश कुमार चाहते हैं कि आने वाले चुनावों के लिए प्रशांत किशोर फिर से उनके लिए छवि प्रबंधन करें। लेकिन देश में कई राज्यों की सरकार बनने के बाद छवि प्रबंधन का शुल्क वसूलने वाले आज खुद चंपारण से पैदल यात्रा पर निकल चुके हैं। भारत में ऐसी यात्राएं महात्मा गांधी के नाम पर ही होती हैं, तो प्रशांत किशोर की यात्रा भी बीती दो अक्तूबर से शुरू हुई। चुनावी कंपनी उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरी करने में नाकाम है या इस तरह की यात्राएं छवि-प्रबंधन का ही हिस्सा हैं इस पर बहस होती रहेगी।
कई सरकारों को बनाने का तमगा अपने कंधे पर लटकाने वाले आज दिनकर की पंक्तियों का हवाला देकर पैदल चल रहे हैं। ये जिस तरह के ‘राजनीतिक रणनीतिकार’ नामक करिअर के अग्रदूत बने उसने 2014 के बाद के समय को छवि-प्रबंधन का युग घोषित कर दिया। इंटरनेट से फैली हर तस्वीर अपने तरह का विमर्श रचने लगी। एक तस्वीर का जवाब दूसरी तस्वीर से दिया जाने लगा। उदारीकरण के बाद बाजार के शब्दकोश में ‘स्टार्टअप’ का प्रवेश हुआ। प्रशांत किशोर की कंपनी से ही प्रेरणा लेकर जेपी वाली राजनीतिक क्रांति की जमीन पर पुष्पम प्रिया चौधरी राजनीति का ‘स्टार्टअप’ लेकर आईं। विदेशी डिग्री, दिनकर की कविता, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका जैसी भाषा, काले कपड़े, काले जूते, सब कुछ किसी कंपनी की थीम की तरह का रखते हुए पुष्पम प्रिया चौधरी ने ‘द प्लूरल्स पार्टी’ की स्थापना की।

पुष्पम प्रिया चौधरी अपनी पहली कोशिश में नाकाम रहीं लेकिन राजनीति को ‘स्टार्टअप’ में ढालने वाले बाजार के हौसले अभी भी बुलंद हैं। उन्हें लग रहा है कि आने वाले वक्त में जनतंत्र पर वे अपनी मनचाही पकड़ बनाए रख सकेंगे। जिस तरह से नवाचारी कंपनियां लक्षित ग्राहकों को कोई नई सेवा देकर प्रभावित करना चाहती हैं उसी तरह से ये चुनावी रणनीतिकार जनता को कुछ नया देने की पेशकश करते हैं।
यह भी देखना मौजू होगा कि महज आठ साल में चुनावी रणनीतिकार के बाजार का सूचकांक गिरना शुरू हो गया है। इसलिए, ऐसी कंपनियों की सेवा के साथ नेता सीधे जनता के बीच जाने के लिए मजबूर हो रहे हैं। आज राहुल गांधी की बारिश में भीग कर भाषण देती हुई तस्वीर चर्चा का विषय बनी। कभी मौजूदा सरकार के नेताओं की, ओबामा की तो कभी पुतिन की ऐसी तस्वीरें इंटरनेट पर तैरती रहती हैं। सवाल यही है कि इन तस्वीरों से जनता को क्या हासिल हो पाता है?

हमारे देश में गणतंत्र की जड़ें प्राचीन काल से हैं। जनता और शासक के बीच जिम्मेदाराना रिश्ते की कहानियां हम बचपन से पढ़ते हैं। आधुनिक लोकतंत्र के पहले राजा वेश बदल कर जनता के पास जाता था। जनता को क्या दुख है राजा उसे क्या सुख दे पाया है, जनता के मन में उसके प्रति कैसी धारणा है, वह अपने राजकाज को किस तरह से सुधार पाए, यह सब जानने के लिए वह अपनी पहचान को परे रख देता था। अज्ञातकुलशील होकर ही वह यथार्थ को ज्ञात कर सकता था।
यात्रा में दिख रहा राजतंत्र और जनतंत्र का फर्क
अब हम जनतंत्र में हैं तो जनता को ही अपने दुख बताने के लिए सड़क पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यहां हम राजतंत्र और जनतंत्र का फर्क देख सकते हैं। नेताओं को जब अपने अस्तित्व के संकट का भान होता है तब अपने दुख दूर करने के लिए सड़क पर अपनी पहचान वापस पाने की यात्रा शुरू करते हैं। यहां पर सवाल यह है कि वे जनता की सुन भी रहे हैं या जनता को सिर्फ सुना रहे हैं?
आज के दौर में जनता की तरफ से हमारा यह सवाल सबसे है। बीते इतिहास से भी और वर्तमान से भी। यह सवाल जयप्रकाश नारायण से भी है, अण्णा हजारे, अरविंद केजरीवाल, राहुल गांधी और प्रशांत किशोर से भी है। इन नेताओं ने जनता की चिंताओं का बक्सा तैयार किया। उन चिंताओं के हासिल में जनता ने उस बक्से में जोरदार मतदान भी किया। लेकिन जनता के हिस्से में वो बक्सा आज तक खाली है।

आधुनिक जनतंत्र में नेताओं की छवि-यात्राएं एक वैसे बक्से की तरह है, जिसके ऊपर दया, करुणा, जनसरोकार जैसी सुंदर छवियों की चित्रकारी है। लेकिन, अंदर से यह डिब्बा खोखला होता है। जनता से जुड़ने का आधार क्या हो सकता है? उसका आधार आपके अंदर की जनचेतना ही हो सकती है। यह जनचेतना किसी कैलेंडरी तारीख के साथ नहीं शुरू हो सकती है और न ही किसी छवि प्रबंधन कंपनी की प्रयोगशाला में रातों-रात तैयार हो सकती है।

अतीत का महत्त्व इसलिए है कि उससे वर्तमान को आंका जा सकता है। बिना जनतांत्रिक चेतना का अतीत लिए आप चंद चुनिंदा तारीखों में जंतर मंतर पर रैली कर देंगे, रामलीला मैदान में तिल रखने की जगह नहीं रहने देंगे और तयशुदा रास्तों पर लोगों को गले लगाएंगे तो यह भविष्य की पुख्ता तस्वीर नहीं हो सकती है।
इन यात्राओं से जितनी छवियां आती हैं वे इनसे जुड़े नेताओं की महानता की गाथा में जुड़ जाती हैं। आपकी छवियों से जनता की पहचान वंचित तबके की तो हिंदु-मुसलिम-सिख-ईसाई आपस में भाई-भाई वाली जैसी है। लेकिन, विपक्ष के नेता के तौर पर आज के दौर में यह आपसे जुड़ने का आधार नहीं हो सकता। जब आप धर्मनिरपेक्षता को ही खारिज करवा चुके हैं तो भाईचारे की तस्वीरों से क्या होना है।
उसी हथियार को फिर से आजमाना यानी एक चूकी हुई रणनीति को जनता पर फिर से थोपना है। अपनी विकसित राजनीतिक समझ को शून्य भाव में पड़ी जनता पर थोप देने से वह आपके लिए आंदोलित नहीं हो उठेगी। जनता को आंदोलित करने की पूरी सामाजिक, राजनीतिक प्रक्रिया में आप उतरना ही नहीं चाहते हैं।
आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस की ही जमीन पर हिस्सेदारी मांगने में जुटी
जब आप अपनी पहचान लेकर उतरते हैं तो वहां से जुड़ाव होता है या अलगाव होता है, यह देखना अहम होगा। आपको जुड़ना होगा जनता से। जनता से जुड़ने के लिए आपके पास क्या आधार है? याद रखिए, भाजपा की अभी तक की सबसे बड़ी ताकत कांग्रेस ही है। कांग्रेस के खारिज चेहरे से वह खुद को स्वीकार्य बना रही है। आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस की ही जमीन पर हिस्सेदारी मांगने में जुटी है।
अब कांग्रेस भी नैतिकता और राजनीतिक शुचिता की जमीन पर अपनी दावेदारी को निकल पड़ी है। अभी तो कांग्रेस को खारिज करने का खतरा कोई राजनीतिक टिप्पणीकार नहीं उठा सकता है। जाहिर सी बात है, आने वाले समय में छवि-प्रबंधन की लड़ाई बहुकोणीय होगी। देखना होगा कि इस लड़ाई में जनता के हिस्से कितनी जीत आती है।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में कोई ‘नए राहुल गांधी’ दिखाई नहीं दे रहे हैं, बल्कि यही ‘असली राहुल’ हैं और आज देश को ऐसे ही एक नेता की जरूरत है, जो जनता की बात को सुने। इस सवाल पर कि राहुल गांधी 2024 में विपक्ष व कांग्रेस का चेहरा बनने की दिशा में हैं रमेश ने कहा, ‘हमारे देश में चुनाव सौंदर्य प्रतियोगिता नहीं होते हैं। हमारे देश में चुनाव पार्टियों के बीच होते हैं, पार्टी की विचारधाराओं और कार्यक्रमों के बीच होते हैं, व्यक्तियों के बीच नहीं होता।’